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नौकरशाही का जिम्मा : क्या 2022 के सपने होंगे साकार?

नौकरशाही का जिम्मा : क्या 2022 के सपने होंगे साकार? - Lok Sabha Elections 2019
-वीरेन्द्र पैन्यूली
 
केंद्र सरकार 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए ब्यूरोक्रेसी से अपना काम करवाने की तोड़ ढूंढने में लगी हुई है। राजनीतिक विपक्ष से पार पाने का काम तो दलबदल करवा ही रहा है। इसी क्रम में एक राज्य मुखर महिला मुख्यमंत्री केंद्र सरकार के इन फरमानों को मानने के लिए तैयार नहीं है। इसी तरह कतिपय अन्य राज्यों से जवाब आए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि उनके राज्यों में विभिन्न स्तरों पर भविष्य की विकास की दिशा के लिए योजना दृष्टिकोण पत्र जिस तरह से बनते थे, उसी तरह से बनेंगे।
 
जनता से उनकी प्राथमिकताओं को जानने के लिए जो प्रक्रियाएं अपनाई जाती थीं, वही अपनाई जाएंगी। यहां केंद्र सरकार को इस कटु सत्य को भी आत्मसात कर लेना चाहिए कि हर राज्य केंद्र शासित राज्य नहीं है व विपक्षी दलों की राज्य सरकारों के रहते हुए राज्य में तैनात अधिकारियों को सीधे अपने जिलों में 'क्या करो व कैसे करो' के निर्देश नहीं दिए जा सकते हैं।
 
ब्रिटिश सरकार ने अपने निरंकुश शासन को सरकारी अधिकारियों के माध्यम से ही चलाया। मनमाने 'कर' थोपना और 'राजस्व' वसूल करना सरकार चलाने के पर्याय थे इसलिए जिलों में कलेक्टर होते थे। आजाद भारत में यह दायित्व व व्यवस्था कायम है किंतु जिला कलेक्टर की जगह आमजन की जुबान पर 'डीएम' ज्यादा प्रचलित पद लगता है।
 
ऐसे में जब मीडिया में यह आया कि प्रधानमंत्री ने वीडियो कांफ्रेसिंग के जरिए पूरे देश के जिला कलेक्टरों को संबोधित किया तो जिलाधिकारियों के लिए यह सुविचारित संबोधन लगा। शायद ब्रिटिशकालीन 'कलेक्टर' शब्द को इस तरह तवज्जो देकर यह स्मरण करवाने की कोशिश की गई है कि राज्यहित में राजस्व वसूल करने के लिए कलेक्टर अपने व्यवहार में किस हद तक जा सकते थे।
 
संदेश यह भी जा रहा है कि चाहे आप जिस भी राज्य के जिला कलेक्टर हो, अपने राज्य के बजाय केंद्र सरकार के नारों और मिशनों को प्राथमिकता में रखना होगा। जिन राज्यों में केंद्र के दलों के गठबंधन वाले दलों की सरकार है वहां तो समस्या नहीं आएगी किंतु जिन राज्यों में विपक्ष की सरकारें हैं, वहां देर-सबेर समस्या जरूर आएगी। इसे कलेक्टरों के माध्यम से केंद्र का पॉलिटिकल एजेंडा लागू करवाना माना जाएगा। जनता व राजनीतिक विश्लेषकों के पास इसे मानने के पर्याप्त कारण हैं।
 
याद करें, जब वेंकैया नायडू उपराष्ट्रपति चुन लिए गए थे तो एक समारोह में कहा गया था कि चूंकि अब देश के सर्वोच्च 3 पदों पर एक ही विचारधारा के लोग हैं इसलिए अपने विचारों के अनुरूप काम करने में आसानी होगी। उस समय से ही अगले 5 सालों के लक्ष्यों की बात शुरू कर दी गई थी। परोक्ष रूप से संकेत था कि कम से कम उसी विचारधारा के राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति 5 सालों तक अपने-अपने पदों पर रहेंगे। फिर इसी 5 साल 2017 से 2022 संकल्पावधि को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण कालखंड 1942 से 1947 से जोड़ा गया।
 
1942 अंग्रेजों 'भारत छोड़ो' के आह्वान का वर्ष था और 1947 भारत की आजादी का साल। इन 2 कालखंडों में उद्देश्यों में साम्य दिखाने व जनता को एक गैरराजनीतिक लगने वाला नारा देने के लिए 2022 तक नवभारत निर्माण के लिए 'संकल्प से सिद्धि' का मिशन भी दिया गया।
 
जिस दिन से देश आजाद हुआ हर नेता तो यही कहता आया है, हर प्रधानमंत्री यही कहते आए हैं कि अधिकारियों को फील्ड या फाइलों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि जमीनी हकीकत जानने के लिए क्षेत्र में जनता के बीच जाना चाहिए। किस जिला अधिकारी की यह जिम्मेदारी नहीं थी कि वह अपने जिले में स्वास्थ्य, शिक्षा व सफाई की समस्याओं को न होने दे? खाद्य आपूर्ति बनाए रखे? सरकारी संपत्ति पर कब्जा व अतिक्रमण न होने दे? यही नहीं, कई राज्यों में तो पहले से ही प्रावधान है कि राज्य में विभिन्न स्तर के अधिकारी कितने दिन गांवों में रात्रि प्रवास करेंगे?
 
परंतु इस पर शायद ही अमल होता है। जिन अधिकारियों की तैनाती क्षेत्रों में होती है, वे भी जुगाड़ करके सुविधाजनक स्थानों पर अपने कैंप कार्यालय बना लेते हैं या अपनी पोस्टिंग डेपुटेशन में मुख्यालयों में करवा लेते हैं। राज्यों में तो कई बार नेताओं व मंत्रियों के दबावों से पीड़ित अधिकारी राज्य से बाहर अपनी तैनाती की जुगत में लगे रहते हैं।
 
विडंबना यह भी है कि जिन अफसरों का रखना, हटना राजधानियों से तय होता है और जिनका कई बार 2 साल एक जिले में रहना भी मुश्किल होता है उनसे जिले का दृष्टिकोण पत्र अगले 5 सालों के लिए बनाने की अपेक्षा की जाती है। हर अधिकारी यह भी जानता है कि चाहे केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार हो, प्राथमिकता में कार्य वहीं होंगे, योजनाएं वहीं आएंगी, जहां सत्तारूढ़ दलों के विधायक हों, सांसद हों या सरकारें हों या जहां चुनाव या उपचुनाव हों। यही नहीं, विरोधियों के क्षेत्र में चलती हुईं योजनाओं के लिए संसाधनों का अकाल हो जाता है। ऐसे में जिला कलेक्टर वही करेंगे, जो एक चतुर अधिकारी करेगा।
 
आश्चर्यजनक तो यह है कि किसी विधायक, सांसद या जिला पंचायत अध्यक्ष द्वारा यह सवाल नहीं उठाया जा रहा है कि जो दायित्व जनप्रतिनिधियों, जिला पंचायतों, नगर व महानगर निकायों का है, वो नौकरशाही के जिम्मे क्यों डाला जाता है? वैसे तो सदैव ही सांसदों या विधायकों की ये शिकायतें रहती थीं कि सांसद या विधायक निधियों से प्रस्तावित उनके कार्यों को जिला प्रशासन जिला योजनाओं में शामिल नहीं करते हैं। जिला पंचायतों के अध्यक्ष या पदाधिकारी भी इस तरह की शिकायतें विगत में करते रहे हैं कि जो कुछ जिला योजनाएं वे प्रस्तावित करते हैं, उन पर प्रभारी मंत्री अपने ढंग से काट-छांटकर देते हैं।
 
जो भी हो, इस निर्णय के राजनीतिक निहितार्थ होने जा रहे हैं। जिलों में केंद्र का हस्तक्षेप कम से कम आगामी लोकसभा तक केंद्रीय प्रशासनिक सेवाओं के माध्यम से बढ़ने जा रहा है। मजबूत बाबू खासकर राष्ट्रीय व राज्य प्रशासनिक सेवा के आला अधिकारी यदि अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी निभाएं, गलत आदेशों का पालन न करें तो आमजन के कष्ट काफी कुछ कम हो सकते हैं।
 
नि:संदेह ऐसे सीधी रीढ़ की हड्डी के अधिकारियों को हर समय अपना बंधा बिस्तर-सूटकेस तैयार रखना पड़ सकता है। ऐसे अधिकारी माफिया व अपराधी तत्वों के निशाने पर भी रहते हैं। हालांकि सार्वजनिक रूप से आजादी के प्रारंभिक दिनों से ही जब-जब कोई नेता प्रशासकीय प्रशिक्षुओं या पदासीन अधिकारियों को संबोधित करता है तो उपदेशात्मक लहजे में यह जरूर कहता है कि आप किसी भी नेता के दबाव में काम न करें। (सप्रेस) 
 
(वीरेन्द्र पैन्यूली स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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