रचनात्मकता की ओर भारत-चीन संबंध
एक बार यदि भरोसा टूट जाए तो असंख्य प्रयास और अनेक दशक भी नाकाफी होते हैं रिश्तों के तार पुनः जोड़ने के लिए। बात हम यहां कर रहे हैं भारत और चीन के संबंधों की। पांच से अधिक दशक बीत चुके हैं किन्तु 'हिंदी चीनी भाई-भाई युग' के पश्चात् हुआ 1962 का चीनी आक्रमण, आज भी दोनों देशों के बीच रिश्तों को तनावपूर्ण और गैरभरोसेमंद बनाए हुए है।
मोदीजी का हाल ही का चीनी दौरा इसी तनाव को कम करने के प्रयासों की कड़ी का एक भाग था। यदि चीन ने सन् 1962 में आक्रमण नहीं किया होता तो वर्तमान दुनिया का स्वरूप शायद आज कुछ और होता। किन्ही भी दो राष्ट्रों में मित्रता से पहले जरुरी है आपसी विश्वास। बिना विश्वास व्यापार तो हो सकता है किन्तु मित्रता नहीं। भारतीय कूटनीति की सोच की सराहना करनी होगी जिन्होंने इस द्विपक्षीय यात्रा की योजना बनाई जिसका एकमात्र उद्देश्य दोनों देशों के बीच के तनाव को कम करना था विशेषकर डोकलाम की घटना के बाद। राजकीय दौरों में समझौतों या दौरे के अंतिम में साझे बयान का दबाव दोनों देशों के नेताओं पर होता है किन्तु यह यात्रा लगभग अनौपचारिक थी जो सामान्य तौर पर देखी नहीं जाती।
ऐसी ख़बरें हैं कि दोनों नेताओं के बीच खुलकर बात हुई बिना किसी अवरोध या हिचक के। भारत-चीन के द्विपक्षीय संबंधों के समग्र विकास के बड़े हित में, भारत-चीन सीमा क्षेत्र में शांति और सीमाओं की पवित्रता बनाए रखने का बड़ा महत्व है। इसमें शायद ही किसी को संदेह हो कि भारत और चीन यदि आपस में शांति और मित्रता के साथ एक-दूसरे के साथ सहयोग करें तो दोनों ही देशों के आर्थिक हितों की रक्षा होगी जिससे विकास कार्यों में गजब की तेजी लाई जा सकती है। एशिया पुनः एक बार विश्व का वित्तीय केंद्र और आर्थिक धुरी बन सकता है। इस बड़े लक्ष्य को पाने के लिए क्या चीन और भारत अपने छोटे-छोटे मतभेदों को पीछे छोड़ सकते हैं?
चीन और भारत दोनों देशों के नेता आज राजनैतिक रूप से ताकतवर हैं, अतः अभी तो यह संभव है क्योंकि चीन के राष्ट्रपति की कुर्सी से कुछ वर्षों तक शी जिनपिंग को कोई खतरा नहीं है और भारत में मोदीजी पूर्ण बहुमत की सरकार का नेतृत्व करते हैं। उधर भारत के विरुद्ध पाकिस्तान को चीन का समर्थन समाप्त होते ही पाकिस्तान भी अपने दड़बे में चुपचाप बैठा रहेगा। अब बात करते हैं, गृहनगर कूटनीति की। सन् 2014 में, राष्ट्रपति शी जिनपिंग को उनकी भारत की राजकीय यात्रा के दौरान मोदीजी ने अपने गृह राज्य गुजरात में आमंत्रित किया था। तब ही चीन के राष्ट्रपति शी ने मोदीजी को अपने गृह नगर वुहान आने के लिए निमंत्रित किया था।
इस तरह प्रधानमंत्री की वुहान यात्रा को दो सबसे बड़ी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के नेताओं के बीच मोदीजी की 'गृहनगर कूटनीति' के रूप में भी बताया जा रहा है। यहां यह भी रोचक है कि मोदीजी, चीन की अपनी विभिन्न यात्राओं में पहले पूर्वी, दक्षिणी, पश्चिमी और उत्तरी चीन जा चुके थे, अब हुबेई प्रांत की राजधानी वुहान की अपनी इस यात्रा के साथ उनकी सूची में मध्य चीन भी शामिल हो गया है। इस तरह वे सम्पूर्ण चीन का दौरा कर चुके हैं। वुहान की यह यात्रा एक गैर सामान्य यात्रा थी, क्योंकि यह जानते हुए भी कि अगले माह जून में मोदीजी को शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में शिरकत करने के लिए पुनः चीन के शेडोंग प्रांत के किंगडाओ शहर जाना है, इस यात्रा की योजना बनाई गई।
जाहिर है कि सचमुच कुछ तो महत्वपूर्ण था जो एक माह के लिए भी नहीं रुक सकता था। इसमें संदेह नहीं की भारतीय प्रधानमंत्री डोकलाम में भारत की गरिमा बनाए रखते हुए भी चीन के साथ तनाव कम करने में कामयाब हुए हैं किंतु हर हिंदुस्तानी के मन में फिर भी एक सवाल तो है कि चीन पर कितना भरोसा किया जा सकता है। इसका जवाब तो चीनी नेताओं के पास ही है और आने वाले कुछ दिनों में हम उनके व्यवहार में इसके संकेत देखेंगे। आशा तो अच्छे संकेतों की ही करनी चाहिए।