गुरुवार, 26 दिसंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. विचार-मंथन
  3. विचार-मंथन
  4. Environment Consciousness
Written By

पर्यावरण चेतना और महिलाएं

पर्यावरण चेतना और महिलाएं - Environment Consciousness
डॉ. कामिनी वर्मा
 
प्रकृति और मानव का उल्लासमय साहचर्य सृष्टिकाल से ही विद्यमान है, तभी तो प्रकृति के चितेरे कवि सुमित्रानंदन पंत का मन प्रकृति से अन्यत्र कहीं नही रमता।
 
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया तोड़ प्रकृति से भी माया बाले तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन भूल अभी से इस जग को। कालिदास की शकुंतला भी वृक्षों और लताओं के साथ सगे भाई बहन जैसा स्नेह रखती है और उनके पहली बार पुष्पित होने पर उत्सव मनाती है।
 
आद्देव कुसुम प्रसूति समये यस्या भवत्थुत्सवः
न सिर्फ मानव बल्कि प्रकृत भी मनुष्यों के सुख दुख में सहभागिनी रही है, तभी तो शकुंतला की विदाई के समय लताएं पीले पत्ते गिराकर आंसू बहाती है।
 
अपसृत पांडुपत्रा मुच्यंत श्रुणीव लता
 
जब तक प्रकृति और पुरुष के बीच सौहार्दपूर्ण सहअस्तित्व रहा, वह दुग्ध दोहन हेतु पन्हाई गौ सदृश समस्त वनस्पतियां उत्पन्न करती रही और जीवों को धारण करती रही परंतु भोग वादी वृत्तियों के वशीभूत होकर जब उसका निर्ममतापूर्वक दोहन आरम्भ हुआ, वहीं से पर्यावरण संकट आरम्भ हो गया।

प्रकृति ने भी प्रचंड रूप धारण कर लिया। परिणामतः अकाल, अतिवृष्टि, भूकम्प अनावृष्टि, भूस्खलन, ग्लोबल वार्मिंग, नई नई बीमारियां जैसी  समस्या आज आम बात हो गई है। अतिशय प्रदूषण के कारण पृथ्वी के रक्षा कवच के रूप में विद्यमान ओजोन परत में छिद्र हो गया है और सूर्य की पैरा बैंगनी किरणें धरती पर जाकर विभिन्न प्रकार के रोगों का कारण बन रही है। पर्यावरण आपदा को दूर करके उसे संरक्षण तथा पोषण प्रदान करने में महिलाओं की भूमिका सदैव सराहनीय रही है।
 
1730 में राजस्थान के खेजड़ली गाँव की महिला अमृता देवी अपनी तीन बेटियों के साथ राजा के सिपाहियों द्वारा वृक्षों को काटने से बचाने के लिए वृक्षों से लिपट गई और वृक्षों के साथ कटकर चारों ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए। इसके बाद 363 लोगों ने वृक्षों को बचाने के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। 
 
1973 में उत्तर प्रदेश के चमौली में चिपको आंदोलन के प्रणेता यद्द्पि सुंदरलाल बहुगुणा थे। वृक्षों को कटने से बचाने में गौरा देवी और चमौली गाँव की महिलाओं का योगदान उल्लेखनीय रहा। उन्होंने 26 मार्च 1974 को जंगल को अपना मायका बताकर रेणी के वृक्षों को कटने से बचा लिया। 
 
1987 में पर्यावरणविद वंदना शिवा के नेतृत्व में नवधान्या आन्दोलन महिलाओं द्वारा चलाया जा रहा है। इसमे जैविक कृषि के लिए लोगों को प्रेरित करने के साथ किसानों को बीज वितरित किये जाते है तथा जंकफूड व हानिकारक कीटनाशकों व उर्वरकों के दुष्परिणामों के प्रति जागरूक किया जाता है। 
 
नर्मदा बचाओ आंदोलन और पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में मेधा पाटेकर की महती भूमिका है। पर्यावरण संरक्षण व संवर्धन में महिलाओं की भूमिका देखते हुए राष्ट्रीय वन नीति 1988 में उनकी सहभागिता को स्थान दिया गया। 2006 में राजस्थान के राजसमन्द जिले के पिपलन्तरी गाँव मे पुत्री के जन्म पर 111 पौधे लगाने का नियम बनाया और इस योजना की उपलब्धियों को देखते हुए 2008 में इस गाँव को निर्मल गाँव का पुरस्कार भी मिला। 
 
मुंबई की अमला रुइया ने चेरिटेबल ट्रस्ट बनाकर राजस्थान के सर्वाधिक सुख प्रभावित सौ गांवों में जल संचयन की स्थाई व्यवस्था की 200 से अधिक चेक डैम बनाए गए और लगभग दो लाख लोग लाभान्वित हुए।
 
आज पर्यावरण संकट विस्फोटक स्थिति तक पहुँच गया है। ग्लोबल वार्मिंग, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, वायुमंडल में जहरीली गैसों के प्रसार से सैकड़ों तरह की नई-नई बीमारियां जन्म ले रही हैं। ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में महत्वपूर्ण दिवसों पर हमें पौधे अवश्य लगाने चाहिए और समाज मे सभी को जागरूक भी करना चाहिए। घर की खाली जगह पर किचन गार्डन बनाए जा सकते है,जिसमे सुंदर फूलों वाले व आसानी से तैयार हो जाने वाले सब्जी के पौधे भी लगाए जा सकते हैं।
 
प्लास्टिक के बारे में कहा जाता है कि यह नष्ट नही होता है और होता भी है तो 500 से अधिक वर्ष का समय लगता है। यह हर प्रकार से पर्यावरण के लिए घातक है। अतः घर से बाहर जाते समय कपड़े अथवा जूट का बैग लेकर जाना चाहिए।

प्लास्टिक के बर्तनों का उपयोग नहीं करना चाहिए। फ्रीज में प्लास्टिक की बोतलों की जगह स्टील व काँच की बोतलें रखनी चाहिए। भोजन पैक करने के लिए एल्युमीनियम फॉयल का प्रयोग न करके कागज व सूती कपड़े का प्रयोग करना चाहिए। ईंधन वाले वाहनों का सीमित प्रयोग करें। 
 
जल और नदियाँ प्राचीन काल से ही जीवन दायिनी मानी जाती रही हैं परंतु आज ये इतनी प्रदूषित हो गई है कि इनके संकट पर ही अस्तित्व संकट उतपन्न हो गया है। औद्योगिक कल कारखानों, विभिन्न अनुष्ठानों, स्नान दान, अंत्येष्टि व अस्थियों के बहाए जाने से नदियाँ दूषित होने के साथ साथ उथली हो रही है। 
 
आज उपभोक्ता संस्कृति के प्रभावस्वरूप प्राकृतिक साधनों का बेरहमी से दोहन किया जा रहा है। प्राकृतिक संसाधन निरन्तर कम होते जा रहे है और प्रदूषण बढ़ता जा रहा है, जिसके दुष्परिणाम जवालामुखी विस्फोट, जलस्रोतों का सूखना मरुस्थलीकरण दुर्भिक्ष एवं बीमारियों के रूप में सामने आ रहे है।

आज प्रकृति के साथ मनुष्य के संबंधों का विमर्श करना अनिवार्य हो गया है। हम पेड़ पौधों, पशु पक्षियों, जलस्रोतों और ऊर्जा का संरक्षण व संवर्धन करें क्योंकि हमारा भविष्य पर्यावरण ही निश्चित करेगा, इसलिए हम जहाँ हैं, वही उसे संरक्षित करें।
ये भी पढ़ें
पुण्य सलिला नर्मदा की बदहाली के लिए जिम्मेदार कौन...?