क्या हम नब्बे दिन बाद ही पड़ने वाले इस बार के पंद्रह अगस्त पर लाल क़िले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के तिरंगा फहराने और सामने बैठकर उन्हें सुनने वाली जनता के परिदृश्य की कल्पना कर सकते हैं? क्या सोच-विचार कर सकते हैं कि तीन महीनों के बाद हम अपनी उपलब्धियों के किस मुक़ाम पर होंगे और प्रधानमंत्री द्वारा जनता को ऐसा क्या संदेश दिया जाना चाहिए जो कि सर्वथा नया होगा।
क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि 255 दिनों के बाद मनाए जाने वाले ‘गणतंत्र दिवस’ पर राजपथ का नज़ारा इस बार कैसा होगा? क्या हम अपने वैभव का चार महीने पहले ही मनाए गए गए ‘गणतंत्र दिवस’ के उत्सव की तरह ही प्रदर्शन करना चाहेंगे?
हमारे राजनेता जब हमें यह समझते हैं कि महामारी हमारी समूची जीवन शैली को बदल देने वाली है तो जान-बूझकर या अनजाने में इस सच्चाई को दबा जाते हैं कि दुनिया भर में जनता इस समय अपने-अपने नेतृत्वों से नाराज़ है और यह नाराज़गी बढ़ सकती है। जो लोग सत्ताओं में हैं वे इसे अच्छे से जानते हैं। यह स्थिति अधिनायकवादी व्यवस्थाओं में भी प्रकट हो रही है। रूस में हज़ारों की संख्या में संक्रमण के मामले प्रतिदिन उजागर हो रहे हैं और दुनिया भर को वहां की जनता की नाराज़गी के साथ पता भी चल रहे हैं।
अमेरिका में (और यूरोप भी) जहां नागरिकों की हरेक छींक के साथ राष्ट्राध्यक्ष की लोकप्रियता को लेकर ‘ओपीनियन पोल’ करवा लिया जाता है, प्रचारित किया जा रहा है कि ट्रम्प के प्रति जनता के समर्थन में कमी हो रही है। इस तरह के आलेख प्रकाशित हो रहे हैं कि नवम्बर के चुनावों में ट्रम्प अगर हार जाते हैं तो हो सकता है वे हेरा-फेरी का आरोप लगाते हुए चुनाव-नतीजों को स्वीकार करने से ही इनकार कर दें।
हम याद कर सकते हैं कि किस तरह से इंदिरा गांधी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 12 जून 1975 को उनके ख़िलाफ़ दिए फ़ैसले को मानने से इनकार कर दिया था। उसके बाद क्या हुआ सब लोग जानते हैं।
कोरोना संकट को हल्के में लेने और उससे निपटने की तैयारियों में हुए विलम्ब से होने वाली इतनी मौतों और तकलीफ़ों को लेकर दुनिया भर के शासक अलोकप्रिय होते जा रहे हैं। लोगों की तकलीफ़ें जैसे-जैसे बढ़ती जाएंगी, टाली जा सकने वाली मौतों के आंकड़े बढ़ते जाएंगे, लोगों का ग़ुस्सा भी बढ़ता जाएगा। अच्छी बात यह है कि तीन महीनों में ही शासकों को समझ में आ गया है कि आगे के तीस महीने किस तरह की चुनौतियों वाले हो सकते हैं। उनकी बदली हुई मुख-मुद्राओं में इसके चिन्ह भी ढूंढे जा सकते हैं।
नागरिकों की बढ़ती हुई नाराज़गी का दूसरा पक्ष यह है कि वे अपने सोच और व्यवहार में ज़्यादा चिड़चिड़े, कठोर और असहिष्णु बनते जा रहे हैं। राजनीति के प्रति उनका चिर-परिचित उत्साह, अरुचि में बदल रहा है। धार्मिक उन्माद पर रोज़गार, बच्चों का भविष्य और स्वजनों-परिचितों की मौतें हावी हो रही हैं। बातचीत के मुद्दे बदल रहे हैं।
सोशल मीडिया पर जिस भी सच-झूठ का आदान-प्रदान हो रहा है उसमें धार्मिक उन्माद और साम्प्रदायिक वैमनस्य कम दिखाई दे रहा है।इस सबका स्थान उन भूखे-प्यासे मज़दूरों की तकलीफ़ों ने ले लिया है जिन्हें निर्ममता के साथ सड़कों पर कुचला जा रहा है। कड़कती धूप के कारण पता ही नहीं चल पा रहा है कि उनके शरीरों में कभी कोई खून भी था भी कि नहीं।
वे लोग जो धार्मिक रूप से बहुत ही कट्टर माने जाते हैं वे भी बहुत ज़्यादा नाख़ुश नहीं हैं कि धर्म स्थलों पर गए बिना भी उनका काम चल रहा है। निश्चित ही उन तमाम लोगों के लिए जो इसी सब को हथियार बनाकर सत्ता के शिखरों पर अब तक पहुंचते रहे हैं ये क्षण गहरी चिंता के हैं। चिंता यह कि वे अपने उस पुराने संसार को कैसे पुनर्जीवित कर पाएंगे जो वर्तमान के जैसी हज़ारों की संख्या में ज्ञात-अज्ञात लाशों के बोझ से पूरी तरह मुक्त था!
वे सभी नागरिक जो कोरोना संकट के बाद मिलने वाली दुनिया को लेकर चिंतित हैं कम से कम एक बात को लेकर ख़ुशी ज़ाहिर कर सकते हैं कि राजनीति भी बहुत कुछ वर्चुअल या ऑनलाइन हो जाएगी और नेताओं को भी ‘वर्क फ्रॉम होम’ करना पड़ सकता है। जनता उन लोगों के जीवित सम्पर्क में आने से बच जाएगी जिनसे संक्रमण का ख़तरा हो सकता है।
पर ऐसी स्थिति प्रजातंत्र के ‘स्वास्थ्य’ के लिए ख़तरनाक भी मानी जा सकती है। हो सकता है कि दुनिया भर में जो बहस इस समय ‘अर्थव्यवस्था’ और ‘जानें बचाने’ के बीच किसी एक का चुनाव करने को लेकर चलाई जा रही है, उसे सरकारों के द्वारा यूं बदल दिया जाए कि : 'आपको अपनी जान बचाना है या प्रजातंत्र? बताइए!’ जवाब क्या होना चाहिए सबको मालूम है। कहा भी जा सकता है कि : 'दोनों को।’ सब कुछ जनता के साहस पर ही निर्भर करने वाला है।