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चला गया पानी का असली पहरेदार

चला गया पानी का असली पहरेदार - Anupam Mishra, environment, literature, Indian litterateur
- मनीष वैद्य
 
तब देश में पानी और पर्यावरण को लेकर इतनी बातें और आज की तरह का सकारात्मक माहौल नहीं था, और न ही सरकारों की विषय सूची में पानी और पर्यावरण की फ़िक्र थी, उस माहौल में एक व्यक्तित्व उभरा जिसने पूरे देश में न सिर्फ पानी की अलख जगाई बल्कि समाज के सामने सूखी जमीन पर पानी की रजत बूंदों का सैलाब बनाकर भी दिखाया। वे देश में पानी के पहले पहरेदार रहे, जिन्होंने हमें पानी का मोल समझाया।
वह शख्सियत थी प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक अनुपम मिश्र की। अब वे हमारे बीच नहीं रहे लेकिन उनके दिखाए रास्ते पर चलकर पानी और पर्यावरण की लड़ाई अब बहुत आगे बढ़ गई है। अनुपम जी पहले पहरेदार थे पर उन्होंने अब देश में अपनी जीवटता से हजारों-लाखों पहरेदार खड़े कर दिए हैं। इकहरे बदन के अनुपम मिश्र को पानी के असाधारण कामों के लिए कई बड़े पुरस्कार मिले लेकिन उनका सबसे बड़ा पुरस्कार शायद यही था कि उनके अपने जीवनकाल में ही पानी का काम लगातार विस्तारित होता गया और आज इस दिशा में लाखों लोग पूरी शिद्दत से जुटे हैं। अब सरकारों ने भी इस पर ध्यान देना शुरू किया है। सरकारों में इसके लिए मंत्रालय बनाए गए हैं।
 
उत्तराखंड में चिपको आंदोलन शुरू हुआ तो युवा अनुपम ने वहां जंगलों को बचाने के लिए आंदोलन की मुख्यधारा में काम किया। इसी दौरान उनका ध्यान पानी के लिए त्राहि-त्राहि करते राजस्थान के कुछ हिस्सों की ओर गया। उन्होंने सूखाग्रस्त अलवर को अपना पहला लक्ष्य बनाया। तब तक अलवर जिले के कई हिस्से कम बारिश और भूमिगत जलस्तर कम होने की वजह से अकाल की स्थिति में थे।
 
यहाँ लोगों को पीने का पानी भी दूर-दूर से लाना पड़ता था। लोग पानी को लेकर पूरी तरह निराश और भगवान भरोसे होकर इसे अपनी किस्मत मान चुके थे, लेकिन अनुपम भाई को विश्वास था कि इस रेत से भी पानी उपजाया जा सकता है और उन्होंने वह कर दिखाया। शुरुआत में स्थानीय लोग इसे असंभव मानकर उनसे दूर ही रहे पर बाद में तो ऐसा कारवां जुटा कि उन्होंने यहाँ की सूखी अल्वरी नदी को जिंदा करने की भीष्म प्रतिज्ञा कर डाली। उन दिनों यह आग में बाग़ लगा देने जैसी बात थी लेकिन पानी के पहरेदार को प्रकृति पर पूरा भरोसा था। काम शुरू हुआ और नदी में बरसों बाद फिर कल-कल का संगीत गूँज उठा।
 
इसी तरह राजेंद्रसिंह के तरुण भारत संघ के साथ लंबे वक्त तक जुड़े रहकर उन्होंने लापोड़िया को देश के नक्शे पर पानी के महत्वपूर्ण काम के लिए रेखांकित कराया। देश में पानी को लेकर जहाँ भी अच्छे काम की शुरुआत हुई, करीब-करीब स्थानों पर उनकी मौजूदगी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रही। शुरुआती दौर के देशभर में पानी का काम करने वाले ऐसे बहुत कम लोग होंगे, जो कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में अनुपम भाई के काम और उनके नाम से वाकिफ न रहे हों। राजस्थान में उनके काम को देखने जाना जल तीर्थ की तरह हुआ करता था। 
 
बात करीब नब्बे के दशक की है, मेरे शहर देवास में भयावह जल संकट आया। लोग बाल्टी-बाल्टी पानी के लिए मोहताज़ हो गए। शहर और उसके आसपास कहीं पानी नहीं बचा। हालात इतने दुर्गम हो गए कि पीने के लिए पानी भी ट्रेन की वैगनों से आने लगा। उन्हीं दिनों पहली बार मेरे युवा मन पर पानी के लिए भटकते लोगों की आर्तनाद पर ऐसी टँकी कि मैं आज तक उसे भूल नहीं पाता। खुद हमें अपने परिवार के लिए दूर-दूर से साइकलों पर केन टांगकर पानी लाना पड़ रहा था। जिस दिन दो घड़े पानी नहीं मिलता, हम सिहर उठते। मैंने पहली बार वहीँ से पानी और पर्यावरण पर लिखना शुरू किया। कुछ जन संगठनों के साथ पानी के लिए जमीनी काम करना शुरू किया तो अनुपम भाई के काम की अक्सर चर्चा हुआ करती। इसी दौरान उन्हें लगातार पढ़ते भी रहे। उनके संपादन में आने वाली गांधी मार्ग में उनके संपादकीय और लेख पानी की चिंता से हमें भर देते तो इससे निजात की युक्ति भी सुझाते। पत्र-पत्रिकाओं में उनके आलेख पढ़ते और उन पर आपस में लंबी बातें होती। 
 
इसी दौरान बहुत संकोच के साथ देवास में पानी की स्थिति को लेकर मैंने उन्हें एक चिठ्ठी लिखी। मुझे लगा भी कि इतने बड़े कद के व्यक्ति को मुझ जैसे अदने आदमी की चिट्ठी पढ़ने का वक्त भी मिलेगा या नहीं, लेकिन उसके 15 दिनों में ही एक बड़ा सा लिफाफा लेकर डाकिए ने दस्तक दी। प्रेषक में उनका नाम देखकर जितनी ख़ुशी हुई, उसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है। मेरे लिए तो यह आसमान छूने जैसी बात थी। लिफाफे में उनकी तब ताज़ा प्रकाशित किताब 'आज भी खरे हैं तालाब' की एक प्रति थी और साथ में उनके हाथों से लिखा पत्र। पत्र में उन्होंने पानी को लेकर लंबा मजमून लिखा था। उन्होंने मेरे यहाँ-वहां छपे का भी जिक्र किया तो मेरे लिए यह अनुपम भाई का पहला स्नेह था और इस तरह मैंने पहली बार उस विराट व्यक्तित्व की पहली उदारमना झलक देखी थी। बाद में तो कई बार उनका स्नेह और मार्गदर्शन मिलता रहा।
 
वे पानी के परंपरागत जल स्रोतों के रखरखाव पर समाज के उत्तरदायित्व को जरूरी मानते थे। उनके मुताबिक बारिश के पानी को तालाबों और परंपरागत जल स्रोतों में सहेजकर ही हम इसे बचा सकते हैं, इससे बाढ़ से निजात मिलती है और धरती के पानी का खजाना भी बचा रह सकता है। 
 
उन्होंने इसे लेकर शिद्दत से अपने नायाब कामों के जरिए समाज के बीच रखा। अब उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम पानी की कीमत पहचानें  और पानी को सहेजने की परंपरा को पुनर्जीवित कर सकें।
 
परिचय : मनीष वैद्य बीते डेढ़ दशक से पानी और पर्यावरण सहित जन सरोकारों के मुद्दों पर देश के प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में लगातार लिख रहे हैं। विभिन्न जन संगठनों से उनका जमीनी जुुड़ाव है। साहित्य में भी खासी रुचि है और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में भी उनकी कहानियां  लगातार प्रकाशित होती रही हैं । उनका एक कहानी संग्रह भी आ चुका है।
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