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Written By विष्णुदत्त नागर
Last Updated : बुधवार, 1 अक्टूबर 2014 (19:24 IST)

वैश्विक शतरंज की निर्मम चालें

वैश्विक शतरंज की निर्मम चालें -
जिन गरीब देशों का अर्थ परिवर्तन किया जाना है या किया जा रहा है उनमें भारत भी शामिल है, जिसे अमेरिका के वजीर और अन्य प्यादे धर्म उपदेश कह-कहकर उपनिवेशवाद और आर्थिक गुलामी के पालने में उदारवाद की लोरी गा-गाकर सुला रहे हैं।

शतरंज के खेल की प्रत्येक चाल निराली है जिसे समझना मुश्किल है। अमेरिका अपने आर्थिक स्वार्थों के लिए दुनिया के विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को कैसे तबाह करता है, इसका पूरा बखान जान पार्किंस की आत्मकथा 'कन्फेशंस ऑफ एन इकॉनॉमिक हिटमैन' में छपी है।

अंतरराष्ट्रीय रंगमंच पर शतरंज का खेल खेला जा रहा है। इस खेल में अमेरिका बादशाह है, आर्थिक जल्लाद (इकॉनॉमिक हिटमैन) उसका वजीर है। खुफिया एजेंसी सीआईए और एफबीआई हाथी हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष व विश्व बैंक घोड़े हैं। विश्व व्यापार संगठन और 'नाटो' संगठन ऊँट हैं तथा सैनिक तानाशाहों के एवं समूह-8 के शेष सात देश प्यादे हैं।

दूसरी ओर समूह-5 समेत 125 विकासशील और सात गुट निरपेक्ष आंदोलन के प्रतिनिधि राष्ट्र हैं। जिन गरीब देशों का अर्थ परिवर्तन किया जाना है या किया जा रहा है उनमें भारत भी शामिल है, जिसे अमेरिका के वजीर और अन्य प्यादे धर्म उपदेश कह-कहकर उपनिवेशवाद और आर्थिक गुलामी के पालने में उदारवाद की लोरी गा-गाकर सुला रहे हैं।

शतरंज के खेल की प्रत्येक चाल निराली है जिसे समझना मुश्किल है। अमेरिका अपने आर्थिक स्वार्थों के लिए दुनिया के विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को कैसे तबाह करता है, इसका पूरा बखान जान पार्किंस की आत्मकथा 'कन्फेशंस ऑफ एन इकॉनॉमिक हिटमैन' में छपा है।

यद्यपि इकॉनॉमिक हिटमैन नामक कोई पैदा नहीं होता, लेकिन उसका काम दूसरे देशों की अर्थव्यवस्था को नष्ट करने वाला होता है। पार्किंस ने अपनी पुस्तक में जिन चार निर्मम तौर-तरीकों का उल्लेख किया है, वे इस प्रकार हैं।

पहला, दुनियाभर के नेताओं को अमेरिका के वाणिज्यिक हित को बढ़ावा देने वाले विकासशील बाजार का हिस्सा बनाना है। पार्किंस का काम विकसित देशों को राजनीतिक और आर्थिक मामलों के प्रमुखों को विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी संस्थाओं से मोटे ऋण लेने के लिए राजी करवाना था।

उसका प्रमुख उद्देश्य उन देशों पर इतना ज्यादा कर्ज लाद देना था कि वे उसे चुका न सकें और दूसरी ओर उनकी वफादारी भी सुनिश्चित की जा सके। आर्थिक सहायता के रूप में उन्हें अमेरिकी इंजीनियरिंग और निर्माण कंपनियों के मालिकों और धनाढ्यों के माध्यम से औद्योगिक पार्क, बिजली संयंत्र आदि का निर्माण करने के लिए सीख दी जाती थी।

दूसरा, विश्व के एक धुव्रीय साम्राज्य बनाने की मुहिम में कंपनियाँ, बैंक और अन्य संस्थाएँ स्कूलों, विश्वविद्यालयों, व्यवसायियों और मीडिया को अपने कुत्सित विचार का समर्थन ही नहीं करवाना चाहते थे, बल्कि अपने तंत्र को मजबूत करने और उसका विस्तार करने का काम भी करवाते थे। उनका मुख्य काम था कि विकासशील देशों में उपभोक्ता संस्कृति को जमकर बढ़ावा दिया जाए।

अतः शतरंज की एक रणनीति यह थी कि यदि विकासशील देश इस प्रकार का धर्म परिवर्तन करने की आनाकानी करते हैं तो खतरनाक किस्म के 'हिटमैन' का स्थान जेकाल (सियार) ले लेते थे और जब वे भी काम नहीं कर पाए तो सेना को काम सौंप दिया जाता था। यह खेल उन देशों के साथ नहीं खेला जाता था, जहाँ अमेरिकी समर्थन प्राप्त सैनिक तानाशाह सत्तारूढ़ थे।

तीसरा, इकॉनॉमिक हिटमैन का कार्य यह भी था कि विश्व बैंक और दूसरे विदेशी सहायता संगठनों से बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तिजोरियों में पैसा डलवाते थे, जो अपने पिट्ठू राष्ट्रों के अधिकांश संसाधनों पर कब्जा करने को अंजाम देते थे।

फर्जी वित्तीय रिपोर्ट, रिश्वत, जबरन उगाई, सेक्स और हत्या को भी इन घृणित कार्यों को पूरा करने में लिया जाता था। पार्किंस के अनुसार इकॉनॉमिक हिटमैन की शुरुआत गत शताब्दी के मध्य में हुई जब ईरान ने उनके लोकप्रिय नेता मौसाद्दिक को राष्ट्रपति चुना।

मौसाद्दिक ने जब तेल कंपनियों को अपनी कमाई का एक हिस्सा ईरानी जनता को देने को कहा, तब सीआईए के एजेंट कर्मिट रूजवेल्ट, जो राष्ट्रपति थ्योडोर रुजवेल्ट के पोते थे, को लाखों डॉलर के साथ ईरान भेजा गया जिसका जमकर उपयोग विरोध, प्रदर्शन, दंगे-फसाद करवाने में हुआ।

नतीजा यह हुआ कि मौसाद्दिक को नजरबंद कर लिया गया और सत्ता पूरी तरह अमेरिकी ताकतों के पिट्ठू शाह के हाथों में पहुँच गई। पार्किंस के अनुसार इक्वाडोर के राष्ट्रपति जेम रोल्डोस और पनामा के राष्ट्रपति उमर टारिजोस दुर्घटना के शिकार नहीं थे बल्कि उनकी हत्या की गई, क्योंकि उन्होंने कॉर्पोरेट और उन बैंकिंग प्रमुखों का विरोध किया था, जो विश्व साम्राज्य स्थापित करना चाहते थे।
चौथा, सत्तर के दशक में जब सऊदी अरब ने पश्चिमी देशों को तेल देने से इंकार कर दिया और अमेरिका में मंदी आ गई तो हिटमैन काम पर लगाया गया। हिटमैन को घृणित कार्य पर लगाया जिन्होंने भ्रष्ट सऊदी अरब परिवार के लोगों को प्रलोभन दिए और उनके पेट्रो डॉलर को अमेरिका में जमा करने के लिए विवश कर दिया।

दरअसल, बात यह है कि उन्हीं के पैसों से अमेरिकी कंपनियों ने सऊदी अरब के बुनियादी ढाँचे को आधुनिक बना दिया। सऊदी अरब के साथ किए गए समझौते के अनुसार सऊदी अरब तेल की कीमतों को अमेरिका के कहने पर बढ़ाने और घटाने को राजी हुआ। शतरंज के इस खेल में व्यापारिक व्यवहार को भी नई अधिनायकवादी परिभाषा दी गई।

जहाँ एक ओर अमेरिकी सुपर-301 कानून के अंतर्गत अमेरिका भारत या किसी देश के खिलाफ बौद्घिक संपदा अधिकार को समुचित रूप से संरक्षण प्रदान न करने के लिए प्रतिबंधात्मक कार्रवाई करने से नहीं हिचकिचाता है, वहीं दूसरी ओर भारतीय संविधान का अनुच्छेद 301 संपूर्ण भारतीय क्षेत्र में मुक्त व्यापार, वाणिज्य एवं आवागमन के उपबंध स्थापित करता है।

ज्ञातव्य है कि गत दिनों अमेरिकी सुपर कानून-301 के तहत भारत को 'कार्रवाई की प्राथमिकता' की निगरानी सूची में शामिल किया जाता रहा है। इस प्राथमिकता का उल्टा अर्थ होता है। भारत के साथ अर्जेंटीना, इक्वाडोर, मिस्र, ग्रीस, इंडोनेशिया, पैराग्वे, रूस और तुर्की को भी यह सजा मिली है।

इस कार्रवाई के तहत अमेरिका भारतीय निर्यातों पर प्रतिबंध ही नहीं लगाएगा, बल्कि तीस दिनों के अंदर यह भी तय करेगा कि भारत के खिलाफ कैसा व्यापारिक व्यवहार हो। अमेरिका विकासशील देशों पर जोर डाल रहा है कि अपने सीमा शुल्क घटाने के साथ उसके औद्योगिक और कृषिगत वस्तुओं के लिए बाजार खोल दे।

दरअसल, शतरंज का यह खेल विश्वसनीयता के घोर संकट से ग्रस्त है, जिससे व्यापारिक रूप से अमीर देशों को आत्महित को बढ़ावा देने वाली रणनीति के रूप में ही देखा जाता है। दुर्भाग्य से विश्व प्रशासन प्रणाली के तौर-तरीकों और उसके नियमों के निर्धारण पर अमेरिका समेत समूह-8 का ही प्रभाव है।

अतः इन खेलों के माध्यम से विषम विश्व व्यवस्था बनाए रखने तथा इसके अंतर्गत शक्ति का असमान वितरण करने की नीति के माध्यम से पूरा प्रयास किया जा रहा है कि विकासशील देश नवउदारवादी नीति बनाकर पश्चिमी राष्ट्रों के दुमछल्ला बने रहें।

इस परिवेश में अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडालिजा राइस की यह टिप्पणी कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन अपनी प्रासंगिकता खो चुका है, हास्यास्पद ही लगता है, विशेषकर इसलिए कि विकासशील देश उदारवादी उपनिवेशवाद से मुक्ति पाने के लिए प्रयासरत हैं।