दुनिया के औद्योगिक देश जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के अभिशाप से मुक्त होना चाहते हैं, लेकिन अपने वैभव से समझौता करके नहीं? उनके लिए ऐसे विकल्प खोजे गए हैं ताकि उनकी चिमनियाँ धुआँ भी उगलती रहें और वे इनके दुष्परिणामों को कम करने के उपायों पर भी निवेश कर क्रेडिट भी प्राप्त कर सकें।
वे प्रकृति के क्रिया- कलापों में बढ़ती दखलंदाजी से बिगड़ रही उनकी छवि को ऐसे उपायों से सुधारना चाहते हैं। उनके लिए खोजा गया ऐसा ही एक फंडा है कार्बन मार्केट।
दुनिया में कार्बन का मार्केट तेजी से बढ़ रहा है। दो वर्ष पूर्व जब इसकी शुरुआत हुई थी तब 10 अरब अमेरिकी डॉलर का व्यापार हुआ था, जो अब बढ़कर 30 अरब डॉलर तक पहुँच गया है। इस नए तरह के व्यापार में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करने वाले विकसित देशों के उद्योग अपनी निर्धारित सीमा से अतिरिक्त होने वाले उत्सर्जन के बदले में अन्य देशों से कार्बन क्रेडिट की खरीदी कर सुरक्षित हो जाते हैं तथा इसके एवज में उन्हें विकासशील देशों में उत्सर्जन कम करने वाले उपायों को बढ़ावा देने के लिए राशि खर्च करना होती है अर्थात प्रौद्योगिकी का स्थानांतरण भी वे कर सकते हैं।
औद्योगिक देशों को इसका दोहरा लाभ यह मिलता है कि एक तो वे उत्सर्जन को जारी रख सकते हैं और दूसरा उन्हें इसे घटाने के उपायों पर जो लागत अपने देश में आती है उसकी तुलना में विकासशील देशों व अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के दौर से गुजर रहे देशों में मात्र एक चौथाई खर्च से उनका काम चल जाता है। बदले में ऐसे विकासशील देशों को पूँजी मिल जाती है तथा वे नए संसाधन जुटा लेते हैं।
पर्यावरण सुधार की दृष्टि से यह व्यापार कितना सही है यह तो समय ही बताएगा, लेकिन फिलहाल प्रबंधन विशेषज्ञ मानते हैं कि ग्रीन हाउस गैसों को वातावरण से घटाने और जलवायु परिवर्तन की जोखिम से बचने की दिशा में ये कदम सही हैं।
विश्व बैंक ने कार्बन मार्केट की जो ताजा रिपोर्ट जर्मनी के कार्बन एक्सपो-2007 के दौरान जारी की है उसके अनुसार वैश्विक स्तर पर कार्बन का व्यापार वर्ष 2005 की तुलना में तीन गुना बढ़ गया है। रिपोर्ट कहती है कि कार्बन बाजार में बिक्री व खरीदी पर यूरोपीय संगठन का वर्चस्व बना हुआ है। जिसने कार्बन क्रेडिट के लेन-देन के धंधे में 25 अरब डॉलर की स्वीकृतियाँ जारी की हैं। विकासशील देशों को परियोजना आधारित मार्केट से 5 अरब डॉलर मिले हैं, जो गत वर्ष के मुकाबले दो गुना ज्यादा हैं।
क्योटो प्रोटोकाल के बाद से विकासशील देशों में नए संसाधनों का विकास हुआ है। खास करके इन देशों में प्रत्यक्ष कार्बन क्रेडिट क्रय करने के क्षेत्र में 16 अरब यूएस डॉलर का निवेश क्लीन एनर्जी को बढ़ावा देने वाली परियोजनाओं पर हुआ है।
यूरोपीय संगठन कार्बन के इस व्यापार में सोची-समझी रणनीति के तहत कार्य कर रहा है। उसने कार्बन क्रेडिट की ऊँची कीमत देने में भी कसर नहीं छोड़ी है और इसीलिए जापान इसमें पिछड़ गया है। यूरोपीयन यूनियन के इस व्यापार में अग्रणी होने का यही कारण है। उनकी ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन व्यापार की योजना बहुराष्ट्रीय रूप ले चुकी है।
इसके तहत संगठन के सभी 27 सदस्य देशों को पहले अपनी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने प्रस्ताव निर्धारित मापदंडों के अनुसार यूरोपीय यूनियन कमीशन को प्रस्तुत करना होता है। इन प्रस्तावों का परीक्षण क्योटो प्रोटोकाल के मापदंडों के अनुसार किया जाता है। क्योटो प्रोटोकाल ने औद्योगिक देशों के लिए कई व्यवस्थाएँ दी हैं जैसे क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज्म (सीडीएम), जॉइंट इम्प्लीमेंटेशन (जेआय) तथा अंतरराष्ट्रीय उत्सर्जन व्यापार। सीडीएम के तहत औद्योगिक देश ऐसी परियोजनाओं पर निवेश करते हैं, जो विकासशील देशों में उत्सर्जन को कम करने के लिए बनाई गई हों।
यह विकल्प उन्हें लागत घटाने लिए दिया गया है। जेआय के तहत कोई भी औद्योगिक देश अन्य औद्योगिक देश में भी ऐसी परियोजना पर निवेश कर सकता है यदि उसे लागत कम आती हो, तीसरा अंतरराष्ट्रीय उत्सर्जन व्यापार में भाग लेकर औद्योगिक देश सीधे कार्बन क्रेडिट की खरीदी व बिक्री कर सकते हैं।
इसके बाद वे किसी भी उत्सर्जन कम करने वाली परियोजना में निवेश कर सकते हैं। उदाहरण के तौर पर योरप में एक फैक्टरी वर्ष में 1 लाख टन ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन करती है जबकि उसे निर्धारित मापदंड के अनुसार पात्रता 80 हजार टन की ही है तो ऐसी स्थिति में उसके पास दो विकल्प रहते हैं या तो वह उत्सर्जन को 20 हजार टन घटा दे या फिर कहीं से उसके समतुल्य कार्बन क्रेडिट प्राप्त कर ले। उत्सर्जन मान्य सीमा से अधिक बढ़ने पर उसे पुनः क्रेडिट प्राप्त करना होती है।