चंद्रमा के जन्म के सिद्धांत
चाँद पृथ्वी का भाई है, या बेटा है या मेहमान ? अगर वह भाई है तो किस पिण्ड से इन दोनों का जन्म हुआ। अगर बेटा है तो वह कौन-सी प्रसव पीड़ा थी, जिसके कारण चाँद हमसे अलग हुआ? अगर मेहमान है तो कौन उसे हमारे आँगन में लाया और कैसे वह हमारी परिक्रमा करते हुए टिक गया?वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि चाँद की मिट्टी से इन सब प्रश्नों का जवाब मिलेगा। उनका ख्याल है कि हवा पानी की चोट ने पृथ्वी की जन्मकुंडली मिटा दी है, लेकिन चाँद पर वह अक्षत हैं। चाँद पर सिर्फ एक झड़ी लगती है। वह उल्का पिण्डों की झड़ी है और सूर्य की रेडियोधर्मी किरणों की झड़ी है। इस बारिश से वहाँ कोई बचाव नहीं है क्योंकि वहाँ वातावरण नहीं है।सूरज, चाँद और पृथ्वी का जन्म कैसे हुआ, यह निश्चित रूप से कोई नहीं जानता। सारे सिद्धांत अभी मात्र अनुमान हैं। सर जार्ज डार्विन ने पिछली शताब्दी में यह कहकर तहलका मचा दिया कि प्रशांत महासागर की जमीन किसी महाप्रलय के कारण उखड़ पड़ी और उड़कर चाँद बन गई। पृथ्वी के वक्ष पर एक विशाल गड्ढा हो गया, जो अब महासागर बन गया है। इस प्रक्रिया की जरा कल्पना कीजिए। पृथ्वी की सतह लाल सुर्ख उबलते लावा से तप रही है। इस लावे में ज्वार-भाटे आते हैं, क्योंकि सूर्य का आकर्षण उसे खींचता है। पृथ्वी इस समय बहुत तेजी से घूम रही है - शायद तीन घंटे में एक बार। इन दोनों कारणों से पृथ्वी कुबड़ी हो जाती है। भूमध्य रेखा के आसपास एक तश्तरी भी उसके चारों ओर निकल रही है। सूर्य उसे बाहर खींचता है और पृथ्वी अंदर। इस रस्साकशी में सूर्य जीत जाता है। पृथ्वी की कूबड़ एक विराट खींचतान के बाद अलग हो जाती है और चंद्रमा जन्म लेकर पृथ्वी के चक्कर लगाने लगता है। अपने ही गुरुत्व से वह गोल बन जाता है। लेकिन पृथ्वी के कई टुकड़े बाद में भी जाकर छपाछप टकराते हैं और छोटे-बड़े लाखों गड्ढे बना देते हैं। इस सारे ऑपरेशन का दाग पृथ्वी पर प्रांत के रूप में शेष रह जाता है।चार्ल्स डार्विन के साहबजादे की यह थीसिस आजकल ज्यादा लोग नहीं मानते। वे कहते हैं कि प्रशांत महासागर अगर इतने जोर से उखड़ा तो वह पृथ्वी का उपग्रह ही क्यों न बना ? वह तो इतनी रफ्तार से उड़ा होगा कि उसे सूर्य का चक्कर लगाने वाला ग्रह बनना चाहिए था। दूसरे लोग कहते हैं कि लावा इतना गोंद जैसा होगा कि इतना ऊँचा ज्वार उसमें आ ही नहीं सकता।
लेकिन डार्विन के आधुनिक शिष्य है, डॉ. डोनाल्ड वाइज। वे कहते हैं कि एक बार पृथ्वी इतनी ज्यादा तेजी से घूमती थी कि उसके मध्य में तश्तरी बनने लगी, जो अंततः चाँद बन गई।लेकिन पृथ्वी को क्या खुजली थी कि वह तेज घूमती थी ? इसका जवाब डॉ. वाइज ने यह दिया कि जब पृथ्वी पिघली हुई थी, तब गुरुत्व के कारण भारी तत्व नीचे केंद्र की तरफ जाने लगे। इससे उसके चक्कर बढ़ गए। यह कैसे हुआ, इसका जवाब उनके गणित में है।लेकिन इस अनुमान के खिलाफ एतराज यह उठाया गया कि अगर पृथ्वी बहुत तेजी से घूमती थी तो उसे धीमा किसने कर दिया? क्या कोई बाहरी पिण्ड पृथ्वी के नजदीक आया, जिसके खिंचाव के कारण चाँद अलग हो गया।दूसरा अनुमान है कि सारे नक्षत्र और उनके उपग्रह साथ-साथ ही बने हैं। कल्पना कीजिए कि आकाश में केवल अकेला सूर्य है। वह जाज्वल्यमान है। एकाएक कहीं से एक तारा आता है, जो सूर्य से टकराता लगता है। उसके खिंचाव के कारण सूर्य के जलते हुए गैस सिगार की तरह या लम्बी घड़ी की तरह करोड़ों मील तक खिंच जाते हैं। तारा गुजर जाता है, और एक जलती मशाल आकाश में छो़ड़ जाता है। यह सिगार ठंडी होती है। पहले गैस के भँवर बनते हैं। फिर पिघले हुए गेंद के गोले बनते हैं। फिर ठोस नक्षत्र सामने आते हैं। वे सब सूर्य के आसपास घूम रहे हैं। इसी सिगार की राख का एक कण चाँद है। वह ठंडा हो जाता है और क्योंकि पृथ्वी के पास है, अतः इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगता है। इस अनुमान को फ्रेंच वैज्ञानिक बुफो ने 1749 में जन्म दिया। आज के युग में सर जेम्स जीन्स जैसे दिग्गज उसे स्वीकर करते हैं। इस अनुमान के खिलाफ कहा जाता है कि सूर्य अगर फैलकर सिगार बन जाए तो करोड़ों हाइड्रोजन बमों की तरह विस्फोट होंगे और सारी गैस फटकर महाशून्य में विलीन हो जाएगी। सूर्य में आज भी हाइड्रोजन बम फट रहे हैं, लेकिन वह अपने पुंजीभूत दबावों के कारण कायम है और विलुप्त नहीं हो रहा है। तीसरा अनुमान यह है कि नक्षत्र गर्म गैस से नहीं, ठंडी धूल से और ठंडे गैसे से जन्मे हैं। मान लीजिए, एक ठंडा वायवी पिण्ड आकाश में डोल रहा है।
उसके धूल-कण परस्पर आकर्षण के कारण निकट आते हैं और क्रमशः ठोस होते जाते हैं। जितने ब़ड़े वे बनते हैं, उतना ही उनका गुरुत्वाकर्षण बढ़ता जाता है। इस प्रकार भँवरचक्र की तरह सारा पिण्ड अपने मध्य की ओर खिंचता है। इस खिंचाव के कारण मध्य बिन्दु जल उठता है। कोयले की तरह नहीं, उदजन बम की तरह। वह सूर्य बन जाता है।लेकिन सारे तत्व इस सौर भट्टी में नहीं जाते। कुछ पुंज बाहर भी बनने लगते हैं। नक्षत्र बन जाते हैं और सूर्य का चक्कर लगाते हैं। ऐसा ही एक ठंडा गोला चाँद है। पृथ्वी भी ठंडी थी, लेकिन वजन के कारण उसका अंतरंग पिघला और गर्म बन गया है।यह अनुमान लाटलास नामक फ्रेंच वैज्ञानिक ने 1796 में पेश किया था। उसका ख्याल था कि शनि के घेरों की तरह पहले सभी पिण्ड थे, बाद में वे गोले बने। लेकिन इस सिद्धांत से यह स्पष्ट होता है कि सूर्य में पूरे सौरमंडल का 98 प्रतिशत भार होते हुए भी नक्षत्रों में घुमाव सूर्य से ज्यादा क्यों है?वाइज़सैकर नामक वैज्ञानिक ने 1943 में सुझाया कि धूल के महासागर में बड़े-बड़े भँवर थे, जिनके बीच में छोटी-छोटी भँवरियाँ रोलर बेयरिंग की तरह तेजी से घूमती थीं। बड़ा पहिया स्वाभाविक ही छोटे पहिये से धीमा घूमता है।डॉ. जेरार्ड कुइपर ने भी 1949 में कहा कि सौरमंडल का जन्म एक धूल के बादल से हुआ। उनका चित्र यह है कि बादल अपने केंद्रबिंदु (सूर्य) की ओर संपुंजित होने लगा था, लेकिन वह जलना शुरू नहीं हुआ था। उस समय कई भँवर-चक्र धूल और गैस को विलोड़ित कर रहे थे। ये क्रमशः थोड़े अलग हुए और आदि नक्षत्र बन गए। पृथ्वी नामक आदि मेघ दो भागों में बँट गया। आदिचन्द्र और एक आदि पृथ्वी। फिर सूर्य की विराट अणुभट्टी जलना शुरू हुई और सूर्य की विकिरण ने गैस धूल की आँधी को शून्य में उड़ा दया। जो शेष सामग्री बची, उसने आज के नक्षत्रों का रूप ले लिया। एक बात, जिसका जवाब वैज्ञानिकों को देना है, वह है कि हाइड्रोजन जैसे हल्के गैस वाले नक्षत्र सूर्य से दूर हैं, जबकि ठोस और भारी नक्षत्र सूर्य के पास हैं। (पृथ्वी सूर्य के पास का नक्षत्र है।) यह कैसे संभव हुआ ? अगर बादल एक था तो भारी चीजें पास कैसे आ गईं ?प्रोफेसर फ्रेड हॉइल ने इसका जवाब यह दिया है कि सूर्य के चुम्बक क्षेत्र ने गैसों को दूर भगा दिया, जिससे बड़े-बड़े नक्षत्र बन गए, लेकिन चट्टान और धातु वाले छोटे नक्षत्र सूर्य के करीब जमा हो गए।चाँद के धरातल का सर्वेक्षण अब तक अमेरिका के रेंजर और सर्वेयर यानों से और रूस के लूना वाहनों में किया गया है, लेकिन मिट्टी का फोटो अलग बात है और मिट्टी को छूना और उसे पृथ्वी पर लाना अलग बात।