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Written By ND

काम का अर्थ यौन शिक्षा नहीं

काम शास्त्र
-डॉ. गोविंद बल्लभ जोशी
आज कामशास्त्र का नाम लेते ही अनेक लोगों की भृकुटियाँ तन जाती हैं, तुरंत सारा समाज पक्ष और विपक्ष में बँट जाता है। काम के पक्ष में तथा उसका विरोध करने वाले दोनों ही प्रायः पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर वितंड़ा खड़ा कर मूल चिंतन से भटके प्रतीत होते हैं।

विगत कुछ वर्षों से काम को यौन शिक्षा के रूप में स्कूली पाठ्यक्रम में जोड़ने का विवाद देशभर में
  'मेघदूत' में कालिदास कहते हैं कि कार्मात व्यक्ति कार्य अकार्य, उड़चेतम में कोई भेद नहीं कर पाता। वह तो केवल कातरभाव से अपने मन की बात उनसे करने लगता है, इसीलिए बादलों के माध्यम से अपनी प्रियतमा के लिए कामतप्त यज्ञ अपना संदेश देने लगता है      
छाया रहा, इसका कारण यह रहा कि अबोध बालकों के मन-मस्तिष्क में यौन ज्ञान भरने का प्रयास किया गया। जबकि उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में उनके लिए कामपरक बिंदुओं का ज्ञान प्राचीन भारतीय परिप्रेक्ष्य में अधिक लाभदायक हो सकता है। साहित्य के विद्यार्थी रस-अलंकारों के माध्यम से नायक-नायिका के रति रहस्यों का अध्ययन करते हैं। कालिदास, माघ, भारती, कविराज जगन्नाथ, मम्मटाचार्य, जायसी, देव, घनानंद, बिहारी इत्यादि कवियों की कृतियों से काम शिक्षा की गहराइयों से वे परिचित होते हैं।

इस प्रकार की पाठ्‍य व्यवस्था में कभी विवाद की स्थिति नहीं आई। वस्तुतः काम को केवल यौन शिक्षा नहीं कहा जा सकता है। काम मूलतः एक पुरुषार्थ है, रति या यौन व्यवहार उसका एक अत्यंत कमनीय एवं रहस्यपूर्ण पहलू है, जिसमें जगत उत्पत्ति की व्यवस्था आदि के सभी आयाम निहित हैं। 'काम' कमनीय अर्थात सुंदरतम मानवीय अंतः प्रीति का स्रोत होता है। चाहे यह ईश्वरीय संकल्प शक्ति के रूप में चराचर सृष्टि का जनक हो अथवा जीव जगत की मैथुनी संरचना का दृश्यमान चहचहाता दिव्य संसार हो।

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों में 'काम' ही धर्म, अर्थ और मोक्ष का आधार हो सकता है। विश्व की सबसे प्राचीन कृति 'ऋग्वेद' के अनुसार सर्वप्रथम काम ही प्रकट होता है :

'कामस्रदग्रेसमवर्तत'
इस प्रकार प्राचीनकाल से ही भारत वर्ष में 'काम' की व्यापकता पर गंभीरतापूर्वक चिंतन होता आ रहा है, इस पर सामान्य जन नहीं, बल्कि मंत्रदृष्टा ऋषियों तथा तत्व या ज्ञानियों ने मंथनपूर्वक अपना पक्ष रखा है, इसकी व्यापकता, आवश्यकता तथा मर्यादा सभी पक्षों को बहुत सुंदर रीति से समाज के समक्ष रखा गया है।

नाट्य शास्त्र के प्रणेता भरत मुनि कहते हैं- संसार में जो कुछ भी शुभ, पवित्र और उज्ज्वल दर्शनीय है वह श्रृंगार रस से प्रेरित है अर्थात काम की कमनीयता है। काम एक व्यापक अर्थ को लिए हुए है। यह शक्ति का स्रोत है तथा काम भाव या कामुकता यौन चेतना के सीमित अर्थ तक सीमित है। युवा अवस्था में प्रवेश करते ही युवक और युवतियाँ परस्पर, प्रीति की रीति की ओर बढ़ते है, इससे पहले जब वे किसी राजकुमार और राजकुमारी की कहानियों को पढ़ते हैं तो उनकी प्रेम कहानी को स्वयं पर गढ़ने लगते हैं। लेकिन अब उनकी वेशभूषा, रूप श्रृंगार, मुकुट आदि से दृष्टि हटाकर स्वयं अपने गठे हुए शरीर, उभरे हुए वक्षस्थल, लचीली कमर एवं उन्मत्त नितम्ब प्रदेशों को देखकर अद्भुत यौन चेतना का संचार होने लगता है।

महाकवि कालिदास ऋतुसंहार में उल्लेख करते हैं कि कामदेव से अत्यंत व्याकुल नायक-नायिका सर्दियों की लंबी रातों में चिरकाल पर्यन्त रति विलास करने के बाद प्रातःकाल जब देह से थक जाने पर उठते हैं तो धीमी चाल से चलते हैं :

प्रकामकामैर्यु वयुवभिः सनिर्दयं, निशासु दीर्घार्स्वाभिरामिताश्चिरम्‌ ।
भ्रमन्ति मन्दं श्रमरवेदितोरसः क्षपावसाने नवयौवनाः स्त्रिय ॥

'मेघदूत' में कालिदास कहते हैं कि कार्मात व्यक्ति कार्य अकार्य, उड़चेतम में कोई भेद नहीं कर पाता। वह तो केवल कातरभाव से अपने मन की बात उनसे करने लगता है, इसीलिए बादलों के माध्यम से अपनी प्रियतमा के लिए कामतप्त यज्ञ अपना संदेश देने लगता है।

कामशास्त्र के आचार्य महर्षि वात्सायन ने रति संबंधी शिक्षा का अपने ग्रंथ 'कामसूत्र' में दिग्दर्शन किया है। उन्होंने रति से पूर्व जहाँ कामोद्दीपन की समस्त विधाओं, संदेश भेजना, नयन संकेत, मंद मुस्कान, चुम्बन, आलिंगन, रचर्भ आदि का चित्रण किया है, वहीं रति संयोगकाल की विविध विधियों, आसन एवं मुद्राओं का सुंदर उल्लेख किया है। सूरत के बाद प्रायः सुख के बारे में वात्सायन करते हैं- जैसे सुख की अनुभूति पुरुष को प्राप्त होती है, उससे अधिक स्त्री को प्राप्त होती है :

सुरतान्ते सुखं पुंसां स्त्रीणांतु सततं सुखम्‌।
धातुक्षयनिमित्ता च विरामेच्छोपजायते ॥

इतना ही नहीं ज्योतिष शास्त्र के अनुसार किस-किस योनि के स्त्री-पुरुष परस्पर रमण करने पर कामसुख को प्राप्त करते हैं, इस बारे में वात्सायन 'कामसूत्र' में उल्लेख करते है : यदि नायिका हस्तिनी है तो नायक अश्व योनि का होना चाहिए। इसी प्रकार शशक योनि तथा हरिण योनि के स्त्री-पुरुष को सम रति का सुख मिलेगा।

'काव्य शास्त्र' के विद्वान पण्डितराज जगन्नाथ तथा मम्मटाचार्य आदि ने नायिका भेद में इन
  स्मृति ग्रंथ, धर्मशास्त्र एवं पुराणों में काम तत्व पर विशेष विवेचना की गई है। कौल दर्शन, काम सूत्र आदि में रतिक्रिया के सूक्ष्म भेद एवं गुण-दोषों का समुचित विवेचन किया गया है      
लक्षणों को स्पष्ट किया है। 'ज्योतिष शास्त्र' के ज्ञाताओं ने जातक का जन्मांक पत्रिका निर्माण में लग्न राशि के आधार पर योनियों का निर्धारण किया हुआ है, अतः भारत में समस्त अर्थात स्त्री-पुरुष को काम का सुख समान रूप से प्राप्त हो, इसके लिए काम विज्ञान को प्राचीनकाल में ही खोज लिया था।

आधुनिक युग में भी चिंतकों, कवियों ने चाहे वे संस्कृत साहित्य के अथवा हिंदी आदि के उन्होंने इस विषय में कहीं न कहीं अपना मत व्यक्त किया है। हिंदी के राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर उर्वशी काव्य में लिखते हैं :

वक्षस्थल के कुसुम कुंज, सुरभित विश्राम भवन ये जहाँ मृत्यु के पार्थिक ठहरकर शांति दूर करते हैं।

साहित्य शास्त्र ही नहीं, दर्शन, उपनिषद, तंत्र शास्त्र तथा योग शास्त्र में भी काम की साधना तथा उसके उचित क्रियान्वयन पर बहुत कहा गया है। 'योग शास्त्र' के अनुसार प्रणायाम द्वारा वीर्य की ऊर्ध्व गति करके उसे स्तम्भित करना तथा रतिकाल में स्त्री को पूर्ण काम सुख देने की विधियाँ दी गई हैं। योगीजन तत्व को ऊर्ध्वगामी बनाकर आंतरिक आत्मानंद की स्थिति में पहुँचता है तो सदगृहस्थ योगी तत्व स्तंभन कर स्त्री को कामसुख प्राप्त करने के बाद स्वयं उस तत्व से उत्तम संतति के जन्मदाता बनकर राष्ट्र निर्माता बनते हैं।

स्मृति ग्रंथ, धर्मशास्त्र एवं पुराणों में कामतत्व पर विशेष विवेचना की गई है। कौल दर्शन, कामसूत्र आदि में रतिक्रिया के सूक्ष्म भेद एवं गुण- दोषों का समुचित विवेचन किया गया है।

खजुराहो, कोणार्क एवं प्राचीन मंदिरों की दीवारों में विविध प्रकार की काम क्रीड़ाओं के चित्र अंकित हैं, जिनसे काम की गहनता का भाव ही प्रकट होता है। काम की गहनता पर अभिनव चिंतन प्रकट करते हुए इसके मनोवैज्ञानिक सकारात्मक एवं कलात्मक पक्ष पर विस्तृत विवेचन की वर्तमान समय में नितान्त आवश्यकता है।