यद्यपि सच, सच होता है, साँच को आँच नहीं होती और झूठ के पैर नहीं होते, लेकिन नीति निर्धारण और क्रियान्वयन के बीच की खाई से ऐसे सच उभरकर आते हैं जिन्हें न तो सत्य कहा जा सकता है और न अर्धसत्य ही। ऐसे सच को गुलाम सच की संज्ञा दी जा सकती है।
आजाद सच पर कोई बंधन और प्रतिबंध नहीं होता, जबकि गुलाम सच को कोई आजादी नहीं होती, क्योंकि झूठ से इसके हाथ बँधे रहते हैं। ऐसी मजबूरी कि वह किससे कहे कि उसके पैर से काँटे कोई निकाल दे। गुलाम सच सीमित समय के लिए सच होता है। लेकिन आचरण और आवरण में भिन्नता होने के कारण साधन को ही साध्य समझ लेता है।
सरकारी विज्ञप्तियों, घोषणाओं, वादों, स्पष्टीकरणों में ऐसे अनेक गुलाम सच उपजे जिनसे वह दिखाई नहीं देता, जो अक्षरों और शब्दों के पीछे से झाँकता है। गुलाम सच का अपना कोई वजूद नहीं होता। वह मालिक द्वारा प्रायोजित भाषा ही बोलता है। सच अंतर्मुखी होता है और गुलाम सच बहिर्मुखी।
एक जमाना था जब किसी व्यक्ति से उसकी आमदनी या वेतन पूछा जाता था तो नम्रतापूर्वक उत्तर मिलता था कि दाल-रोटी मिल जाती है। आज यदि यही प्रश्न दोहराया जाए और व्यक्ति दाल-रोटी की बात कहे तो वह निश्चय ही गरीबी रेखा से ऊपर है और यही आजाद भारत का गुलाम सच है
पहले दाल-रोटी के सवाल को ही लें। एक जमाना था जब किसी व्यक्ति से उसकी आमदनी या वेतन पूछा जाता था तो नम्रतापूर्वक उत्तर मिलता था कि दाल-रोटी मिल जाती है। आज यदि यही प्रश्न दोहराया जाए और व्यक्ति दाल-रोटी की बात कहे तो वह निश्चय ही गरीबी रेखा से ऊपर है। आज तक जीडीपी अर्थात सकल घरेलू उत्पाद को दाल-रोटी से नहीं जो़ड़ा गया। अब दाल और रोटी का रिश्ता ही टूट गया है।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के ताजा आकलन के अनुसार 28 प्रश आबादी गरीबी रेखा के नीचे है, जो महँगी दाल और रोटी एक साथ नहीं खा सकती। आकलन के अनुसार 45 प्रश आबादी ऐसी है जिसकी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन आय 12 रु. 20 पैसे है।
असल में आज दाल में काला नहीं, बल्कि कालापन आँकड़ों में है और आँकड़ों के आधार पर बिग बाजार, शॉपिंग मॉल खुलने, विदेशी मुद्रा से खजाना भरने और रुपया मजबूत होने के माध्यम से विकसित होने का दावा पेश करना एक कला है।
हैरत की बात है कि अमर्त्य सेन के सामाजिक चयन और क्रयशक्ति की कमी की अवधारणा विदेश में नोबेल पुरस्कार दिला सकती है, लेकिन उनकी भुखमरी के कारणों और विश्लेषण को हमारे सरकारी अर्थशास्त्री मानने को तैयार नहीं।
आज स्थिति यह है कि देश की आधी जनता क्रयशक्ति के अभाव में बाजार के बाहर खड़ी है, जबकि बाजार वस्तुओं से भरे पड़े हैं। क्रयशक्ति का अभाव मूलतः रोजगार के अवसरों की कमी के कारण है।
आरक्षण के समर्थकों और विरोधियों को यह भी भली-भाँति समझ लेना होगा कि सरकारी क्षेत्र में केवल दो करोड़ नौकरियाँ हैं और निजी क्षेत्र में एक करोड़, अर्थात देश के सभी वर्गों को-चाहे अगड़े हों या पिछड़े- को जब तक छोटे और गृह उद्योगों की ओर प्रेरित नहीं किया जाएगा तब तक क्रयशक्ति का अभाव बना रहेगा।
दूसरा गुलाम सच महँगाई को माँग और आपूर्ति के सिद्धांत से जो़ड़ना और थोक मूल्य के आधार पर मुद्रास्फीति की दर को बढ़ाना-घटाना है। यह सच बहुधा छिपा लिया जाता है कि मुद्रास्फीति की दर को प्रभावित करने वाले प्रमुख दो कारण रहे हैं-पहला, सूचकांक मालूम करने का आधार वर्ष बदलना और दूसरा खाद्य वस्तुओं को मिलने वाले महत्व भार को बदलना।
वित्तमंत्री मुद्रास्फीति को कभी शुद्ध मौद्रिक घटना बताते हैं तो कभी वस्तुओं की आपूर्ति में कमी। अभी सरकारी महँगाई 3.79 प्रश के इर्दगिर्द मँडरा रही है, लेकिन पिछले एक वर्ष के दौरान थोक और खुदरा बाजार में 10 से 45 प्रश की बाजारी वृद्धि ने सरकारी सच को झुठलाते हुए आम आदमी का जीना दूभर कर दिया।
मुद्रास्फीति की दर पर आश्रित सरकारी महँगाई थोक मूल्य सूचकांक से अपना बचाव करने में यह भूल जाती है कि सूचकांक में प्राथमिक वस्तुओं का भार मात्र 22 प्रश है और फैक्टरी उत्पादों का भार 63 प्रश।
तीसरे गुलाम सच का संदर्भ पिछले सप्ताह संपन्न हुए पौष्टिक आहार सप्ताह से है, जिसके मूल में यह सच छिपा हुआ है कि आज पूत के लक्षण पालने में नहीं, बल्कि पौष्टिक पदार्थों, विशेषकर दूध के कटोरे में नजर आते हैं। पालने में शिशु के सोने की अवस्था में दूध का कटोरा तय करता है कि उसके मस्तिष्क का विकास कैसे होगा और भावी पीढ़ी कितनी बुद्धिमान होगी।
शरीर की रचना ही कुछ ऐसी है कि मस्तिष्क सर्वप्रथम पोषण माँगता है। छह माह के बाद शिशु की न्यूनतम आवश्यकता 25 ग्राम पशु प्रोटीन की होती है। एक औंस दूध में एक ग्राम पशु प्रोटीन मिलता है जबकि आज देश में बच्चों को प्रतिदिन 6 औंस दूध के औसत पर निर्भर रहना होता है। 25 औंस की प्रति बालक न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति के लिए प्रतिमाह लगभग एक हजार रु. चाहिए।
भला सा़ढ़े बारह रु. प्रति व्यक्ति प्रतिदिन आय वाली देश की आधी आबादी इस आवश्यकता को कैसे पूरा करेगी। पौष्टिक आहार के दूसरे तत्व हैं- दाल और रोटी। दाल में लाइसिन नामक पौष्टिक पदार्थ होता जबकि रोटी में मैथ्युनिन। दोनों मिलकर ही शरीर का पोषण करते हैं, लेकिन पिछले पाँच दशकों में दालों का उत्पादन और प्रति व्यक्ति उपलब्धता घटती जा रही है। जहाँ 1951 में प्रति व्यक्ति दाल का उपयोग 65 ग्राम था वह घटकर 30 ग्राम रह गया।
चौथा गुलाम सच यह भी पूछना चाहेगा कि क्या यह देश इतना संपन्न है कि वह परमाणु बिजली पैदा करने की प्रति यूनिट पाँच रु. की लागत चुका सकेगा। परमाणु बिजली सबसे महँगी बिजली मानी जाती है तथा उपलब्ध संसाधनों के मुकाबले में अधिक संसाधन खाती है। हमारी परमाणु ऊर्जा अभी कुल उत्पादित ऊर्जा के तीन प्रश हिस्से के बराबर है।
सरकार की घोषणाओं के अनुसार सन् 2020 तक हमारे देश में परमाणु बिजली उत्पादन ज्यादा से ज्यादा 20 हजार मेगावॉट बढ़ सकता है, जो हमारे कुल उत्पादन का 7 प्रश ही होगा। निःसंदेह परमाणु बिजली समय और दीर्घकालीन हितों की आवश्यकता है, लेकिन सरकार और विपक्ष दोनों यह क्यों भूल रहे हैं कि अर्थव्यवस्था की ऊर्जा जरूरतें पूरी करने के लिए देश को मुख्यतः ताप तथा बिजली के अलावा गैर परंपरागत स्रोतों से ऊर्जा पर भी निर्भर करना पड़ेगा।
इसी प्रकार पेट्रोल में दस प्रश एथेनोल मिलाने के निर्णय के बारे में चीन के कटु अनुभव से सीखना होगा कि ईंधन के उत्पादन के लिए कच्चे माल के रूप में अनाज का विशेषकर गन्नों का इस्तेमाल करने से न सिर्फ अनाज की कीमतें बढ़ेंगी, बल्कि पानी का स्तर भी घटेगा। चीन के प्रमुख खाद्यान्न के मक्का का एथेनोल में प्रयोग से वहाँ 30 प्रश कीमतें बढ़ीं, तब वहाँ मक्का के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाना पड़ा।
दरअसल, आजाद सच के शाब्दिक व्यायाम में गुलाम सच परिवर्तित होने की प्रक्रिया में बाजार और विचारधारा दोनों खंडित हुए। मलेशिया के प्रसिद्ध चिंतक सैयद अलतास ने तीसरी दुनिया के बुद्धिजीवियों के बारे में लिखा है कि उनके दिमाग पर विकसित देशों का कब्जा हो गया है। दूसरी ओर समाज और संस्कृति के निर्माण की जो प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है उसमें आज ठहराव आ गया है।
हमारा समाज न तो पूरी तरह पश्चिमी संस्कृति को अपना पाया है और न ही वह अपने पुराने नैतिक मूल्यों को अपनाए हुए है। दरअसल, आर्थिक विस्फोट का नतीजा जहाँ एक ओर लोगों के जीवन स्तर और जीवनशैली के बदलाव के रूप में हुआ, वहीं दूसरी ओर उद्वेगात्मक अपराध भी बढ़ने लगे हैं। असल में खंड-खंड हुई अर्थव्यवस्था के आजाद सच तभी तक सार्थक हो सकते हैं, जब उनमें मिट्टी की गंध आए और आम आदमी लाभान्वित हो।