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Last Modified: बुधवार, 14 दिसंबर 2016 (22:14 IST)

क्या सच हो पाएगा भारत को कैशलेस बनाने का सपना

क्या सच हो पाएगा भारत को कैशलेस बनाने का सपना - Demonetization, cashless, funding, government, India
नई दिल्ली। पांच सौ और हजार रुपए के नोटों को रातोंरात कानूनी रूप से अवैध करने के बाद सरकार ने कालेधन और आतंक के फंडिंग की समस्या रातोंरात खत्म होने का भरोसा दिलाया। उसके बाद जो  कुछ हुआ, उससे सरकार ने सुर बदला और कहा कि भारत की अर्थव्यवस्था के ही कैशलेस होने की  जरूरत है, इसलिए हमें पश्चिमी देशों की तरह क्रेडिट, डेबिट कार्ड से लेन देन करना चाहिए। अगर  जरूरी हो तो चेक का सहारा लें लेकिन जहां तक हो सके देश को लेस कैश की बजाय कैशलेस ही  बनाना होगा। 
लगता है कि सरकार का मानना था कि देशभर में जितनी भी नकदी है, वही काला धन है, इसलिए देश  की सरकार का सारा ध्यान कालेधन, आतंक की फंडिंग की बजाय कैशलेस बनाने पर हो गया है। इस उत्साह और सरकारी कल्पनाहीनता में यह नहीं सोचा गया कि भारत जैसे विशाल देश में जहां आज भी  एक-तिहाई जनता निरक्षर है और समूची ग्रामीण अर्थव्यवस्था नकदी लेन-देन पर आधारित असंगठित  क्षेत्र के मजदूर-किसान नकदी  से ही अपना सारा कामकाज करते हैं, क्या ऐसे देश में रातोंरात कैशलेस  क्रांति संभव है? 
 
पश्चिम के जो देश, नकदी-मुक्त लेनदेन के अगुआ कहलाते हैं और भारत जिनकी नकल करना चाहता  है, उनकी आबादी बहुत कम और वे आकार में भी बहुत छोटे हैं। सुविधासंपन्न और शत-प्रतिशत साक्षर  देशों में भी नकदी पूरी तरह से समाप्त नहीं की गई। डेनमार्क, स्वीडन, नॉर्वे, बेल्जियम, इटली, फ्रांस  जैसे देशों में लेन-देन, कैशलेस, कार्ड या मोबाइल फोन से होता है, लेकिन इन देशों के केंद्रीय बैंकों का  कहना है कि नकदी भी लोगों के पास होनी चाहिए।  
 
निजता पर खतरा : नकदी-मुक्त लेनदेन से स्वीडन में बैंक-डकैती की घटनाएं 2008 में घट गईं, लेकिन  बाद में बैंक-खातों में सेंधमारी (हैकिंग) जैसे इलेक्ट्रॉनिक धोखाधड़ी के मामले 1,40,000 हो गए थे। हर  छोटा-बड़ा लेनदेन तुरंत दर्ज होते रहने से स्वीडन के आम आदमी की निजता खत्म होती जा रही है। 
 
इसी ख़तरे के डर से निजी सुरक्षादाता कंपनियों के संघ की अध्यक्षता कर रहे ब्यौर्न एरिक्ससोन ने  ‘कैश अपराइजिंग’(नकदी के लिए बगावत) नाम की एक संस्था बनाकर एक आंदोलन भी छेड़ दिया  है। उनका कहना है कि नकदी पाना, रखना और कहीं भी जमा करना हर व्यक्ति का अधिकार होना  चाहिए। उपभोक्ताओं, पेंशनभोगियों, विकलागों और विदेशी प्रवासियों के संघ इस आंदोलन में एकसाथ  हैं।
 
स्वीडन का राष्ट्रीय मुद्रा बैंक भी मानता है कि केवल निराकार आभासी (डिजिटल या वर्चुअल) मुद्रा से  काम नहीं चलेगा, सिक्कों और नोटों के रूप में साकार वास्तविक मुद्रा भी होनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं  है तो बैंकों, उनकी संपत्तियों, स्टाफ की कोई जरूरत ही नहीं है। 
 
नकदी जरूरी क्यों? : नकदी के प्रति जनता के लगाव का बचाव करते हुए जर्मन केंद्रीय बैंक के एक बड़े  अधिकारी का कहना है, ‘यह उपभोक्ताओं को, विशेषकर कम आय वाले लोगों को, अपना ख़र्च  नियंत्रित रखने में प्रत्यक्ष सहायक बनती है। लोग जानते हैं कि उनके पास कितना पैसा है और कितना  नहीं।' 
 
उनका कहना है कि ऐसी सीमाओं से ‘जनसाधारण में बेचैनी पैदा होती है। लोग कहते हैं कि जो पैसा  मेरा है, मेरे पास है, उसे इच्छानुसार रखने या ख़र्च करने का अधिकार भी तो मेरा ही बनता है। मैं उसे  घर में रखूं या बैंक के लॉकर में।’
 
एक प्रमुख जर्मन बैंकर का कहना है कि आपका जो पैसा आप के पास नक़दी के रूप में नहीं है, वह  आपके बैंक के नाम भुगतान की मांग के समान है। अतीत में बैंक भुगतान (अक्षमता) की समस्याओं  का सामना कर चुके हैं। यह भी नहीं भूल जाना चाहिए कि नकद पैसा मुद्रा-बैंक द्वारा जारी पैसा है।  उसे सीधे मुद्रा-बैंक में जाकर बदला जा सकता है। उसका तब भी उपयोग हो सकता है, जब तकनीक  या उपकरण (कंप्यूटर इत्यादि) फेल हो जाएं। बिजली गुल हो जाए या (मोबाइल फ़ोन) नेटवर्क काम नहीं  कर रहा हो।’
 
‘नकद पैसा नागरिकों की कमाई का पैसा है’ : जर्मन जानकार कार्ल-लुडविश थीले का कहना है कि  'हमें या सरकारों को यह नहीं भूल जाना चाहिए कि नकद पैसा देश के नागरिकों की कमाई का पैसा है,  न कि नोट जारी करने वाले बैंक का या देश की सरकार का। हर नागरिक के लिए यह संभव होना  चाहिए कि वह अपने पैसे का अपनी इच्छानुसार उपयोग कर सके - नकद या गैर-नकद। 
 
इसमें कोई संदेह नहीं कि नकदी-मुक्त अर्थव्यवस्था के अनेक आर्थिक लाभ हैं। पर यह भी निश्चित है  कि उससे ऐसे कई आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक नुकसान भी होंगे, जिन्हें टालना भी उतना ही  जरूरी है। भारत जैसे देश में इन नुकसानों का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है। 
 
कम्प्यूटर सेंधमारी का बहुत बड़ा खतरा : पिछले 2 दिसंबर को मॉस्को से समाचार आया था कि अज्ञात  हैकरों (कंप्यूटर सेंधमारों) ने कई जाली कोडों की मदद से रूस के केंद्रीय बैंक में सेंध लगाकर दो अरब  रूबल (तीन करोड़ दस लाख डॉलर से अधिक) के बराबर धनराशि लूट ली। यह भी कहा गया कि हैकरों  ने संभवतः कई बार घात लगाकर यह धनराशि उड़ाई और इसके लिए विदेशों में स्थित कंप्यूटर  इस्तेमाल किए पर हैकरों की पहचान नहीं हो सकी।
 
इसी तरह फरवरी 2016 में कंप्यूटर सेंधमारों ने बांग्लादेश के केंद्रीय बैंक ‘बांग्लादेश बैंक’ के  कंप्यूटरों को धोखा देकर 95 करोड़ 10 लाख डॉलर उड़ाए थे। इस में से 2 करोड़ डॉलर श्रीलंका भेजे गए  थे, आठ करोड़ 10 लाख डॉलर फिलीपींस और 30 किश्तों में 85 करोड़ डॉलर अमेरिका में फेडरल रिजर्व  बैंक ऑफ न्यूयॉर्क के पास पहुंचे थे। न्यूयॉर्क वाले बैंक को जब इतनी सारी किश्तों और रकम पर शक  हुआ और उसने ‘बांग्लादेश बैंक’ से संपर्क किया, तब ‘बांग्लादेश बैंक’ को पता चला कि हुआ क्या  है। इसी तरह के मामले 2015 में इक्वाडोर, फिलीपींस और वियतनाम के बैंकों के साथ भी हो चुके हैं।
 
जब देशों के केंद्रीय या राष्ट्रीय मुद्रा बैंक तक अपने कंप्यूटरों को साइबर अपराधियों के हमलों से बचा  नहीं पाते, तो हम-आप अपने कंप्यूटरों या मोबाइल फोनों को हैकरों के हमलों से भला कब तक और  कितना बचा सकते हैं?
 
‘कास्पर्स्की लैब’का सर्वे : ‘कास्पर्स्की लैब’ कंप्यूटर और सूचना तकनीक में सुरक्षा-समाधानों की  सबसे प्रसिद्ध और विश्वसनीय कंपनी मानी जाती है जोकि हर वर्ष एक सर्वे प्रकाशित करती है कि  कमियों और सुधारों की क्या स्थिति है। सूचना तकनीक के लिए जोखिमों-संबंधी 2015 के अपने  नवीनतम वैश्विक सर्वे में उसका कहना है कि जिन कंपनियों, बैंकों इत्यादि को 2015 के इस सर्वे में  शामिल किया गया, उनमें से 47 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें नहीं लगता कि सुरक्षा पर ख़र्च बढ़ाने के  बावजूद उनका वित्तीय लेनदेन उतना सुरक्षित है, जितना होना चाहिए। 
 
कास्पर्स्की लैब ने यह भी पाया कि मोबाइल बैंकिंग बढ़ने के साथ-साथ बैंकों व अन्य वित्तीय संस्थानों  को बढ़ती हुई ऑनलाइन धोखाधड़ी का भी सामना करना पड़ रहा है। 48 प्रतिशत वित्तीय संस्थानों ने  कहा कि वे मूल समस्या को हल करने के बदले क्षतिग्रस्त लोगों को क्षतिपूर्ति देकर मामला सुलझाते  हैं। लैब ने एक बार फिर यही निष्कर्ष निकाला है कि साइबर धोखाधड़ी हर प्रकार के काम में पैसों के  सुरक्षित लेनदेन की अब भी सबसे बड़ी बाधा है।
 
साइबर धोखाधड़ी का अंतरराष्ट्रीय जाल : वर्षों की लंबी खोजबीन के बाद अभी पिछले नवंबर में ही 41  देशों के आइटी विशेषज्ञों ने साइबर धोखाधड़ी के एक ऐसे अंतरराष्ट्रीय जाल का भंडाफोड़ किया, जो  2009 से सक्रिय था। उसके सदस्यों ने कम से कम 1336 मामलों में ऑनलाइन बैंकिग करने वालों के  60 लाख यूरो चुराए। अकेले जर्मनी में 50,000 से अधिक लोग ठगे गए। 
 
नवंबर में ही एक दूसरे गिरोह ने जर्मन टेलीकॉम कंपनी के लाखों ग्राहकों के राउटरों को जासूसी करने  वाले वायरस से संक्रमित कर दिया था। कहा जाता है कि ऐसे काम अप्रिय देशों में अव्यवस्था फैलाने  के विचार से अब कुछेक देशों की सरकारी गुप्तचर सेवाएं भी करने लगी हैं। कहने की आवश्यकता नहीं  है कि पाकिस्तान यदि जाली नोटों से भारत को पाट सकता है, तो भारत में ऑनलाइन बैंकिंग को भी  पंगु बना सकता है? 
 
नकदी-मुक्त समाज में सरकारें सबसे बड़ा खतरा : वास्तव में सरकारें ही - विदेशी ही नहीं स्वदेशी  सरकारें भी - नकदी-मुक्त अर्थव्यवस्था के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बन सकती हैं। कंप्यूटर या मोबाइल  फोन से पैसों के लेन-देन का अपने पीछे जो निशान छोड़ेगा, उससे हर व्यक्ति सरकारों के लिए पारदर्शी  बन जाएगा। सरकारें चाहें, तो इस सारी प्रक्रिया पर नजर और नियंत्रण रख सकती हैं और कोई भी  लेन-देन उनसे छिपा नहीं रहेगा। वे जिस किसी को अपने लिए कांटा समझेंगी, उसके क्रेडिट या डेबिट  कार्ड को अवरुद्ध (ब्लॉक) कर देंगी। अमेरिकी गुप्तचर सेवा ‘एफ़बीआई’ के लिए हर ऐसा व्यक्ति  अभी से संदिग्ध बन गया है, जो ऑनलाइन जाता ही नहीं, केवल नकद लेनदेन करता है। यानी वह  कुछ छिपा रहा है और यह बात सरकार की नजर में उसे संदिग्ध बनाने के लिए काफी है। 
 
जब नकदी का चलन ही नहीं रह जाएगा, तब सरकारों को नोट छापने, सिक्के ढालने और उनके  वितरण की आवश्यकता भी नहीं रहेगी। पैसे का कोई भौतिक अस्तित्व नहीं रह जाने से अभौतिक पैसे  की मात्रा घटाना-बढ़ाना भी बांएं हाथ का खेल बन जाएगा। सरकारें जब चाहें तब सारी मुद्रा को अवैध  या अमान्य घोषित कर सकती हैं। 
 
100 रुपए को 10 रुपए या 10 रुपए को 100 रुपया भी बना सकती हैं। बैंक को आदेश देकर किसी  व्यक्ति की सारी डिजिटल जमापूंजी जब्त कर सकती हैं। नकदी का चलन न होने से बचाने-छिपाने के  लिए किसी के पास कुछ बचेगा भी तो नहीं। इस तरह लोकतांत्रिक सरकारें भी तानाशाह बन सकती हैं  और देश का हर नागरिक उनकी दया का गुलाम बनकर रहेगा।
 
नकदी नहीं, तो बैंक कर्मचारी भी नहीं : यह सारा अतिवाद यदि न भी हो, तब भी भारत जैसे देश में  नकदी रहित व्यवस्था की अपनी दिक्कतें हैं। यहां बिजली का कोई भरोसा नहीं रहता। जब-जब बिजली  चली जाए , बैंक से लेकर ग्राहक तक कोई कुछ नहीं कर सकता। यदि बिजली सदा रहे भी, तब भी  नकदी-मुक्त समाज में बैंकों में सारे काम कंप्यूटरों पर स्वचालित ढंग से होंगे। कैशियर और बहुत सारे  क्लर्क बेकार हो जाएंगे।
 
केवल ऋण, बांड या शेयरों संबंधी परामर्श देने के लिए इक्के-दुक्के लोग रह जाएं। एक दिन ऐसी भी  स्थिति आ सकती है कि सारे बैंक गायब हो जाएं और पूरे देश में केवल कोई एक ही केंद्रीय बैंक  कंप्यूटरों और रोबोट मशीनों के सहारे सारी वित्त प्रणाली चला रहा हो। जब पैसे का ही कोई भौतिक  अस्तित्व नहीं होगा, तब आज के लाखों बैंक कर्मचारियों के अस्तित्व का भी भला क्या औचित्य बचेगा?
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