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Last Updated : रविवार, 7 जून 2020 (16:46 IST)

मनरेगा में मजदूरी नहीं बल्कि वह जौहरी चाहिए जो हुनर की कद्र कर रोजगार दे...

मनरेगा में मजदूरी नहीं बल्कि वह जौहरी चाहिए जो हुनर की कद्र कर रोजगार दे... - People returning home from Surat want employment
लखनऊ। देश में फैले कोरोना वायरस (Corona virus) कोविड-19 ने जहां पूरे देश की अर्थव्यवस्था को हिलाकर रख दिया है तो वहीं अन्य राज्यों से लौटे लोगों के सामने जिंदगी को सामान्य ढंग से चलाने के लिए कई सवाल भी खड़े कर दिए हैं जबकि सरकार भी ऐसे लोगों को रोजगार देने के लिए तैयारियां कर चुकी है लेकिन फिर भी बाहर से लौटे लोगों के मन में सिर्फ एक ही सवाल है कि करें तो क्या करें...

ऐसे ही लोगों से जब 'वेबदुनिया' ने बातचीत की तो किसने क्या कहा, आइए आपको बताते हैं.. सूरत से लौटकर कानपुर देहात पहुंचे रूपेश ने बताया कि लंबे समय से सूरत में रहकर मशीन के द्वारा हीरे तराशने का काम करते आए हैं और इस काम में वे बेहद पर पक्के हैं लेकिन कोरोना महामारी के चलते वे इतने मजबूर हो गए कि उन्हें लौटकर वापस अपने गृह कानपुर देहात आना पड़ा।

रूपेश का कहना है कि यहां आने की खुशी तो बेहद है लेकिन घर जब छोड़ा था तो मुख्य वजह रोजगार था। कोई भी घर छोड़कर जाना नहीं चाहता, लेकिन रोजगार की तलाश में कानपुर देहात से सूरत तक पहुंच गया था। वहां पर लंबे समय से हीरा तराशने का काम भी कर रहा था, सब कुछ अच्छा चल रहा था, ठीक पैसे भी मिल रहे थे लेकिन अब जिंदगी एक बार फिर वापस उसी मोड़ पर ले आई है जहां पर आकर सोचने पर मजबूर हो गया हूं कि करूं तो क्या करूं।

सरकार जो कुछ करेगी वह अच्छा करेगी लेकिन अभी तक तो मनरेगा के तहत मजदूरी करना छोड़ और कुछ नजर नहीं आ रहा है लेकिन जिन हाथों ने लंबे समय से हीरों को तराशा है, क्या वह हाथ अब फावड़ा चला पाएंगे। रूपेश का कहना है ऐसे बहुत से सवाल हैं जिसका जवाब उन्हें नहीं मिल पा रहा है।

वहीं बांदा में रहने वाले अंकित ने बताया कि बेरोजगारी से तंग आकर एक साल पहले अपने दोस्तों के साथ सूरत चला गया। वहां उसे मारुति डायमंड कंपनी में काम मिल गया। दो माह में ही वह मशीन पर कच्चे हीरे की घिसाई और तराशने के काम में माहिर हो गया।

अंकित बताता है कि वह रोजाना 50 से 60 कच्चे हीरे तैयार करता था। उसे 10 रुपए प्रति हीरे की दर से मजदूरी मिलती थी। रोजाना लगभग 600 रुपए का काम हो जाता था। मशीन से काम करने में ज्यादा मेहनत-मशक्कत भी नहीं होती थी। महीने में 20 हजार रुपए तक मिल रहे थे। अंकित ने बताया कि मार्च में लॉकडाउन लागू होते ही कंपनी बंद हो गई। कंपनी ने उसका पूरा हिसाब कर दिया। 2 माह तक वह वहीं फंसा रहा और जो कुछ था वह सब खर्च हो गया। 15 दिन पहले वह अपने गांव लौटा है।
अंकित ने कहा कि एक बार फिर रोजगार की समस्या और गांव में मनरेगा के तहत मजदूरी का ही काम मिल रहा है लेकिन मैंने सिर्फ और सिर्फ मशीनों से हीरा तराशने का काम किया है कभी फावड़ा नहीं चलाया है, पता नहीं फावड़ा चला भी पाऊंगा कि नहीं। सीधे तौर पर कहा जाए तो सूरत से लौटे दोनों ही युवकों को मनरेगा में मजदूरी नहीं, बल्कि वह जौहरी चाहिए, जो उनके हुनर की कद्र करके उन्‍हें रोजगार दे सके।