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Written By ND

पैरेन्ट्स, पैकेज और करियर

करियर
-स्‍वाति‍ शैवाल
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हमारे यहाँ आज भी स्कूल से लेकर कॉलेज तक की परीक्षा बच्चे प्रश्नों के उत्तर गाइड से रटकर याद करते हैं और अच्छे नंबर आने को अपनी उपलब्धि समझते हैं, क्योंकि उन्हें बचपन से ही यह समझाया जाता है कि केवल अच्छे नंबर लाने और अच्छी नौकरी पाने के लिए ही उन्हें पढ़ाई करनी है

कहानी एक सामान्य मध्यमवर्गीय घर की है। घर का बेटा शहर के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में एमबीए अंतिम वर्ष का छात्र है तथा आने वाले दिनों में बड़े पैकेज के सपनों में डूबा है। हालाँकि कहीं न कहीं उसे मालूम है कि 'कॉम्पिटिशन' तगड़ा है और क्राइटेरिया के लिहाज से भी वह कई कंपनियों की जद में नहीं आता...

फिर भी उसके पिता ने कहा है कि यह प्रोफेशनल डिग्री उसके तमाम 'नेगेटिव' प्वॉइंट्स धो देगी... इसलिए ही तो लाखों रुपए खर्च करके इस प्रतिष्ठित कॉलेज में एडमिशन करवाया है। बेटे से कहीं ज्यादा पिता आशान्वित हैं। इसी के चलते अब तक बेटेजी को कॉलेज में आई सामान्य पैकेज या छोटे नाम (!) वाली कंपनियों के लिए प्लेसमेंट प्रक्रिया में भाग नहीं लेने दिया गया है। अब कुछ महीनों बाद की दास्तान सुनिए।

वही बेटा कोर्स खत्म होने के सालभर बाद भी 'अच्छी' कंपनियों में 'अच्छे पैकेज' पर जाने के लिए जूते घिस रहा है। ऐसा नहीं कि उसे इस बीच ऑफर नहीं मिले लेकिन एक तो शुरुआत में पिता द्वारा दिखाए सपनों ने उसे 'छोटी' और कम पैकेज वाली कंपनियाँ ज्वॉइन नहीं करने दीं, दूसरे कई अच्छे अवसरों के बारे में वह ठीक से समझ ही नहीं पाया और जानकारी भी नहीं रख पाया।

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लिहाजा, वह अब भी स्ट्रगल ही कर रहा है। उधर माता-पिता का अब कहना है कि बेटा जो भी कंपनी या काम मिले कर लो...। इतने बड़े कॉलेज में एडमिशन दिलवाने का क्या फायदा रहा...। एक जॉब तक ढंग का नहीं दिलवा पाए...। और दबे शब्दों में वे यह भी कह देते हैं कि शायद बेटे में ही गट्स नहीं हैं। उन्हें अब घर पर बैठा बेटा अच्छा नहीं लग रहा।

जी हाँ... शायद इस बात को पचाना कठिन हो लेकिन यह भी आज का एक निर्मम सच है। यह तो इंसानी मानसिकता है ही कि मनुष्य अपने जिन सपनों को पूरा नहीं कर पाता... उसे अपने बच्चों के माध्यम से पूरा होता देखना चाहता है। यह एक सनातन भावना है। इस भावना ने अब एक और रूप अख्तियार कर लिया है...।