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Written By ND

पैरेन्ट्स का इमोशनल अत्‍याचार

करियर
-स्‍वाति‍ शैवाल
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यह विडंबना ही है कि आजकल ज्यादातर माता-पिता बच्चों को पैकेज के लिहाज से नौकरी या करियर चुनने को कहते हैं। अगर पड़ोस में रह रहे फलाँजी के सुपुत्र को अला कोर्स करने के बाद छः लाख रुपए का पैकेज मिला तो उनके बेटे (या कुछ स्थितियों में बेटी) को भी कम से कम पाँच लाख का पैकेज तो मिलना ही चाहिए। इस कारण से बच्चों पर शुरू से पढ़ाई को 'लादने' का काम शुरू कर दिया जाता है।

अच्छे परसेंटेज और शानदार करियर के तराजू पर झूलते-झूलते वह वयस्क हो कॉलेज जाने की सीढ़ी पर कदम रखता है। लेकिन अब भी निर्णय के लिए वह स्वतंत्र नहीं। उसके पास तीन विकल्प होते हैं- परिजनों की पसंद...परिजनों की पसंद और परिजनों की पसंद। ऐसा नहीं हो तो... उसे दुनिया की समझ नहीं... वह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा/रही है...।

'दूसरों को देखो वे कैसे आगे बढ़ रहे हैं' से लेकर 'अब तक अपनी सारी खुशियाँ तुम पर न्योछावर कर दीं, इसका यही सिला दोगे... है ना!' जैसे कई सद्वाक्य उसे रोज प्रवचन की तरह तब तक सुनाए जाते हैं जब तक कि वह परिजनों की पसंद पर हामी न भर ले। सोने पर सुहागा बनी हमारी शिक्षा व्यवस्था भी कोई ऐसी स्पष्ट व्यवस्था नहीं कर पाती कि स्‍टूडेंट आत्मविश्वास के साथ अपनी पसंद पर टिका रह सके और अपनी पसंद का करियर बनाने पर ध्यान केंद्रित कर सके।

भारतीय शिक्षा व्यवस्था के जनक लॉर्ड मैकॉले से जुड़ा एक प्रचलित चुटकुला है कि जब एक भारतीय को मरने के बाद ऊपर पहुँचने पर लॉर्ड मैकॉले भी टहलते हुए मिले तो उसने पास जाकर गुस्से से पूछा- 'आप वही लॉर्ड मैकॉले हैं ना... जिन्होंने हम भारतीयों को क्लर्क बनने की शिक्षा दी।' इस पर लॉर्ड मैकॉले ने मुस्कुराकर उत्तर दिया-'हाँ मैं वहीं हूँ..., लेकिन मेरे भाई, मैंने तुम लोगों को कम से कम एक दक्ष क्लर्क बनने लायक शिक्षा तो दी।

आजकल तुम जो शिक्षा दे रहे हो... वह तो सिर्फ रट्टू तोते और रेस के घोड़े ही बना रही है!' बात सही है। विकसित देशों से खुद की तुलना हम कपड़े, खाने-पीने और रहन-सहन के स्तर पर तो करते हैं लेकिन यह भूल जाते हैं कि वहाँ एक सामान्य स्कूली बच्चा भी अपनी पॉकेटमनी जुटाने के लिए किसी दुकान में पार्ट टाइम काम करना गलत नहीं समझता। वहाँ बच्चा जिस विषय से प्रेम करता है वही पढ़ता है... चाहे फिर वह जूते सुधारने का काम हो या फिर डांस सीखने का।

जबकि हमारे यहाँ आज भी स्कूल से लेकर कॉलेज तक की एक्‍जाम स्‍टूडेंट प्रश्नों के उत्तर गाइड से रटकर याद करते हैं और अच्छे नंबर आने को अपनी उपलब्धि समझते हैं, क्योंकि उन्हें बचपन से ही यह समझाया जाता है कि केवल अच्छे नंबर लाने और अच्छी नौकरी पाने के लिए ही उन्हें पढ़ाई करनी है, ज्ञान-अर्जन के लिए नहीं। जाहिर है ऐसे में देश को 90 प्रतिशत वाले स्‍टूडेंट तो ढेर मिलेंगे लेकिन उस क्षेत्र के कार्य में दक्ष लोगों की कमी हमेशा बनी रहेगी।

बीए, एमए की क्या बखत
प्रोफेशनल कोर्सेस की बाढ़ आने के बाद से अगर सबसे ज्यादा नुकसान किसी चीज को हुआ है तो वह है बीए, एमए, बीकॉम और बीएससी जैसी डिग्रियों का। वरिष्ठ प्राध्यापक तथा करियर काउंसलर डॉ. अमिय पहारे का कहना है कि 'इन डिग्रियों की तरफ आज युवा देखना भी नहीं चाहते जबकि आजकल इनमें भी कई तरह के विकल्प मौजूद हैं, जैसे आप गणित के साथ ज्यॉग्राफी, इकोनॉमिक्स, स्टेटिस्टिक्स ले सकते हैं।

विज्ञान के क्षेत्र में बायोकेमिकल, बायोइन्फॉरमेटिक्स, लाइफ साइंसेस को अपना सकते हैं। इसके अलावा भारतीय सेना, डिज़ाइनिंग, पेट्रोलियम, एडवरटाइजिंग, मार्केट सर्वे, केपीओ (नॉलेज प्रोसेस आउटसोर्सिंग), एलपीओ (लीगल प्रोसेस आउटसोर्सिंग), मर्चेंडाइजिंग, इन्वॉयरनमेंटल इंजीनियरिंग, पॉलीमर इंजीनियरिंग आदि जैसे कई शानदार विकल्प हैं लेकिन युवा इनके बारे में जानने की कोशिश ही नहीं करते।