यदि आपको खुश रहना है, तो अपने मन को उस काम पर कॉन्सनट्रेट करना शुरू करें जो काम आप इस समय कर रहे हैं। मन की तासीर है भटकना और बड़े-बुजुर्ग हमें सदियों से कहते आए हैं कि इस मन को भटकने से रोको, एकाग्र करो। तभी परम् सुख प्राप्त होगा। इसके विपरीत यह भोगा हुआ सत्य है कि हमें दिवा-स्वप्न आनंदित करते हैं। दिवा-स्वप्न यानी जो काम हम कर रहे हैं, उससे मन का भटकाव।
तो बात का निचोड़ यह कि संत-महात्माओं के वचन हमारे व्यक्तिगत अनुभव से मेल नहीं खाते...। लेकिन जरा ठहरिए! हाल ही में बिलकुल आधुनिक यंत्र की मदद से एक ऐसा वैज्ञानिक अनुसंधान हुआ है, जो कह रहा है कि हमारे ज्ञानी-ध्यानियों की राय एकदम सही है।
अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय के मैथ्यू किलिंग्सवर्थ और डैनियल गिलबर्ट बाकायदा सवा दो हजार लोगों का अध्ययन कर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि यदि आपको खुश रहना है, तो अपने मन को उस काम पर एकाग्र करना शुरू करें जो काम आप इस समय कर रहे हैं।
इन दोनों मनोवैज्ञानिकों ने अपने एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर मित्र के साथ मिलकर 'ट्रैक योअर हैपिनेस' नाम से वेबसाइट तैयार की और लोगों को आमंत्रित किया कि वे अपने आईफोन के जरिए उनके सर्वे में शामिल हों। अपनी उम्र, शहर, नौकरी आदि के बारे में कुछ मूलभूत जानकारी देकर लोग इस सर्वे के लिए साइन अप हुए।
फिर उन्हें प्रतिदिन एक या अधिक बार आईफोन पर मैसेज करके कहा जाता कि वे उक्त वेबसाइट पर जाएँ और बताएँ कि इस समय वे क्या कर रहे हैं और कितने खुश हैं। साथ ही उन्हें यह भी बताना था कि क्या वे उसी काम के बारे में सोच रहे थे जो वे कर रहे थे या फिर किसी और चीज के बारे में। यदि किसी और चीज के बारे में सोच रहे थे तो वह प्रियकर थी, अप्रियकर या फिर सामान्य यानी न इधर, न उधर।
इस सर्वे के परिणाम चौंकाने वाले आए। किलिंग्सवर्थ और गिलबर्ट ने पाया कि औसतन लोगों का मन 47 प्रतिशत मामलों में उस काम से भटक रहा था, जो वे कर रहे थे। इनमें दफ्तर या घर के काम करने, शॉपिंग करने, खाने, टीवी देखने आदि सहित तमाम किस्म के सार्वजनिक से लेकर अत्यंत निजी किस्म के काम शामिल थे।
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गिलबर्ट कहते हैं, 'यह सोचकर बड़ा अजीब लगता है कि भीड़ भरी सड़क पर जा रहे लगभग आधे लोग मानसिक स्तर पर वहाँ हैं ही नहीं!'
अब प्रश्न उठता है कि कोई नीरस या बोझिल काम करते हुए किसी का मन भटके, यह तो बात समझ में आती है। लेकिन खुशी देने वाला काम करने के दौरान भी लोगों का मन कम ही सही लेकिन भटकता तो है... भला क्यों? साथ ही यह भी देखा गया कि यह जरूरी नहीं है कि यदि खुशी देने वाला काम करने के दौरान मन भटका तो किसी ऐसे विचार की तरफ ही भटकेगा जो उससे भी ज्यादा खुशी देने वाला हो!
दूसरे शब्दों में कहें तो यह संभव है कि अपना प्रिय गाना सुनते-सुनते आपके मन में अचानक बिना कारण, सोमवार को दफ्तर में होने वाली तनाव भरी मीटिंग का ख्याल आ जाए...!
गिलबर्ट का मानना है कि आपके द्वारा किया जा रहा कार्य आपको उतनी खुशी नहीं देता, जितना आपके मन में आ रहा विचार देता है और यदि आपका मन उसी कार्य पर एकाग्र है तो आपकी प्रसन्नता का स्तर सर्वाधिक है।
अब एक पेचीदा सवाल उठता है। क्या मन भटकने की वजह से लोग कम खुश रहते हैं या फिर उनका मन भटकता ही इसलिए है कि हाथ में लिया गया काम करते हुए वे खुश नहीं हैं? दोनों मनोवैज्ञानिकों ने और अधिक गहराई से लोगों के फीडबैक का अध्ययन करने पर पाया कि मान लीजिए किसी का मन 9 बजे भटका था, तो इस बात की संभावना अधिक थी कि सवा 9 बजे वह 9 बजे की तुलना में कम खुश होगा। इसके विपरीत यदि कोई 9 बजे उदास हुआ तो यह जरूरी नहीं कि सवा 9 बजे उसका मन भटकेगा ही। मतलब यह कि मन भटकने से निराशा और उदासी आती है, इसका उल्टा होने के प्रमाण नहीं हैं।
तो निष्कर्ष यही निकलता है कि मन को भटकने न दें, अन्यथा आपकी खुशी का स्तर गिर जाएगा...। पर जरा ठहरिए...! क्या यह स्थापित तथ्य नहीं है कि किसी जटिल समस्या का हल हमें अक्सर तब मिलता है जब हम किसी और कार्य में रत होते हैं? यानी मन मौजूदा काम से भटका तो समस्या हल हुई!
कई वैज्ञानिक आविष्कार भी इसी तरह हुए हैं। मतलब यह कि ऐसा भी हो सकता है कि मन भटकने से आप कुछ ऐसा कर बैठें जो दीर्घ काल में आपको भरपूर खुशियाँ दे। तो चलिए, अब यह हमने पूरी तरह आपके ऊपर छोड़ दिया कि आप अपनी एकाग्रता बढ़ाने की कोशिश करते हैं या फिर मन की लगाम खुली छोड़ देते हैं। मर्जी है आपकी... आखिर खुशी है आपकी...!