विवेक रंजन अग्निहोत्री अपनी फिल्मों में इतिहास के उन पहलुओं को उजागर करने के लिए जाने जाते हैं, जिन्हें या तो सही ढंग से नहीं दिखाया गया या जानबूझकर नजरअंदाज कर दिया गया। द ताशकंद फाइल्स और द कश्मीर फाइल्स के बाद वे अब द बंगाल फाइल्स लेकर आए हैं। इस बार भी उन्होंने इतिहास के एक दर्दनाक अध्याय को वर्तमान की स्थिति से जोड़ने की कोशिश की है।
फिल्म की कहानी 1945 से 1947 के बीच के उस दौर को सामने लाती है जब भारत आज़ादी की दहलीज पर खड़ा था। जिन्ना मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग कर रहे थे और गांधीजी इसका विरोध कर रहे थे। इस बीच बंगाल में हिंदू-मुस्लिम दंगे भड़क उठे। मुस्लिम लीग कोलकाता को पूर्वी पाकिस्तान में शामिल करना चाहती थी और 1946 में हुए भीषण दंगों में 40 हजार से ज्यादा लोगों की जान चली गई।
नोआखली पाकिस्तान में शामिल करने की मांग के चलते हिंदुओं का कत्लेआम हुआ, उन्हें लूटा और भगाया गया। हालात इतने बिगड़े कि महात्मा गांधी को शांति मिशन के तहत वहां जाना पड़ा। विवेक अग्निहोत्री ने दावा किया है कि ये सब घटनाएं असलियत पर आधारित हैं और उन्होंने दिखाया है कि किस तरह हिंसा और विभाजन की राजनीति ने देश को चीर कर रख दिया था।
फिल्म का वर्तमान पश्चिम बंगाल में घटित होता है, जहां एक लड़की के अपहरण की जांच के लिए एक कश्मीरी CIB ऑफिसर भेजा जाता है। वह खुद को असहाय महसूस करता है और देखता है कि कैसे बाहरी मुस्लिमों को गैरकानूनी तरीके से बसाया जा रहा है। उसके अनुसार वोट बैंक की राजनीति के लिए नागरिकता दी जा रही है और भविष्य में यहां एक और विभाजन की संभावना पनप रही है।
फिल्म यह संदेश देती है कि आज से 80 साल पहले जैसी स्थिति थी, वैसी ही तस्वीर आज भी पश्चिम बंगाल में दिखाई देती है।
निस्संदेह विवेक अग्निहोत्री ने इतिहास का एक अहम हिस्सा सामने रखा है। युवा पीढ़ी को इस फिल्म से बहुत कुछ जानने को मिलेगा, लेकिन प्रस्तुति में कई खामियां भी हैं। फिल्म ऊपर-नीचे होती रहती है। पल्लवी जोशी और दर्शन कुमार के लंबे और उबाऊ दृश्यों से कहानी की रफ्तार धीमी पड़ जाती है। शाश्वत चटर्जी और दर्शन कुमार के कई सीन मेलोड्रामैटिक लगते हैं जो फिल्म के मिजाज से मेल नहीं खाते। मसाला फिल्मों के जैसे सीन लगते हैं।
फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी इसका संपादन है। विवेक दृश्यों को काटने का साहस नहीं जुटा पाए और नतीजतन फिल्म की लंबाई लगभग साढ़े तीन घंटे हो गई, जो दर्शकों पर भारी पड़ती है।
फिल्म में कुछ दृश्य ऐसे भी हैं जो दर्शकों को गहराई से विचलित करते हैं। कोलकाता और नोआखली की गलियों में हुआ खूनी खेल डर और असहजता पैदा करता है। हालांकि कई बार यह खून-खराबा जरूरत से ज्यादा खिंच जाता है। बंगाल के सुनहरे अध्याय को लेकर सिमरत कौर का एक सीन है जो बहुत ही शानदार हैं। इतिहास को विवेक ने ज्यादा अच्छे से पेश किया है। महात्मा गांधी की अहिंसा नीति से असहमति रखने वाले युवा, विभाजन को लेकर गांधीजी की असहायता, जिन्ना की जिद, मुस्लिम लीग की खूनी नीति फिल्म में उभर कर आती है और कुछ जोरदार सीक्वेंस भी देखने को मिलते हैं। विवेक की फिल्म मेकिंग में सुधार आया है और इस फिल्म में उन्होंने शॉट अच्छे से फिल्माए हैं।
दर्शन कुमार ने उम्दा काम किया है। महात्मा गांधी के रूप में अनुपम खेर असरदार दिखते हैं। सिमरत कौर अपने शानदार अभिनय से चौंकाती हैं। शाश्वत चटर्जी बेहतरीन कलाकार हैं लेकिन यहां उनका रोल थोड़ा फिल्मी हो गया। मिथुन चक्रवर्ती का गेटअप बेहद खराब है और उनके संवाद समझने में कठिनाई होती है। पल्लवी जोशी और पुनीत इस्सर निराश करते हैं। पुनीत चीखने-चिल्लाने को ही अभिनय समझते हैं। जबकि नमाशी चक्रवर्ती और राजेश खेरा अपने किरदारों में असर छोड़ते हैं।
फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर बांग्ला संगीत के साथ प्रभावी है और प्रोडक्शन वैल्यू भी दमदार है।
द बंगाल फाइल्स चुस्त संपादन और बेहतर प्रस्तुति की मांग करती है। यह फिल्म अनइवन है, कई जगह बोरिंग हो जाती है, लेकिन इसके बावजूद यह इतिहास का ऐसा पहलू सामने लाती है जो सोचने पर मजबूर करता है। फिल्म कई सवाल खड़े करती है और दर्शकों को चर्चा के लिए विषय देती है। यही इसकी सबसे बड़ी सफलता है।
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निर्देशक: विवेक रंजन अग्निहोत्री
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फिल्म: THE BENGAL FILES (2025)
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गीत: द्विजेंद्रलाल रे
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संगीत: पार्वती बॉल, द्विजेंद्रलाल रे
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कलाकार: दर्शन कुमार, सिमरत कौर, मिथुन चक्रवर्ती, अनुपम खेर, नमाशी चक्रवर्ती, पल्लवी जोशी, शाश्वत चटर्जी, राजेश खेरा
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सेंसर सर्टिफिकेट : ए (केवल वयस्कों के लिए) * 3 घंटे 24 मिनट 30 सेकंड
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रेटिंग : 3/5