कुछ बातें अब तक छिपा कर रखी जाती थीं और कोई भी उस पर बात करना पसंद नहीं करता था, लेकिन अब खुल कर इन मुद्दों पर बातें होने लगी हैं। कानूनी मान्यताएं भी मिल गई हैं। फिल्में भी बनने लगी हैं। जरूरी नहीं है कि एक महिला अपने जीवन साथी के रूप में पुरुष को ही पसंद करे, उसे महिला भी पसंद आ सकती है। इसी मुद्दे के इर्दगिर्द बुनी गई है 'एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा'।
स्वीटी (सोनम कपूर) को बचपन से ही लड़कियों के प्रति आकर्षण था। यह बात उसका भाई जानता है, लेकिन वह 'मुंह दिखाने के लायक भी नहीं रहेंगे' जैसी बातों से डरते हुए अपने पिता को भी यह बात नहीं बताता। स्वीटी जब शादी के लायक हो जाती है तो उसके लिए लड़के ढूंढे जाते हैं और बेचारी स्वीटी मन ही मन घुटती रहती है। स्वीटी को एक लड़की कुहू पसंद है। उसे पता है कि उसके प्यार को समाज और परिवार स्वीकार नहीं करेगा। परिवार और प्यार के बीच पिसती स्वीटी के संघर्ष को इस फिल्म में रेखांकित किया गया है।
निर्देशक शैली चोपड़ा धर ने बहुत संवेदनशील विषय चुना है। इस तरह के रिश्ते को मान्यता तो दूर इस पर बात करने में भी लोग हिचकते हैं। इस पर फिल्म बनाना हिम्मत का काम है। लेकिन अच्छा विषय चुनने से ही सारी जवाबदारी खत्म नहीं हो जाती। आपको दर्शकों को बांध कर रखना होता है। उन्हें मनोरंजन के सहारे बात समझाना पड़ती है और यही पर शैली से चूक हो गई है।
निर्देशक के पास कहने के लिए छोटी बात थी और उस पर दो घंटे की फिल्म बनाने के लिए उन्हें कई किरदारों और उनकी कहानियों को जोड़ना पड़ा, लेकिन बात नहीं बन पाई। फिल्म में जूही चावला और स्वीटी के घर के नौकरों के किरदार फिजूल से लगते हैं। इनके सहारे दर्शकों को मनोरंजन प्रदान करने की कोशिश की गई है, लेकिन यह किरदार बेहद नकली हैं।
फिल्म में एक हीरो की जरूरत है इसलिए राजकुमार राव का किरदार भी जोड़ा गया है जो स्वीटी की मदद करता है। स्वीटी से प्रेम भी करने लगता है, लेकिन जिससे स्वीटी प्रेम करती है उसे फिल्म के अंत में दिखाया गया है। क्या स्वीटी और उसकी पसंद कुहू के बीच ज्यादा दृश्य नहीं होने थे?
राजकुमार राव की भी अपनी कहानी है कि वह अमीर फिल्म निर्माता का बेटा है, लेकिन खुद अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहा है। उसकी ये कहानी फिल्म की सिर्फ लंबाई बढ़ाती है।
फिल्म का क्लाइमैक्स भी पूरी तरह संतुष्ट नहीं करता। ये तो सभी को पता था कि स्वीटी और उसकी मोहब्बत को स्वीकृति मिलेगी, लेकिन रूचि इस बात में थी कि कैसे मिलेगी? अचानक स्वीटी के पिता का हृदय परिवर्तन हो जाता है और सारी समस्या दूर होकर फिल्म खत्म हो जाती है।
फिल्म में निश्चित रूप से कुछ दृश्य अच्छे हैं जो दिल को छूते हैं, खासतौर पर जब फिल्म अंत की ओर बढ़ती है, लेकिन बोरियत भरे लम्हें भी बहुत ज्यादा हैं। हर एक अच्छे सीन के साथ दो बुरे सीन भी झेलने पड़ते हैं। इंटरवल के पहले फिल्म रेंगती है और आपके धैर्य का इम्तिहान लेती है।
निर्देशक के रूप में शैली चोपड़ा धर अपने काम पर कुछ ज्यादा ही मोहित लगीं और उन्होंने ऐसा मान लिया कि दर्शक भी मोहित हो जाएंगे।
उन्होंने हर किरदार को पहले सीन में कुछ ज्यादा ही चहकते हुए दिखाया गया है और यहां पर निर्देशक के प्रयास साफ नजर आते हैं कि वह फिल्म को 'कूल लुक' देने का प्रयास कर रही हैं।
फिल्म में एक नाटक दिखाया गया है जिसमें लेखक कहता है कि इसे दिमाग से नहीं दिल से देखिए। इस संवाद के जरिये शैली शायद यह बात अपनी फिल्म के लिए दर्शकों से कहना चाहती हैं। कुल मिलाकर शैली ने अपनी बात रखने के लिए बहुत ज्यादा समय लिया और दो घंटे की फिल्म भी चार घंटे की महसूस होती है।
फिल्म का एक्टिंग डिपार्टमेंट मजबूत है और कुछ कलाकारों की शानदार एक्टिंग के कारण फिल्म में रूचि बनी रहती है। सोनम कपूर ने लीड रोल निभाया है। उनकी एक्टिंग देख कहा जा सकता है कि वे और बेहतर कर सकती थीं। अनिल कपूर ने अपना सौ प्रतिशत दिया है। राजकुमार राव फिल्म को ताजगी देते हैं। जूही चावला ओवरएक्टिंग का शिकार रही। ब्रजेन्द्र काला और सीमा पाहवा सहित अन्य सपोर्टिंग एक्टर्स का काम सराहनीय है।
एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा में एक किरदार दूसरे से कहता है कि आपकी कहानी में 'स्यापा' नहीं है, सब कुछ ऊपर-ऊपर हो रहा है और यही बात शैली की फिल्म के लिए भी कही जा सकती है।
निर्माता : विधु विनोद चोपड़ा
निर्देशक : शैली चोपड़ा धर
संगीत : रोचक कोहली
कलाकार : सोनम कपूर, राजकुमार राव, अनिल कपूर, जूही चावला, बृजेन्द्र काला, सीमा पाहवा