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Last Updated : शनिवार, 21 नवंबर 2020 (15:23 IST)

बिच्छू का खेल रिव्यू : डंक में पैनापन नहीं

बिच्छू का खेल रिव्यू : डंक में पैनापन नहीं - Bicchoo Ka Khel Review, Web series, Divyendu Sharma, Samay Tamrakar, Anshul Chauhan
उत्तर प्रदेश/ बिहार की पृष्ठभूमि में सेट की गई अपराध कथाएं इन दिनों हर दूसरी वेबसीरिज में देखने को मिल रही है। सभी मिर्जापुर नामक सफल और लोकप्रिय वेबसीरिज से प्रेरित लगती हैं। इनके किरदार रंगीन होते हैं जिसकी वजह से प्रेम-कथाएं और अंतरंग दृश्यों को भी जोड़ने में आसानी होती है। जी 5 और ऑल्ट बालाजी पर 'बिच्छू का खेल' नामक नई सीरिज रिलीज हुई है। मिर्जापुर में मुन्ना भैया का किरदार निभाकर अपनी पहचान बनाने वाले दिव्येंदु शर्मा ने इस सीरिज में लीड रोल निभाया है। कह सकते हैं कि मुन्ना भैया के किरदार का यह एक्सटेंशन है। या तो दिव्येंदु ने अपने आपको दोहरा दिया या फिर सीरिज के मेकर उनकी इस छवि का फायदा उठाना चाहते थे क्योंकि उन्होंने मुन्ना त्रिपाठी के रंग-ढंग में ही अखिल श्रीवास्तव का किरदार निभाया है। 
 
अखिल और उसके पिता के बीच कुछ छिपा नहीं है। दोनों लम्पट किस्म के व्यक्ति हैं कि जहां मौका लगा वहां चौका लगाया। सूने मकानों में घुस कर वे पार्टियां करते हैं। एक बार अखिल का पिता एक घर में घुसता है और एक लाश से टकरा जाता है। उस पर हत्यारा मान लिया जाता है। अखिल यह बात नहीं मानता और अपने पिता को बेगुनाह साबित करने की कोशिश में जुट जाता है। वह चीजों को सुलझाने के लिए चला था, लेकिन उलझता जाता है। एक मुसीबत कम नहीं होती कि दूसरी उससे बड़ी मुसीबत उस पर आ टपकती है। कोई उससे भी चालाक है जो एक कदम आगे रहता है। 
 
'बिच्छू का खेल' में रोमांच, रोमांस, सस्पेंस, मर्डर मिस्ट्री जैसे सारे तत्व डाले गए हैं, लेकिन कहानी और प्रस्तुतिकरण के मामले में यह सीरिज मार खा जाती है। बात ऐसे पेश की गई है कि यकीन करना मुश्किल हो जाता है। अखिल का जो किरदार दिखाया है उसके लिए इतने बड़े लोगों से टकराना, पुलिस को छकाना, अदालत में सफाई देना, इतना आसान है कि आप आंख मलते रह जाते हैं कि आखिर यह सब कैसे संभव हो सकता है? हर जगह अखिल अपनी 'स्मार्टनेस' की छाप छोड़ता है और इस बात पर भरोसा करना मुश्किल हो जाता है। ऐसा लगता है कि लेखक और निर्देशक अपने 'हीरो' पर कुछ ज्यादा ही मोहित हैं। 
 
दिव्येंदु शर्मा नि:संदेह अच्छे कलाकार हैं, लेकिन उन्हें एक 'स्टार' की तरह दिखाया गया है। पुलिस के सामने जिस तरह से उनका किरदार डायलॉगबाजी करता है वो एक 'स्टार' करते हुए अच्छा लग सकता है। दिव्येंदु को वहां तक पहुंचने में अभी वक्त लगेगा। बहुत ज्यादा भार उनके कंधों पर डाला गया है। 
 
अखिल को एक प्रतिष्ठित वकील की बेटी चाहती है। अखिल के पिता के एक मिठाई व्यापारी की पत्नी के साथ संबंध है। जिस तरह से अखिल और उसके पिता के कैरेक्टर दिखाए गए हैं उसको देखते हुए यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि आखिर इन्हें ये महिलाएं पसंद क्यों करती हैं? इसके पीछे वजह दिखाई जाती तो बेहतर होता। 
 
संवादों में गालियों की भरमार है। शायद ये गलतफहमी पाल ली गई है कि जितनी गालियां होंगी उतनी ही बात वास्तविकता के नजदीक होगी, लेकिन इतनी गालियां तो बदहजमी ही करती हैं। बैकग्राउंड म्यूजिक में पुराने गानों का इस्तेमाल अच्छा है। 
 
निर्देशक ने सीरिज को कुछ ज्यादा ही तेजी से दौड़ाया है। फिल्में या वेबसीरिज केवल इसीलिए अच्छी नहीं कही जा सकती है क्योंकि उनकी गति तेज है। कुछ ठहराव भी जरूरी है। शायद वे दर्शकों को ज्यादा सोचने का अवसर नहीं देना चाहते थे। पूरी सीरिज को वाराणसी में बनाया है, लेकिन इस शहर के कई दृश्य बार-बार देखने को मिलते हैं। कहानी को आगे-पीछे भी ले गए हैं, लेकिन यह काम दर्शकों को चौंकाना भर था। अच्छी बात यह है कि उन्होंने कहानी को ज्यादा खींचा नहीं। नौ एपिसोड जरूर हैं, लेकिन सभी की अवधि लगभग बीस मिनट की है। कम बजट का असर मेकिंग पर नजर आता है। 
 
दिव्येंदु शर्मा, अंशुल चौहान, सैयद ज़ीशान क़ादरी, राजेश शर्मा, तृष्णा मुखर्जी सहित सभी कलाकारों ने अपना काम ठीक से किया है। 
 
बिच्छू का खेल जरूर है, लेकिन इसके डंक में पैनापन नहीं है। 
 
रेटिंग : 2/5