नसीरुद्दीन शाह की पहली फिल्म "निशान्त" नहीं थी। उनकी पहली फिल्म थी "अमन", जो "निशान्त" से पूरे आठ साल पहले (1967 में) रिलीज़ हुई थी। इसमें उन्होंने राजेंद्र कुमार की लाश के पास खड़े एक बेनाम व्यक्ति की चंद मिनटों की भूमिका निभाई थी।
इसी तरह उन्होंने राज कपूर की "सपनों का सौदागर" में भी एक्स्ट्रा की भूमिका की थी। वे घर से भागकर बंबई हीरो बनने आए थे, लेकिन बात बनी नहीं और ये इक्का-दुक्का रोल करने के बाद उन्हें वापस घर लौटना पड़ा था, पिता की झिड़कियां सुनने को।
लेकिन इस दौरान वे बंबई में कहां ठहरे थे?
दिलीप कुमार के बंगले पर! जी हां, यह सच है। लेकिन वो कैसे?
वो ऐसे कि दिलीप कुमार की बहन सईदा ख़ान अजमेर के आस्ताने पर माथा टेकने अकसर जाती थीं और नसीर के पिता वहां प्रशासक थे (नसीर की परवरिश अजमेर में हुई है)। बेटे के बंबई चले जाने से पिता नाराज़ तो थे फिर भी उन्होंने सईदा से बोलकर दिलीप साहब के बंगले में नसीर के रहने का बंदोबस्त करवा दिया था। वहां कुल जमा अठारह साल के नसीर दिलीप साहब द्वारा जीती गई ट्रॉफियों को हसरत भरी नज़रों से निहारते थे।
एक दिन दिलीप साहब ने उन्हें ऐसा करते देख लिया तो छूटते ही हिदायत दी कि "बरख़ुरदार, शरीफ़ घरों के लड़के फिल्मों में काम करने के ख़्वाब नहीं देखा करते।" (कई साल बाद "कर्मा" में दोनों ने साथ काम किया, लेकिन नसीर ने दिलीप साहब को उनकी वह नेक सलाह याद नहीं दिलाई)
एक बार बंबई से अपमानित होकर लौट आने के बाद फिर दूसरी बार तक़दीर आज़माने की हिम्मत कम ही लोग करते हैं, लेकिन नसीर ने की। लेकिन इसके लिए "पिया का घर" नामक फिल्म जिम्मेदार थी।
हुआ यूं कि नसीर दिल्ली में एनएसडी के छात्र थे। एक दिन उबाऊपन से बचने के लिए वे रीगल टॉकिज में यह फिल्म देखने चले गए। फिल्म उन्हें पसंद नहीं आनी थी सो नहीं ही आई। लेकिन उन्होंने ग़ौर किया कि फिल्म में काम करने वाले सात से आठ कलाकार एफ़टीआईआई पासआउट हैं। उन्होंने सोचा क्यों ना पुणे जाकर किस्मत आज़माई जाए। कौन जाने, वहां से बंबई का टिकट कट जाए।
ऐसा ही हुआ। लेकिन ऐसा बहुत तरतीब से नहीं हुआ। इत्तेफ़ाक़ का इसमें भी दख़ल।
तो माजरा यह था कि एफ़टीआईआई पुणे में नसीर की अगुआई में छात्रों ने हड़़ताल कर रखी थी। वे चाहते थे कि अभिनय का प्रशिक्षण ले रहे छात्रों को भी निर्देशन का प्रशिक्षण ले रहे छात्रों जितना महत्व दिया जाए। गिरीश कर्नाड तब वहां के निदेशक थे। आज तलक नसीर और गिरीश में इस मसले पर खटपट जारी है।
लेकिन जब श्याम बेनेगल (जो तब "अंकुर" बनाकर प्रतिष्ठित हो चुके थे) ने गिरीश कर्नाड से किसी अच्छे युवा अभिनेता का नाम सुझाने को कहा तो कर्नाड ने नसीर का नाम लिया। साथ ही यह हिदायत भी दी कि लड़का बदतमीज़ और बददिमाग़ है और मेरे संस्थान में स्ट्राइक किए हुए है, इसलिए अपने जोखिम पर ही कुछ निर्णय लेना।
बेनेगल ने नसीर को बंबई में पेडर रोड स्थित अपने बंगले पर बुलाया और महज़ आधे घंटे में उन्हें "निशान्त" में विश्वम् का रोल दे दिया। कारण, नसीर की पिटी हुई किंचित बदसूरत शख्सियत, जो उन्हें विश्वम् के रोल के लिए उचित जान पड़ी थी!
नसीर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि तब मैं आईएस जौहर की किसी फ़ालतू फिल्म में एक बेनाम लाश का रोल करने को भी ख़ुशी ख़ुशी तैयार हो जाता, लेकिन सहसा मैंने अपने आपको समांतर सिनेमा के अगुआ निर्देशक की फिल्म में पाया। और उसके बाद जो हुआ, वह इतिहास है।
शायद ग्रोतोव्स्की ने इसी को ध्यान में रखते हुए कहा होगा कि प्रतिभा जैसी कोई चीज़ नहीं होती, लेकिन प्रतिभा का अभाव जैसी चीज़ ज़रूर होती है, और यह तब होता है, जब हम अपने आपको उस जगह पर पाते हैं, जहां हमें नहीं होना चाहिए था।
नसीर ने अपने आपको 1975 के उस साल में एकदम सही जगह पर पाया था। यह एक चमत्कार ही था, लेकिन इसमें अजमेर की दरगाह, "पिया का घर", एफ़टीआईआई की हड़ताल और विश्वम् के लूज़रनुमा कैरेक्टर, सभी का मिला-जुला योगदान था।