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Written By Author अनिल जैन
Last Updated : शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2020 (23:47 IST)

पासवान के निधन से कुछ जिलों में बदलेंगे समीकरण, JDU को होगा नुकसान

पासवान के निधन से कुछ जिलों में बदलेंगे समीकरण, JDU को होगा नुकसान - Bihar election 2020 After death of ram vilas Paswan
पटना। बिहार में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया के बीच केंद्रीय मंत्री और लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के संस्थापक रामविलास पासवान (Ram Vilas Paswan) के निधन से सूबे के कुछ जिलों में राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं।  उनके निधन से उपजी सहानुभूति के आंसू वैसे तो सभी दलों का खेल बिगाडेंगे, लेकिन सबसे ज्यादा खामियाजा जनता दल (यू) को भुगतना पड़ सकता है।
 
पासवान की पार्टी लोजपा एनडीए से अलग होकर चुनाव मैदान में उतरी है और माना जा रहा है कि उनके बेटे चिराग पासवान अब जहां चुनाव मैदान में सहानुभूति कार्ड खेलेंगे, वहीं दूसरी ओर बाकी पार्टियां भी उन पर खुलकर हमला करने से बचेंगी। इस स्थिति का फायदा स्पष्ट रूप से लोजपा को मिलेगा। लोजपा ने उन सभी 115 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने का ऐलान किया है जो एनडीए गठबंधन में जद (यू) के हिस्से में आई हैं।
 
रामविलास पासवान बिहार में दलितों के इकलौते बड़े नेता थे। सूबे में लोकसभा की छह आरक्षित सीटों में से भी 5 सीटें पासवान परिवार के पास है। बिहार के पांच जिलों में दलित वोटर एक बड़े फैक्टर के रूप में काम करते हैं और इन जिलों में पासवान का खासा असर रहा है। इसलिए इन जिलों की विधानसभा सीटों पर लोजपा को फायदा मिल सकता है। 
 
बिहार में इस समय कुल मतदाताओं में महादलित और दलित मतदाताओं का हिस्सा 16 फीसदी के करीब है। 2010 के विधानसभा चुनाव से पहले तक रामविलास पासवान समूचे दलित समुदाय के बडे नेता माने जाते थे। लेकिन 2005 के  विधानसभा चुनाव में लोजपा ने नीतीश का साथ नहीं दिया था, जिसकी वजह से नीतीश कुमार ने पासवान को कमजोर करने और उनके दलित वोटों में सेंधमारी के लिए एक बड़ा दांव चल दिया था। उन्होंने 22 में से 21 दलित जातियों को  महादलित घोषित कर दिया था। एकमात्र पासवान जाति को इस श्रेणी में शामिल नहीं किया था। 
 
नीतीश कुमार के इस दांव से उस वक्त महादलित मतदाताओं की संख्या 10 फीसदी हो गई थी और पासवान जाति के मतदाताओं की संख्या 4.5 फीसदी रह गई थी। 2009 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार के इस मास्टर स्ट्रोक का असर पासवान के जनाधार पर दिखा था और वे खुद उस चुनाव में हार गए थे। 2014 में पासवान एनडीए में आ गए और नीतीश कुमार एनडीए से अलग हो गए।
2015 का विधानसभा चुनाव पासवान एनडीए रहकर भाजपा के साथ मिलकर लड़े लेकिन उनकी पार्टी बिहार विधानसभा में अपनी उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाई। बाद में नीतीश कुमार भी फिर से एनडीए में आ गए, तो पुराने गिले-शिकवे भूलकर उन्होंने 2018 मे पासवान जाति को भी महादलित वर्ग में शामिल कर दिया।
 
बिहार में इस समय पांच जिले समस्तीपुर, खगड़िया, जमुई, वैशाली और नालंदा में महादलित मतदाताओं की खासी आबादी है। इन जिलों में लोजपा ने उन सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं, जहां जद (यू) भी चुनाव मैदान में है। 
 
इन जिलों में पासवान की पहचान भले ही दलित नेता के तौर पर रही हो लेकिन सवर्ण तबकों में उनकी छवि  नकारात्मक नहीं रही। इसकी बड़ी वजह यह रही कि एक तो उन्होंने अपने आपको बिहार की दिन प्रतिदिन की राजनीति से दूर रखा दूसरे उन्होंने जातिगत वैमनस्य बढ़ाने वाली बयानबाजी से हमेशा परहेज बरता। इसलिए इन जिलों में उनकी मौत से उपजी सहानुभूति जद (यू) के लिए परेशानी का सबब बन सकती है।