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Written By BBC Hindi
Last Updated : गुरुवार, 11 फ़रवरी 2021 (12:35 IST)

मोहम्मद से पैग़ंबर बनने के सफ़र में जिस महिला की रही सबसे बड़ी भूमिका

मोहम्मद से पैग़ंबर बनने के सफ़र में जिस महिला की रही सबसे बड़ी भूमिका - woman who played the biggest role in the journey of Mohammad to Prophet
-मार्गेरिटा रोड्रिग्ज (बीबीसी न्यूज़ मुंडो)
मैनचेस्टर (ब्रिटेन) की एक मस्जिद के इमाम असद जमां मध्य-पूर्व के एक देश (अब सऊदी अरब) में छठी सदी में पैदा हुईं एक महिला ख़दीजा बारे बताते हुए कहते हैं कि ख़दीजा का काफ़ी सम्मान था। वह धनी भी थीं और ताक़तवर भी। तमाम प्रतिष्ठित लोगों ने उनके सामने शादी के प्रस्ताव रखे लेकिन उन्होंने इनमें से अधिकांश को ठुकरा दिया। आख़िरकार उन्होंने दो शादियां कीं। उनके पहले पति का निधन हो गया और माना जाता है कि दूसरे पति से उन्होंने ख़ुद अलग होने का फ़ैसला किया था।
 
इसके बाद उन्होंने तय किया कि अब फिर कभी शादी नहीं करेंगी। लेकिन थोड़े वक्त के बाद उनकी ज़िंदगी में एक तीसरा शख़्स आया, जो उनका आख़िरी पति साबित हुआ। जमां ने बताया, 'ख़दीजा ने उनमें कुछ अद्भुत गुण देखे थे। इसके बाद ही उन्होंने फिर कभी शादी न करने का फ़ैसला बदल दिया था। ख़दीजा ने उस जमाने के चलन के उलट ख़ुद उनका चुनाव कर शादी का प्रस्ताव रखा था। उस वक़्त वह 40 साल की थीं और उनके होने वाले पति 25 साल के। वह एक साधारण परिवार से ताल्लुक रखते थे।
 
लेकिन यह सिर्फ़ एक महिला और पुरुष के बीच प्रेम संबंध का मामला नहीं है। इसका दायरा कहीं बड़ा है। इस रिश्ते से दुनिया के दूसरे सबसे बड़े धर्म का उद्भव जुड़ा है। ख़दीजा के नए पति का नाम था मोहम्मद, जो आगे चलकर इस्लाम के पैग़ंबर बने। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में मध्य-पूर्व के प्राचीन इतिहास के प्रोफ़ेसर रॉबर्ट हॉयलैंड का कहना है कि ख़दीजा के बारे में पूरा ब्योरा मिलना मुश्किल है। ख़दीजा के निधन के काफ़ी साल बाद उनके बारे में कुछ लिखा गया। उनके बारे में जो भी जानकारी है वह इन्हीं स्रोतों पर आधारित है।
 
हालांकि कई स्रोतों से पता चलता है कि वह बंधन में रहना पसंद नहीं करती थीं। वह काफ़ी मज़बूत इरादों वाली महिला थीं। उदाहरण के लिए उन्होंने अपने रिश्तों के भाइयों (कजिन) से शादी करने से इनकार कर दिया था। उनके परिवार में यह परंपरा चली आ रही थी। लेकिन वह ख़ुद अपना जीवनसाथी चुनना चाहती थीं।
 
ख़दीजा एक अमीर सौदागर की बेटी थीं। इस सौदागर ने अपने पुश्तैनी काम को बढ़ाकर एक बड़े कारोबारी साम्राज्य में तब्दील कर दिया था। लेकिन एक युद्ध में पिता की मौत के बाद खदीजा ने ख़ुद आगे बढ़कर इस कारोबारी साम्राज्य की बागडोर संभाल ली।
 
इतिहासकार और लेखिका बेटनी ह्यू बीबीसी की एक डॉक्युमेंटरी में कहती हैं, 'ख़दीजा निश्चित तौर पर अपनी तरह से ज़िंदगी जीना चाहती थीं। वह अपनी राह पर चलती थीं। दरअसल, कारोबार में उनकी जो लियाकत थी, उसने उन्हें एक नई राह दिखाई और आख़िर में इसने दुनिया का इतिहास ही बदल दिया।'
 
ख़दीजा के सहायक
 
ख़दीजा अपना सारा कामकाज़ मक्का (सऊदी अरब) से ही करती थीं। कारोबार के सिलसिले में उन्हें मध्य-पूर्व के देशों में सामान ले जाने वाले कारवां रवाना करने पड़ते थे। यूनिवर्सिटी ऑफ़ लीड्स में इस्लामी इतिहास की प्रोफ़ेसर फौजिया बोरा कहती हैं कि ये कारवां लंबा सफ़र तय करते थे। ये दक्षिणी यमन से लेकर उत्तरी सीरिया तक की राह नापते थे। हालांकि ख़दीजा को काफ़ी सारा धन अपने परिवार से विरासत में मिला था लेकिन उन्होंने ख़ुद भी काफ़ी संपत्ति कमाई थी।
 
बोरा कहती हैं, 'ख़दीजा अपनी ही तरह की विलक्षण कारोबारी थीं। वह अपने फ़ैसले ख़ुद लेती थीं। उनमें ग़ज़ब का आत्मविश्वास था। वह ख़ुद अपने कर्मचारियों का चयन करती थीं। वे ऐसे ख़ास हुनर वाले लोगों को चुनती थीं जो उनका व्यापार बढ़ाने में मददगार साबित हों। अपना कारोबार का कामकाज़ देखने के सिलसिले में उन्हें एक ऐसे शख्स के बारे में पता चला जो बेहद ईमानदार और मेहनती माना जाता था। ख़दीजा से उनकी मुलाक़ात हुई। इस मुलाक़ात से संतुष्ट ख़दीजा ने उन्हें अपने एक कारवां की अगुआई करने के लिए चुन लिया।
 
ख़दीजा उन शख्स की दृढ़ता से बेहद प्रभावित थीं। कारोबार के सिलसिले में ख़दीजा से उनका वास्ता बढ़ता गया। मोहम्मद नाम के उन शख़्स ने ख़दीजा को इतना प्रभावित किया कि आख़िरकार उन्होंने उनसे शादी करने का फ़ैसला कर लिया। इस तरह एक पति के निधन और दूसरे से अलगाव के बाद फिर कभी शादी न करने का फ़ैसला करने वालीं ख़दीजा ने अपना इरादा बदल दिया।'
 
फ़ौजिया बोरा कहती हैं, 'जिन मोहम्मद नाम के शख्स ने उन्हें प्रभावित किया था वह अनाथ थे। मोहम्मद को उनके चाचा ने पाला-पोसा था। ख़दीजा से शादी के बाद उनकी ज़िंदगी में अचानक 'काफ़ी निश्चिंतता और आर्थिक समृद्धि' आ गई। माना जाता है कि इस दंपती की चार संतानें हुईं। लेकिन एक बेटी को छोड़ कर बाक़ी बचपन में ही गुज़र गईं।
 
मुस्लिम इंस्टिट्यूट ऑफ़ लंदन की प्रोफ़ेसर रानिया हफ़ज कहती हैं, ख़दीजा और मोहम्मद का रिश्ता विलक्षण था। उस दौर में जब समाज में बहुविवाह का चलन था तो दोनों का दूसरा कोई रिश्ता नहीं था। हफ़ज कहती हैं, 'सामाजिक दृष्टि से देखें तो यह उस दौर में काफ़ी अहम बात थी क्योंकि उस दौर में पुरुष कई शादियां करते थे।
 
जब ख़दीजा ने मोहम्मद साहब को हौसला दिया
 
मोहम्मद साहब एक क़ुरैश क़बीले में पैदा और बड़े हुए (ख़दीजा भी इसी कबीले में पैदा हुईं थीं।)। उस समय अलग-अलग क़बीले अलग-अलग देवताओं को पूजते थे। बहरहाल, शादी के कुछ साल बाद मोहम्मद साहब के भीतर आध्यात्मिक रुझान पैदा होने लगा। ध्यान करने के लिए वह पक्का के पहाड़ों की ओर चल दिए।
 
इस्लामी मान्यताओं के मुताबिक़ मोहम्मद साहब कोई ईश्वर का संदेश गैब्रियल के ज़रिए हासिल हुआ। यह वही देवदूत था, जिसने ईसा मसीह की मां मैरी को कहा था कि तुम्हीं यीशु को जन्म दोगी। मुस्लिमों के पवित्र धर्मग्रंथ क़ुरान शरीफ़ में मोहम्मद के बारे में यही बताया गया है।
 
कहा जाता है कि मोहम्मद साहब को देवदूत के पहले पैग़ाम का इलहाम हुआ तो उन्हें समझ ही नहीं आया कि क्या किया जाए। वह डर गए। वह समझ ही नहीं पाए उनके साथ यह क्या हो रहा है। फ़ौजिया बोरा कहती हैं, 'उन्हें जो अनुभूति हो रही थी, उसके बारे में वह समझ ही नहीं पा रहे थे, क्योंकि वे एकेश्वरवाद या अद्वैतवाद की संस्कृति में पले-बढ़े नहीं थे। उन्हें वह संदर्भ बिंदु ही नहीं मिल रहा था, जहां से वह अपने साथ हुई घटना का विश्लेषण करें और इसे समझ पाएं।'
 
बोरा कहती हैं, 'मोहम्मद साहब इस पैग़ाम से काफ़ी भ्रमित हो गए थे। इसने उन्हें बेचैन कर दिया था। इस घटना की जानकारी देने वाले कुछ स्रोतों में कहा गया इसे समझना इतना आसान भी नहीं था। हालांकि यह अनुभव कठोर नहीं था फिर भी इसने मोहम्मद साहब को शारीरिक रूप से हिला कर रख दिया।
 
प्रोफ़ेसर हॉयलैंड कहते हैं, 'मोहम्मद साहब ने अपने इस अहसास को सिर्फ़ एक शख़्स को बताया। उस शख्स को जिन पर वह सबसे ज़्यादा विश्वास करते थे। ख़दीजा ने उनकी ये बातें सुनीं और उन्हें शांत किया। उन्हें कहीं न कहीं इस बात का अंदाजा हो रहा था कि मोहम्मद साहब के साथ कुछ अच्छा ही हुआ होगा। उन्होंने अपने पति को आश्वस्त किया। भरोसा दिलाया।
 
ख़दीजा ने इस घटना के बारे में ईसाइयत की जानकारी रखने वाले एक रिश्तेदार से मशविरा किया। माना जाता है कि हजरत मूसा से मोहम्मद साहब को जो संदेश प्राप्त हुआ था वह ख़दीजा के उस रिश्तेदार वराकाह इब्न नवाफुल से जुड़ा था। बोरा कहती हैं, 'नवाफुल को पहले के धर्मग्रंथों की जानकारी थी। लिहाजा ख़दीजा ने मोहम्मद साहब को मिले संदेश की उनसे पुष्टि कर ली।'
 
हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाली इस्लाम की विद्वान लीला अहमद कहती हैं, 'हम सब जानते हैं कि शुरुआत में जब मोहम्मद साहब को उन संदेशों का इलहाम होना शुरू हुआ तो वह ख़ुद संशय में थे। लेकिन ख़दीजा ने उन्हें विश्वास दिलाया। उन्होंने विश्वास दिलाया कि मोहम्मद साहब वास्तव में एक पैग़ंबर हैं।'
 
एक औरत थी दुनिया की पहली मुस्लिम
 
कई विद्वानों इस बात पर सहमत हैं कि चूंकि ख़दीजा पहली शख्स थीं, जिन्हें मोहम्मद साहब ने अपनी अनुभूतियों के बारे में बताया था इसलिए इतिहास में उन्हें पहला मुसलमान माना जाए। एक नए धर्म में दीक्षित होने वाला पहला शख्स। फ़ौजिया बोरा कहती हैं, 'ख़दीजा ने मोहम्मद साहब के संदेश पर भरोसा किया और उसे कुबूल किया।'
 
'मेरा मानना है कि इसने मोहम्मद साहब को हिम्मत दी कि वे अपना संदेश का प्रसार करें। ख़दीजा के भरोसे ने उन्हें यह अहसास कराया उनकी भी कोई आवाज़ है।' इतिहासकार बेटनी ह्यू कहती हैं, इसी मोड़ पर उन्होंने कबीलों के सरदारों को चुनौती देनी शुरू की और सार्वजनिक रूप से यह कहना शुरू किया कि इस दुनिया में सिर्फ़ एक ही ईश्वर है और वह है अल्लाह। किसी दूसरे की उपासना ईश निंदा है।'
 
फ़ौजिया बोरा बताती हैं, 'जब मोहम्मद साहब ने इस्लाम का प्रचार शुरू किया तो मक्का के समाज में एकेश्वरवाद का विरोध करने वाले कई लोगों ने उन्हें हाशिये पर धकेलने की कोशिश की। लेकिन उस वक़्त ख़दीजा ने उनका साथ दिया। उस दौरान उनको जिस समर्थन और संरक्षण की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी वह उन्हें खदीजा से मिला।'
 
ह्यू कहती हैं, 'अगले दस साल तक ख़दीजा ने अपने पति और एक नए पंथ के समर्थन के लिए अपने परिवार के संपर्कों और अपनी संपत्ति का पूरा इस्तेमाल किया। इस तरह उस समय एक ऐसे नए धर्म की स्थापना उस माहौल में हुई जब समाज बहु-ईश्वरवाद में विश्वास करता था।'
 
उदासी का साल
 
ख़दीजा ने अपनी पूरी क्षमता और ताक़त के साथ पति और इस्लाम का समर्थन किया। लेकिन 619 ईस्वी में बीमारी के बाद उनका निधन हो गया। 25 साल के साथ के बाद मोहम्मद साहब अकेले हो गए। वह बुरी तरह टूट चुके थे। प्रोफ़ेसर हॉयलैंड कहते हैं, 'मोहम्मद साहब ख़दीजा की मौत से कभी उबर नहीं पाए।'
 
हॉयलैंड कहते हैं, 'मोहम्मद साहब के वक़्त के स्रोत बताते हैं कि कैसे वह ख़दीजा का ज़िक्ऱ अपने सबसे अच्छे दोस्त के तौर पर करते थे। यहां तक वह उन्हें अपने क़रीबी साथियों अबु बकर और उमर से भी ज़्यादा ऊपर मानते थे।' इतिहासकार बेटनी ह्यू कहती हैं दुनियाभर के मुस्लिम भी ख़दीजा की मौत के साल को 'उदासी का' साल कहते हैं। बाद में मोहम्मद साहब ने फिर शादी ही। इस तरह वह एक से अधिक शादियां करने वाले बन गए।
 
बीबीसी के एक कार्यक्रम में इस्लामी स्कॉलर और ख़दीजा पर बच्चों की एक किताब की लेखिका फातिमा बरकतुल्ला ने कहा कि ख़दीजा के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानकारी हमें हदीस की कहानियों से ही मिलती है। हदीस मोहम्मद साहब के काम और आदतों का वर्णन है।
 
हदीस को सबसे पहले मोहम्मद साहब के अनुयायियों ने ही सुनाना शुरू किया। इन्हें बाद में लिखा गया। हदीस सुनाने वालों में आयशा भी थीं। मोहम्मद साहब की बाद की पत्नियों में वह भी एक थीं। इस्लाम में आयशा को भी अहम जगह मिली है। फ़ातिमा बरकतुल्ला कहती हैं, 'दरअसल, पैग़ंबर आयशा को ख़दीजा के बारे में बताते थे। बाद में आयशा ही बताती थीं कि मोहम्मद साहब को जब पहला संदेश मिला तो वह कैसा महसूस कर रहे थे। वह पैग़ंबर कब बने।' हालांकि आयशा ने मोहम्मद साहब की शुरुआती ज़िंदगी नहीं देखी थी लेकिन उनका मानना था कि दूसरे मुस्लिमों को उनकी ज़िंदगी के बारे में बताना उनका परम कर्तव्य है। मोहम्मद साहब ने उन्हें अपनी ज़िंदगी के बारे में जो बताया है उसकी जानकारी इस्लाम के अनुयायियों को देना उनका काम है।
 
रोल मॉडल
 
फ़ौजिया बोरा के लिए ख़दीजा के इतिहास के बारे में जानना ज़रूरी है। इससे इस मिथक को तोड़ने में मदद मिलती है कि पहले मुस्लिम समुदाय में महिलाओं को घरों तक महदूद रखा जाता था। ख़दीजा जो करना चाहती थीं, उसमें मोहम्मद साहब ने कभी कोई बाधा नहीं डाली। फ़ौजिया कहती हैं कि दरअसल, उस वक़्त इस्लाम ने महिलाओं को ज़्यादा अहमियत और अधिकार दिए।
 
वह कहती हैं, 'एक इतिहासकार और मुस्लिम के तौर पर मेरे लिए ख़दीजा, फातिमा ( मोहम्मद साहब और खदीजा की बेटी) आयशा और उस दौर की महिलाएं मेरी प्रेरणा हैं।' उस दौर में ये महिलाएं बौद्धिक और राजनीतिक तौर पर सक्रिय थीं। उन्होंने इस्लाम का प्रसार करने और इस्लामी समाज को गढ़ने में अहम भूमिका अदा की। फौजिया कहती हैं मेरे लिए यह बहुत बड़ी बात है मैं अपने स्टूडेंट्स को उन महिलाओं के बारे में बताऊं। भले ही वे धर्म में विश्वास नहीं करते हों।'
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