- दिलीप कुमार शर्मा
ऐसी बातों से कितना दुख पहुंचता है, ये दूसरा कोई नहीं समझ सकता। सरकार ने हमारा सम्मान तो किया है लेकिन अब हमें पुलिस और कोर्ट के चक्कर काटने पड़ रहे हैं। विदेशियों को खदेड़ने वाले असम आंदोलन में मेरे पति ने जान दे दी थी। वो लोग मेरे पति का सिर काट कर ले गए थे। दो-तीन दिन बाद बिना सिर का शव मिला था। मेरे पति अखिल असम छात्र संस्था (आसू) के लोगों के साथ देश के लिए शहीद हो गए। उन शहीदों के बलिदान के कारण ही एनआरसी बनी है और पुलिस अब हमें गिरफ़्तार करने की धमकी देती है।
मैंने पुलिस वालों से कहा कि मैं असम आंदोलन में शहीद हुए मदन मल्लिक की पत्नी हूं। सरकार ने हमें मान-पत्र भी दिया है लेकिन पुलिस वालों ने कुछ देखा ही नहीं। पुलिस के लोग कह रहे थे 28 तारीख़ को बेटे को लेकर कोर्ट पहुंच जाना।
ये कहना है 66 साल की सरबबाला सरकार का। अपने पति की शहादत को याद करते हुए सरबबाला जोश से भर जाती हैं लेकिन जैसे ही उनकी नज़र सामने पड़े फ़ॉरेन ट्रायब्यूनल के नोटिस पर पड़ती है, वो डर के मारे रोने लगती हैं। सरबबाला और उनके एक बेटे परितोष को उनकी नागरिकता साबित करने के लिए नगांव ज़िले के फ़ॉरेन ट्रायब्यूनल संख्या-2 से नोटिस भेजा गया है।
असम सरकार की तरफ से दिए गए मान-पत्र और स्मृति चिह्न को दिखाते हुए सरबबाला कहती हैं, 1985 में जब प्रफुल्ल महंत असम के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने हमें 30 हज़ार रुपए और मान पत्र से सम्मानित किया था। छात्र संघ ने गांव में मेरे पति के नाम पर शहीद स्मारक बनवाया।
इसके बाद साल 2016 में मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने पांच लाख रुपए और मान पत्र देकर हमारा सम्मान किया। एक तरफ़ शहीद के परिवार को इतना सम्मान दिया गया और अब हमें अपनी नागरिकता साबित करने के लिए कहा जा रहा है।
आप बताइए, बांग्लादेशी घुसपैठियों के ख़िलाफ़ असम आंदोलन में मेरे पति ने जान गंवाई फिर हम विदेशी कैसे हुए? सरबबाला को वो तारीख़ तो याद नहीं लेकिन वो बताती हैं कि जब उनके पति छात्र संस्था के लोगों के साथ 'अवैध नागरिकों' के ख़िलाफ़ लड़ने गए थे वो मंगलवार का दिन था। वो उस दिन को आज भी भूला नहीं पाई हैं।
वो याद करती हैं, सुबह का समय था। कुछ छात्र नेता मेरे पति को बुलाने आए थे। चारों तरफ़ से गड़बड़ी फ़ैलने की ख़बर आ रही थी। मैंने उन्हें जाने से रोका था लेकिन उन्होंने कहा, ऐसे काम में ख़ुद से जाना चाहिए। ये हमारे देश का सवाल है। इसके बाद वो फिर कभी लौटकर नहीं आए। दो-तीन बाद उनका सिर कटा हुआ शव मिला था।
आपके पति किसके ख़िलाफ़ लड़ने गए थे?
इस पर सरबबाला कहती हैं, असमिया और हिंदू बंगाली एक होकर 'अवैध नागरिकों' को यहां से खदेड़ने गए थे। उन्होंने हमारे घरों में आग लगा दी थी। पति की मौत के बाद मैं अपने चार छोटे-छोटे बच्चों को लेकर महीनों तक शरणार्थी कैंप में रही थी। उसी दौरान हमारे सारे काग़जात जल गए थे। सरकार के पास इसकी पूरी जानकारी है।
सरबबाला का गांव गोसपाड़ा नेली क्षेत्र से महज कुछ किलोमीटर दूरी पर ही था। नेली में 18 फ़रवरी 1983 को भयावह नरसंहार हुआ था जिसे स्वतंत्र भारत का सबसे जघन्य नरसंहार माना जाता है। इस नरसंहार में 2100 से अधिक लोगों की हत्या की गई थी। नेली कांड के कुछ दिन बाद मदन मल्लिक की हत्या की गई थी। इस तरह उस दौरान लंबे समय तक चले असम आंदोलन में 855 आंदोलनकारी मारे गए थे जिन्हें छात्र और राज्य सरकार ने शहीद माना था।
आख़िर मदन मल्लिक के परिवार की नागरिकता पर सवाल क्यों खड़े हो गए हैं?
सरबबाला के मंझले बेटे प्रांतुष अपने पिता के उपनाम में हुई गड़बड़ी को इस परेशानी का कारण मानते हैं। वो कहते हैं, हमारे पिता की मौत के समय हम सब बहुत छोटे थे। मेरी मां भी पढ़ी-लिखी नहीं हैं। छात्र संस्था को लोगों ने मेरे पिता के नाम पर शहीद स्मारक बनवाया था और उसपर उनका उपनाम मल्लिक की जगह सरकार लिख दिया।
बाद में कई काग़जात हमारे पिता का नाम मदन सरकार लिखा गया। उस समय हमें यह मालूम नहीं था कि नागरिकता को लेकर इतनी मुसीबत हो जाएगी और मेरी मां को फ़ॉरेन ट्रायब्यूनल से नोटिस जारी कर दिया जाएगा। असम में भारतीय फौज में काम कर चुके सैनिकों से लेकर हिंदीभाषी प्रदेशों से यहां आकर बसे कई लोगों को भी विदेशी होने के संदेह में नोटिस भेजा जा चुका है। अब घुसपैठियों के ख़िलाफ़ हुए असम आंदोलन में जान गंवाने वाले मदन मल्लिक के परिवार को नोटिस भेजने से लोग बेहद नाराज़ हैं।
बीजेपी विधायक ने भी जताई नाराज़गी
असम में 2016 में पहली बार बनी भारतीय जनता पार्टी सरकार के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने उसी साल असम आंदोलन में शहीद हुए 855 लोगों के प्रत्येक परिवार को पांच लाख रुपये और स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया था लेकिन अब ट्रायब्यूनल नोटिस पर उनकी पार्टी के ही लोग नाराज़गी जता रहे हैं।
इस घटना से बेहद नाराज़ बीजेपी विधायक शिलादित्य देब ने कहा, कितने दुख की बात है कि जिस व्यक्ति ने असम को घुसपैठियों से बचाने के लिए आंदोलन में अपनी जान दे दी उनके परिवार को विदेशी होने के संदेह में नोटिस भेजा गया है। 1979 से 1985 तक जो आंदोलन हुआ उसमें मल्लिक भी शामिल थे।
1983 में जब वो छात्र संघ के किसी कार्यक्रम में भाग लेकर वापस आ रहे थे उस समय उनकी हत्या कर दी। ऐसे में शहीद मदन मल्लिक के परिवार को विदेशी नोटिस कैसे भेज सकते हैं? उनकी बूढ़ी पत्नी को कठघरे में कैसे खड़ा कर सकते हैं? वो बंगाली समुदाय से हैं इसलिए उनके परिवार को विदेशी नोटिस थमाया गया है।
केंद्र और राज्य में आपकी पार्टी की ही सरकार है, आप इन बातों को सरकार के समक्ष क्यों नहीं रखते?
इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, मैंने कई दफ़ा सरकार और पार्टी के समक्ष इन बातों को रखा है। पिछले तीन साल से एनआरसी को लेकर मीडया में सारी बातें स्पष्ट तौर पर कहा रहा हूं। अगर कोई राजनेता अख़बार नहीं पढ़ता तो ये दुर्भाग्य की बात है।
केंद्र सरकार ने असम के लोगों को भरोसा दिलाया कि एनआरसी की फ़ाइनल लिस्ट में जिन लोगों का नाम नहीं आएगा उन्हें अपनी नागरिकता साबित करने का हरसंभव मौका दिया जाएगा। जिनका नाम लिस्ट में नहीं होगा वो फ़ॉरेनर्स ट्रायब्यूनल में 120 दिन के भीतर अपील दायर कर सकेंगे। अखिल असम छात्र संघ के नेता भी मदन मल्लिक के मामले में मानवीय भूल होने की बात कह रहे हैं।
'आसू' के महासचिव लुरिन ज्योति गोगोई कहते हैं, किसी भी भारतीय व्यक्ति का नाम एनआरसी की सूची से नहीं कटेगा। मदन मल्लिक के मामले में मानवीय भूल हुई होगी। लेकिन आपके काग़जात ही सारे सवालों का जवाब हैं। अगर किसी तकनीकी कारण से मल्लिक के परिवार को परेशानी हुई है तो हम उनकी मदद करेंगे। 'आसू' नेता भी एनआरसी के काम में विलंब और कमियों को लेकर राज्य सरकार की भूमिका पर सवाल उठाते हैं।
सरबबाला और उनके बेटे परितोष को नोटिस मिला है
'आसू' के महासचिव गोगोई कहते हैं, एनआरसी का काम कर रहे लोग अंतिम समय पर कोर्ट से दोबोरा वेरिफ़िकेशन का समय मांग रहे थे। अगर ऐसा ही था तो वो एक साल पहले अदालत से यह निवेदन कर सकते थे। इसके अलावा सरकार ने बीते एक साल मे केवल 75 लोगों का नाम फ़ॉरेनर्स ट्रायब्यूनल (एफटी) को भेजा है।
साथ ही सरकार ने एक नोटिस जारी कर कहा है कि फ़िलहाल एफटी में लोगों के नाम भेजने की प्रक्रिया को धीमा रखा जाए। जिन लोगों के पास नागरिकता से जुड़े पर्याप्त दस्तावेज़ नहीं है उनके नाम एफटी को भेजना चाहिए ताकि एनआरसी में ऐसे लोगों का नाम शामिल न हो सके।
असम समझौते की शर्तों के अनुसार बनी नई एनआरसी यहां के मूल लोगों के लिए एक भावुक मुद्दा रहा है।
हालांकि असम आंदोलन में जो 855 शहीद हुए थे उनमें कई हिंदू बंगाली भी थे। 'आसू' और प्रदेश की सत्ता में आने वाली प्रत्येक सरकार इन शहीदों के बलिदान को हर मौके पर याद करती है लेकिन मदन मल्लिक के परिवार की सुध लेने उनके घर पर अब तक कोई नहीं गया है।