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Written By BBC Hindi
Last Updated : मंगलवार, 2 जुलाई 2019 (09:13 IST)

महात्मा गांधी जब ख़ुद लिंच होने से यूं बाल-बाल बचे

महात्मा गांधी जब ख़ुद लिंच होने से यूं बाल-बाल बचे - Mahatma Gandhi Mob Lynching
अव्यक्त
बीबीसी हिंदी के लिए
 
साल 2007 में ओपरा विन्फ्री निर्मित और अकेडमी अवॉर्ड विजेता निर्देशक डेंज़ल वॉशिंगटन की निर्देशित बहुप्रशंसित अमेरिकी फ़िल्म 'दी ग्रेट डिबेटर्स' याद आती है। इस फ़िल्म में दिखाया गया था कि किस तरह काले लोगों के एक कॉलेज की टीम ने 1930 के दशक में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के गोरे घमंडी डिबेटरों की टीम को एक वैचारिक बहस में हराया था, लेकिन आप सोच रहे होंगे कि गांधी और भीड़ की हिंसा के संदर्भ में यह फ़िल्म यहां प्रासंगिक क्यों है?
 
वह इसलिए कि इस फ़िल्म में उस दौरान अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में गोरे अमेरिकीयों की भीड़ से काले अफ्रीकी अमेरिकीयों की जाने वाली हत्या या लिंचिंग का मार्मिक चित्रण किया गया था।
 
लिचिंग के कारुणिक संदर्भ के साये में गोरे अहंबोध से ग्रस्त हार्वर्ड (वास्तविक इतिहास में साऊथ कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय) के डिबेटरों को पराजित कर उनके मानवीय प्रबोधन के लिए काले डिबेटर बार-बार महात्मा गांधी के नाम और विचारों का सहारा लेते हैं।
 
अश्वेत को जिंदा जलाए जाने से जुड़ी चिट्ठी
इस तरह पूरी फ़िल्म में 9 बार लिचिंग का, 11 बार गांधी का नाम लिया जाता है। याद रहे कि उस दौर में महात्मा गांधी यहां भारत में भी ऐसे ही मानवतावादी सवालों पर भारतीयों और ब्रिटिशों का एक साथ सामना कर रहे थे।
 
1931 में ही किसी ने महात्मा गांधी को एक चिट्ठी लिखी जिसमें अमेरिका में किसी काले को भीड़ की ओर से ज़िंदा जला दिए जाने से संबंधित 'लिटरेरी डाइजेस्ट' में छपे समाचार का कतरन भी संलग्न था।
 
पत्र लेखक ने गांधी से कहा कि जब कोई अमरीकी अतिथि या भेंटकर्ता आपसे मिलने आए और आपसे अपने देश के लिए संदेश मांगे तो, आप उन्हें यही संदेश दें कि वे वहां भीड़ से काले लोगों की की जानेवाली हत्याओं को बंद कराएं।
 
14 मई, 1931 को महात्मा गांधी ने इसके जवाब में 'यंग इंडिया' में लिखा, "ऐसी घटनाओं को पढ़कर मन अवसाद से भर आता है। पर मुझे इस बात में तनिक भी संदेह नहीं है कि अमेरिकी जनता इस बुराई के प्रति पूरी तरह से जागरूक है और अमरीकी जन-जीवन के इस कलंक को दूर करने की भरसक कोशिश कर रही है।
 
लिंच-न्याय
आज का अमरीकी समाज बहुत हद तक उस भीड़-हिंसा से सचमुच मुक्त हो चुका है, जिसका नाम ही लिंच-न्याय एक अमरीकी कैप्टन विलियम लिंच की प्रवृत्ति की वजह से पड़ा था।
 
लेकिन उसके 90 साल बाद आज क्या दुर्भाग्य है कि हम भारत में भीड़ से हत्याओं की ऐसी ही प्रवृत्ति और घटनाओं पर चर्चा कर रहे हैं और हमें फिर से गांधी याद आ रहे हैं।
 
क्या संयोग है कि 1931 से 34 साल पहले 13 जनवरी, 1897 को ख़ुद गांधी ही भीड़ के हाथों मारे जाने से किसी तरह बचाए जा सके थे।
 
दक्षिण अफ्रीका के डरबन शहर में लगभग 6000 अंग्रेज़ों की उत्तेजित भीड़ ने महात्मा गांधी को घेर लिया था. वह भीड़ अपने नेता से इस क़दर उत्तेजित कर दी गई थी कि वे गांधी को पीट-पीटकर मार डालना चाहते थे। महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा और अन्य अवसरों पर भी विस्तार से इसका वर्णन किया है।
 
'गांधी को हमें सौंप दो'
पहले तो भीड़ ने गांधी पर पत्थर और सड़े हुए अंडे बरसाए। फिर किसी ने उनकी पगड़ी उछाल दी। उसके बाद लात और घूंसों की बौछार शुरू हुई। गांधी लगभग बेहोश होकर गिर चुके थे। तभी किसी अंग्रेज़ महिला ने ही उनकी ढाल बनकर किसी तरह उनकी जान बचाई।
 
फिर पुलिस की निगरानी में गांधी अपने एक मित्र पारसी रुस्तमजी के घर पहुंच तो गए, लेकिन हज़ारों की भीड़ ने आकर उस घर को घेर लिया।
 
लोग तीखे शोर में चिल्लाने लगे कि 'गांधी को हमें सौंप दो'. वे लोग उस घर को आग लगा देना चाहते थे। अब उस घर में महिलाओं और बच्चों समेत करीब 20 लोगों की जान दांव पर लगी थी।
 
वहां के पुलिस सुपरिंटेंडेंट एलेक्ज़ेंडर गांधी के शुभचिंतक थे जबकि वे ख़ुद भी एक अंग्रेज़ थे। उन्होंने भीड़ से गांधी की जान बचाने के लिए एक अनोखी तरकीब अपनाई।
 
उन्होंने गांधी को एक हिन्दुस्तानी सिपाही की वर्दी पहनाकर उनका रूप बदलवा दिया और किसी तरह थाने पहुंचवा दिया. लेकिन दूसरी तरफ़ भीड़ को बहलाने के लिए वे स्वयं भीड़ से एक हिंसक गाना गवाने लगे. गाने के बोल इस प्रकार थे-
 
'हैंग ओल्ड गांधी
 
ऑन द साउर एप्पल ट्री'
 
इसका हिंदी भावानुवाद कुछ इस प्रकार होगा-
 
'चलो हम बूढ़े गांधी को फांसी पर लटका दें,
 
इमली के उस पेड़ पर फांसी लटका दें।'
 
मूर्खों की भीड़ को बुद्धिमानी से संभाला
इसके बाद जब एलेक्ज़ेंडर ने भीड़ को बताया कि उनका शिकार गांधी तो वहां से सुरक्षित निकल भागा है, तो भीड़ में किसी को ग़ुस्सा आया, कोई हंसा, तो बहुतों को उस बात का यक़ीन ही नहीं हुआ।
 
लेकिन भीड़ के प्रतिनिधि ने घर की तलाशी के बाद जब भीड़ के सामने इस ख़बर की पुष्टि की, तो निराश होकर और मन-ही-मन कुछ ग़ुस्सा होते हुए वह भीड़ फिर बिखर गई।
 
गांधी के जीवन से जुड़ी इस सच्ची घटना में दो बातें ध्यान देने की हैं। पहली यह कि उन्हें मारने वालों की भीड़ भी अंग्रेज़ों की ही थी और उन्हें बचाने वाले लोग भी अंग्रेज़ ही थे।
 
दूसरी बात यह कि अंग्रेज़ पुलिस अधिकारी ने उन्मत्त भीड़ ही हिंसक मानसिकता को पहचानते हुए एक मनोवैज्ञानिक की तरह गांधी को फांसी पर लटकाने वाला वह हिंसक गाना गवाया ताकि हिंसा का वह मवाद मनोरंजक तरीके से उनके दिलो-दिमाग़ से फूटकर बह निकले।
 
उसने दिखाया कि मूर्खों की भीड़ को भी बुद्धिमानी से संभाला जा सकता है और किसी की जान बचाई जा सकती है।
 
स्वयंसेवकों की हुल्लड़बाजियां
विडंबना देखिए कि इस घटना के लगभग 22 साल बाद 10 अप्रैल, 1919 को यह ख़बर फैलने के बाद कि गांधी को गिरफ़्तार कर लिया गया है। अहमदाबाद की एक हिंसक भीड़ ने पूरे शहर में दंगे और आगजनी के दौरान एक अंग्रेज़ को मार डाला और कई अंग्रेज़ों को गंभीर रूप से घायल और अपंग कर दिया।  भीड़ के ग़ुस्से का तात्कालिक कारण यह अफ़वाह भी थी कि गांधी के साथ-साथ अनुसूयाबेन को भी गिरफ्तार कर लिया गया है।
 
गांधी ने जब यह सुना तो वे फफक कर रो पड़े थे। जिस गांधी ने अपने साथ डरबन में हुई भीड़ की हिंसा के बाद पुलिस में रिपोर्ट तक लिखाने से इनकार कर दिया था, उसी की गिरफ्तारी पर भारतीयों की हिंसक भीड़ ने किसी निर्दोष अंग्रेज को मार डाला था। इसलिए भीड़ की इस मानसिकता को गांधी ने एकदम तटस्थ तरीक़े से समझना शुरू किया।
 
गांधीजी ने सार्वजनिक प्रदर्शनों के दौरान भी स्वयंसेवकों की हुल्लड़बाजियां देखी थीं। उनकी सभाओं में अनियंत्रित भीड़ का हंगामा आम बात थी। इसलिए हारकर उन्होंने 8 सितंबर, 1920 को यंग इंडिया में एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था- 'लोकशाही बनाम भीड़शाही'।
 
उन्होंने लिखा- "आज भारत बड़ी तेज़ी से भीड़शाही की अवस्था से गुज़र रहा है. यहां मैंने जिस क्रियाविशेषण का प्रयोग किया है, वह मेरी आशा का परिचायक है। दुर्भाग्यवश ऐसा भी हो सकता है कि हमें इस अवस्था से बहुत धीरे-धीरे छुटकारा मिले, लेकिन बुद्धिमानी इसी में है कि हम हरसंभव उपाय का सहारा लेकर इस अवस्था से जल्दी से जल्दी छुटकारा पा लें।
 
'भीड़ की मनमानी राष्ट्रीय बीमारी का लक्षण'
महात्मा गांधी ने सामूहिक हिंसा के दो रूप पहचाने थे- पहली, सरकार की हिंसा और दूसरी भीड़ की हिंसा. 23 फ़रवरी, 1921 को यंग इंडिया में गांधी लिखते हैं- "सरकारी आतंकवाद की तुलना में जनता (भीड़) का आतंकवाद लोकतंत्र की भावना के प्रसार अधिक बाधक होता है। क्योंकि सरकारी आतंकवाद (जैसे डायरवाद) से लोकतंत्र की भावना को बल मिलता है जबकि जनता (भीड़) का आतंकवाद लोकतंत्र का हनन करता है।
 
इससे पहले भी 28 जुलाई, 1920 को यंग इंडिया में गांधी ने लिखा था, 'मैं ख़ुद भी सरकार की उन्मत्तता और नाराज़गी की उतनी परवाह नहीं करता जितनी भीड़ के क्रोध की। भीड़ की मनमानी राष्ट्रीय बीमारी का लक्षण है. सरकार तो आख़िरकार एक छोटा सा संगठनमात्र है। जिस सरकार ने अपने आपको शासन के लिए अयोग्य सिद्ध कर दिया हो, उसे उखाड़ फेंकना आसान है, लेकिन किसी भीड़ में शामिल अज्ञात लोगों के पागलपन का इलाज ज्यादा कठिन है।'
 
हालांकि सितंबर 1920 वाले आलेख में गांधी ने अपने विचार पर पुनर्विचार करते हुए लिखा- "मेरे संतोष का कारण यह है कि भीड़ को प्रशिक्षित करने से ज़्यादा आसान काम और कोई नहीं है। कारण सिर्फ़ इतना ही है कि भीड़ विचारशील नहीं होती। वह तो आवेश के अतिरेक में कोई काम कर गुज़रती है और जल्दी ही पश्चाताप भी करने लगती है। अलबत्ता हमारी सुसंगठित सरकार पश्चाताप नहीं करती- जालियांवाला, लाहौर, कसूर, अकालगढ़, रामनगर आदि स्थानों पर किए गए अपने दुष्टतापूर्ण अपराधों के लिए खेद प्रकट नहीं करती. लेकिन गुजरांवाला की पश्चाताप करती हुई भीड़ की आंखों में मैंने आंसू ला दिए हैं. और अन्यत्र भी मैं जहां कहीं गया, वहां अप्रैल के उस घटनापूर्ण महीने में भीड़ में शामिल होकर शरारत करनेवाले (अमृतसर और अहमदाबाद में भीड़ द्वारा दंगा और अंग्रेजों की हत्या करनेवाले) लोगों से मैंने खुलेआम पश्चाताप करवाया है।"
 
दलील दी जा सकती है कि अब हमारे बीच गांधी जैसे लोग नहीं हैं जो किसी भी भीड़ को अपनी नैतिक आवाज़ से क़ाबू करने की क्षमता रखते हैं।
 
हमारे बीच नेहरू जैसे लोग नहीं हैं जो संभावित दंगाइयों की भीड़ में अकेले कूद जाएंगे। हमारे बीच लोहिया जैसे लोग नहीं हैं जो एक मुस्लिम युवक को बचाने के लिए दिल्ली में भीड़ से अकेले टकरा जाएंगे।
 
हमारे बीच विनोबा जैसे संतमना लोग भी नहीं हैं जिनके आगे दुर्दांत माने जानेवाले बागी अपने हथियार डाल देंगे.
 
लेकिन जैसा कि 22 सितंबर, 1920 को गांधी ने 'यंग इंडिया' में लिखा था, "केवल थोड़े से बुद्धिमान कार्यकर्ताओं की ज़रूरत है. वे मिल जाएं तो सारे राष्ट्र को बुद्धिपूर्वक काम करने के लिए संगठित किया जा सकता है और भीड़ की अराजकता की जगह सही प्रजातंत्र का विकास किया जा सकता है।"
 
बस एक समस्या है कि ख़ुद सरकारें ऐसे कार्यकर्ताओं को ही देशद्रोही कहकर उन पर झूठे मुक़दमें न करने लगें या अपने छल-बल-कल से डराने-धमकाने न लगें। दूसरी तरफ़ ऐसे कार्यकर्ताओं को भी अपनी वाणी और अपने व्यवहार से व्यापक समाज का भरोसा जीतना होगा।
 
'द क्विंट' की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2015 से अब तक भारत में 94 लोगों की हत्या भीड़ ने की है। मृतकों में हालांकि सभी धर्मों, जातियों के लोग शामिल हैं, लेकिन फिर भी कुछ सामान्य प्रवृत्तियां समझ में आ रही हैं जिसमें कुछ ख़ास समुदाय निशाने पर आते दिखते हैं।
 
लेकिन ध्यान रहे कि जिस अमेरिका में शुरुआत में केवल काले अफ्रीकी अमेरिकी ही भीड़हिंसा के शिकार हुए, वहीं बाद में यह एक सामाजिक प्रवृत्ति बन गई और श्वेत अमेरिकी भी इसका शिकार होने लगे।
 
अमरीका स्थित 'नेशनल एसोसिएशन फॉर दी एडवांसमेंट ऑफ कलर्ड पीपुल' के एक आंकड़े के मुताबिक़ सन् 1882 से 1968 तक अमेरिका में 4,743 लोगों की हत्या भीड़ द्वारा की गई, लेकिन लिंचिंग के शिकार लोगों में जहां 3,446 अश्वेत अफ्रीकी अमेरिकी थे, वहीं 1,297 श्वेत लोग भी थे। 
 
कहने का मतलब यह कि एक बार जब किसी नस्लवादी या सांप्रदायिक भीड़ को सामुदायिक शह और सामाजिक वैधता हासिल हो जाती है, तो वह कभी भी किसी के भी ख़िलाफ़ शंका या द्वेष के आधार पर हिंसा करने लगती है।
 
'भीड़ का शासन'
भीड़-न्याय की प्रवृत्ति से सबसे अधिक नुक़सान 'क़ानून का शासन' या 'रूल ऑफ लॉ' का होता है। कोई भी समाज सैकड़ों वर्षों के सामाजिक-राजनीतिक प्रबोधन के बाद इसे हासिल करता है. लेकिन भीड़-न्याय की प्रवृत्ति एक सामाजिक बीमारी की तरह फैलती है और उसका शिकार फिर कोई भी कहीं भी होने लगता है। क़ानून के शासन की जगह परोक्ष रूप से 'भीड़ का शासन' स्थापित होने लगता है।
 
विभिन्न हृदय-विदारक घटनाओं से उद्वेलित होकर फौरी न्याय के लिए आरोपितों को चौराहे पर फांसी लटकाने वाली भावना भी वास्तव में भीड़-न्याय की ही छिपी हुई प्रवृत्ति है, जिसे समझना होगा।
 
यह भी समझना होगा कि समाज में यह पुकार इसलिए मचती है क्योंकि हमारी पुलिसिया और अदालती न्याय-व्यवस्था पर से लोगों का विश्वास उठता जा रहा है। 
 
लेकिन इससे अलग जो भीड़वादी या अन्यद्वेषी मानसिकता किसी तबरेज़ या मोहशीन को या किसी बिक्की श्रीनिवास या मानजी जेठा सोलंकी को पीट-पीटकर मार डालने जैसी घटनाओं पर मन-ही-मन यह सोचता है कि इससे अमुक धर्म, जाति या विचारधारा की जीत हुई, अमुक भगवान की श्रेष्ठता साबित हुई, तो वे यह भूल जाते हैं कि वे ख़ुद अपने लिए भी वैसी ही मौत चुन रहे हैं। जाने-अनजाने वे अपने मासूम बच्चे-बच्चियों को भी संभावित भीड़-न्याय के हवाले ही कर रहे हैं।
 
आज का 'न्यू इंडिया'
महात्मा गांधी ने जब चौरी-चौरा की भीड़हिंसा (जिसमें 22 पुलिसकर्मियों को जिंदा जला दिया गया था) के बाद असहयोग आंदोलन जैसे सफल आंदोलन को भी तुरंत स्थगित कर दिया था, तो अच्छे-अच्छे प्रबुद्ध लोगों तक ने उनकी घनघोर आलोचना की थी।
 
लेकिन गांधी जानते थे कि भीड़ हिंसा चाहे कि किसी भी परिस्थिति में या किसी भी उद्देश्य से की गई हो, उसे न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि इसका दूरगामी असर समाज में हिंसक भीड़-न्याय की वैधता स्थापित होने के रूप में ही होता है।
 
एक आज का 'न्यू इंडिया' है जहां कोई गोरक्षा के नाम पर तो कोई किसी अन्य सामाजिक, राजनीतिक और सांप्रदायिक विद्वेष के वश भीड़हिंसा को अंजाम दे रहा है. देश का युवावर्ग बेरोज़गारी, असंतोष, निराशा, हताशा, भटकावों, सांप्रदायिक मूढ़ता और ज़ेनोफोबिया का इस कदर शिकार हो गया है कि व्हॉट्सएप पर फैलाई गई झूठी अफ़वाहों को भी बिना सोचे-समझे सच मानकर भीड़ हिंसा कर रही है।
 
एक रिपोर्ट के मुताबिक़ एक जनवरी, 2017 से 5 जुलाई, 2018 के बीच 69 दर्ज मामलों में केवल बच्चा-चोरी की अफ़वाह की वजह से 33 लोग भीड़ के हाथों मारे जा चुके हैं और 99 लोग पीट-पीटकर अधमरे किए जा चुके हैं।
 
गांधी ने इसे राष्ट्रीय बीमारी कहा और इसका कोई दूरगामी इलाज करने के बजाय स्थानीय प्रशासकों से लेकर देश के मुखिया तक केवल जबानी जमाखर्च से काम चला रहे हैं।
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