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Written By BBC Hindi
Last Modified: शनिवार, 14 अगस्त 2021 (07:43 IST)

अफगानिस्तान में तालिबान की जीत को रोकना क्या अब नामुमकिन है?

अफगानिस्तान में तालिबान की जीत को रोकना क्या अब नामुमकिन है? - Is it not possible to stop taliban win in Afghanistan
जोनाथन बील, रक्षा संवाददाता, बीबीसी न्यूज़
अफगानिस्तान में तालिबान जिस रफ़्तार से नए इलाक़ों को अपने कब्ज़े में ले रहा है, उसे कई लोग हैरत भरी नज़र से देख रहे हैं। सूबों की राजधानियां तालिबानी लड़ाकों के सामने ताश के पत्तों की तरह बिखर रही हैं।
 
इसमें कोई दो राय नहीं कि हवा का रुख़ फ़िलहाल तालिबान की तरफ़ है जबकि दूसरी तरफ़ अफ़ग़ान हुकूमत सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए संघर्ष करती हुई दिख रही है।
 
इसी हफ़्ते अमेरिकी खुफिया विभाग की एक लीक हुई रिपोर्ट में ये अनुमान लगाया गया था कि आने वाले हफ़्तों में राजधानी काबुल तालिबान के हमले की जद में आ सकता है और मुल्क की हुकूमत 90 दिनों के भीतर ढह सकती है।
 
तो ऐसे में ये सवाल उठता है कि अफ़ग़ान सुरक्षा बलों की ये हक़ीक़त इतनी जल्दी कैसे उजागर हो गई? अमेरिका, ब्रिटेन और नेटो के उसके सहयोगी देशों ने पिछले 20 सालों में काफ़ी समय अफ़ग़ान सुरक्षा बलों को ट्रेनिंग देने में खर्च किया था।
 
अमेरिका और ब्रिटेन के न जाने कितने ही आर्मी जनरलों ने ये दावा किया कि उन्होंने एक सशक्त और ताक़तवर अफ़ग़ान फौज तैयार की है। ये वादे और दावे अब खोखले दिख रहे हैं।
 
तालिबान की ताक़त
सैद्धांतिक रूप से देखें तो अफ़ग़ान हुकूमत का पलड़ा अब भी भारी लगना चाहिए। उसके पास ज़्यादा बड़ी फौज है। कागज़ पर कम से कम उसके पास तीन लाख से ज़्यादा सैनिक हैं। इसमें अफ़ग़ान आर्मी, एयरफोर्स और पुलिस के जवान शामिल हैं।
 
लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू ये है कि अफगानिस्तान में फौज में भर्ती के लक्ष्य को पूरा करने में हमेशा ही परेशानियां पेश आती रही हैं। अतीत में झांककर देखने पर पाएंगे कि अफ़ग़ान फौज और पुलिस को कई बार जान-माल का बड़ा नुक़सान उठाना पड़ा है।
 
लोग नौकरी छोड़कर चले जाते हैं और भ्रष्टाचार का मुद्दा अलग से है। कुछ समय पहले ऐसे सैनिकों के नाम पर वेतन उठाने का मामला सामने आया था, जिनका हक़ीक़त में कोई वजूद ही नहीं था।
 
अमेरिकी कांग्रेस में पेश की गई अपनी हालिया रिपोर्ट में 'स्पेशल इंस्पेक्टर जनरल फ़ॉर अफगानिस्तान' (एसआईजीएआर) ने 'भ्रष्टाचार से होने वाले नुक़सान को लेकर गंभीर चिंता जताई' थी। इस रिपोर्ट में अफ़ग़ान आर्मी की वास्तविक ताक़त को लेकर दिए जा रहे आँकड़ों की सच्चाई पर भी सवाल उठाया गया था।
 
सिक्यॉरिटी और डिफेंस सेक्टर के जाने-माने थिंकटैंक 'रॉयल यूनाइटेड सर्विसेज़ इंस्टिट्यूट' (आरयूएसआई) के जैक वाटलिंग का कहना है कि ये बात अफ़ग़ान आर्मी को भी ठीक से मालूम नहीं है कि उनकी फौज में असल में कितने सैनिक हैं।
 
इसके अलावा उनका कहना है कि समस्याएं अफ़ग़ान फौज के हौसले और हथियारों के रखरखाव को लेकर भी हैं। सैनिकों को अक्सर ही ऐसे इलाक़ों में तैनात कर दिया जाता है, जहाँ उनके कबीले और खानदान का कोई जुड़ाव नहीं होता है।
 
बहुत से सैनिक बिना लड़े ही अपना मोर्चा छोड़ देते हैं, इसकी एक वजह ये भी है। दूसरी तरफ़, तालिबान की ताक़त का अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है। अमेरिकी सेना के 'कॉम्बैटिंग टेररिज़म सेंटर' का अनुमान है कि अफ़ग़ान फौज के पास मुख्य रूप से 60,000 लड़ाके ही हैं।
 
अन्य सशस्त्र गुटों और उनके समर्थकों को मिलाकर देखें तो ये संख्या दो लाख से ज़्यादा हो सकती है। लेकिन ब्रिटिश आर्मी के पूर्व अधिकारी डॉक्टर माइक मार्टिन इस बात को लेकर आगाह करते हैं कि तालिबान को एक ही नस्ल के लोगों का संगठन नहीं समझा जाना चाहिए।
 
पश्तो भाषा के जानकार माइक मार्टिन अपनी किताब 'एन इंटीमेट वॉर' में हेलमंद के संघर्ष के इतिहास पर पड़ताल कर चुके हैं। उनका कहना है कि तालिबान कुछ हद तक ऐसे खुदमुख़्तार लड़ाका गुटों के गठबंधन की तरह है जो अस्थायी रूप से एक दूसरे से जुड़े होते हैं।
 
वो इस ओर भी ध्यान दिलाते हैं कि अफ़ग़ान हुकूमत भी स्थानीय गुटों में बंटी हुई है। अफगानिस्तान का इतिहास इस बात का गवाह है कि वजूद पर ख़तरा मंडराने पर किस तरह से कुनबों, कबायलियों और यहां तक कि सरकारों ने भी अपनी वफ़ादारियां बदलीं।
 
हथियारों तक पहुंच
पैसे और हथियारों के लिहाज से देखें तो एक बार फिर अफ़ग़ान हुकूमत का पलड़ा भारी होना चाहिए था। सैनिकों के वेतन और हथियारों के लिए अफ़ग़ान हुकूमत को अरबों डॉलर की रक़म दी गई। इसमें से ज़्यादातर पैसा अमेरिका ने दिया।
 
जुलाई, 2021 की रिपोर्ट में 'स्पेशल इंस्पेक्टर जनरल फ़ॉर अफगानिस्तान' ने बताया कि अफगानिस्तान की सुरक्षा पर 88 अरब डॉलर से भी ज़्यादा की रक़म खर्च की जा चुकी है।
 
लेकिन इसी रिपोर्ट में यह भी लिखा गया है कि "ये रक़म ठीक से खर्च की गई है या नहीं, इस सवाल का जवाब अफगानिस्तान में चल रही लड़ाई के नतीज़ों से मिल जाएगा।"
 
अफगानिस्तान के एयरफ़ोर्स को मैदान-ए-जंग में महत्वपूर्ण मदद देनी चाहिए थी। लेकिन वो लगातार अपने 212 लड़ाकू विमानों के रखरखाव को लेकर ही संघर्ष कर रहा है। तालिबान जानबूझकर उसके पायलटों को टारगेट कर रहा है।
 
अफ़ग़ान एयरफोर्स मोर्चे पर लड़ रहे अपने कमांडरों का साथ देने अब तक नाकाम रहा है। लश्कर गाह जैसे शहरों में जब तालिबान ने अपना शिकंज़ा कसना शुरू किया तो अमेरिकी एयरफोर्स ने अफ़ग़ान आर्मी की जवाबी कार्रवाई में उनका साथ दिया।
 
तालिबान की कमाई
लेकिन अभी ये साफ़ नहीं है कि अमेरिका और कब तक मोर्चे पर मदद करता रहेगा। तालिबान की कमाई का बड़ा ज़रिया ड्रग्स के कारोबार से होने वाली आमदनी है। लेकिन उन्हें बाहर से भी मदद मिलती है। और ये मदद उन्हें पाकिस्तान की ओर से मिलती है।
 
हाल ही में तालिबान ने अफ़ग़ान सुरक्षा बलों से बख़्तरबंद गाड़ियां, अंधेरे में देखने के काम आने वाले दूरबीन, मशीन गन, मोर्टार और गोलाबारूद ज़ब्त की थी। इनमें से कुछ उन्हें अमेरिका ने मुहैया कराए थे।
 
सोवियत संघ के हमले के बाद अफगानिस्तान में अचानक हथियारों की बाढ़ आ गई थी। इनमें से कई हथियार आज भी इस्तेमाल होते हैं। तालिबान पहले ही ये साबित कर चुका है कि उसके जैसी अपारंपरिक फौज किसी प्रशिक्षित और बेहतर टेक्नॉलॉजी और हथियारों से लैस सेना को हरा सकती है।
 
अमेरिकी और ब्रितानी सेना को आईईडी धमाकों से जो नुक़सान हुआ है, उसकी कहानियां हमारे सामने हैं। ज़मीनी हालात की बेहतर समझ का उन्हें हमेशा से फ़ायदा मिला है।
 
उत्तर और पश्चिम पर नज़र
तालिबान की लड़ाई के तौर-तरीक़ों में एक तरह की बेक़रारी देखी गई है। लेकिन कुछ जानकारों का कहना है कि हाल में वे जिस तरह से आगे बढ़े हैं, उससे ये लगता है कि वे योजना बनाकर उस पर अमल कर रहे हैं।
 
ब्रिटिश आर्मी के पूर्व ब्रिगेडियर और थिंकटैंक इंस्टिट्यूट ऑफ़ स्ट्रैटिजिक स्टडीज़ के सीनियर फ़ेलो बेन बैरी ये स्वीकार करते हैं कि तालिबान की बढ़त से भले ही ये लगे कि उसने मौक़े का अच्छे से फ़ायदा उठाया है।
 
लेकिन वे ये भी कहते हैं कि "अगर आपको जंग की योजना बनाने के लिए कहा जाए तो इससे बेहतर प्लान पेश करना मुश्किल होता।"
 
वे इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि तालिबान ने उत्तर और पश्चिमी इलाक़ों में अपने हमले तेज़ कर दिए हैं जबकि दक्षिणी क्षेत्रों में पारंपरिक रूप से वो मज़बूत रहा है। इसी रणनीति के कारण अफ़ग़ान सूबों की राजधानियां वो एक-एक करके फतह करता जा रहा है।
 
तालिबान ने कई प्रमुख सीमा चौकियों पर भी अपना नियंत्रण हासिल कर लिया है। इससे पहले से ही राजस्व के संकट से जूझ रही अफ़ग़ान हुकूमत की कमाई का एक रास्ता बंद हो गया है।
 
वे प्रमुख अधिकारियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को भी चुन-चुनकर निशाना बना रहे हैं। पिछले 20 सालों में जो छोटे-छोटे बदलाव हुए थे, उसे आहिस्ता-आहिस्ता ख़त्म किया जा रहा है।
 
लेकिन अफ़ग़ान सरकार की तालिबान को लेकर जो रणनीति है, उसे समझना भी लगातार मुश्किल होता जा रहा है। तालिबान के कब्ज़े वाले इलाकों को वापस अपने नियंत्रण में लेने का उनका वादा अब खोखला लगने लगा है।
 
बेन बैरी कहते हैं कि ऐसा लगता है जैसे बड़े शहरों पर नियंत्रण बनाए रखने की योजना पर काम किया जा रहा है। हेलमंद के लश्कर गाह में अफ़ग़ान कमांडरों को पहले ही तैनात किया जा चुका है।
 
ये जंग और कितने दिन जारी रहेगी?
अफ़ग़ान स्पेशल फोर्स के सैनिकों की संख्या तुलनात्मक रूप से कम है। उनके पास लगभग दस हज़ार सैनिक हैं। लेकिन उनका पहले ही इतना इस्तेमाल किया जा चुका है कि वे थके हुए हैं।
 
लड़ाई मैदान-ए-जंग के बाहर भी लड़ी जाती है। और ऐसा लगता है कि तालिबान प्रोपेगैंडा वॉर में बढ़त बना चुका है। लोग ये मानने लगे हैं कि तालिबान अफगानिस्तान की सत्ता से ज़्यादा दूर नहीं है।
 
बेन बैरी का कहना है कि मैदान-ए-जंग से जो हवा बह रही है, उससे तालिबान के हौसले बुलंद हैं और वे एक होकर लड़ रहे हैं। इसके ठीक उलट, अफ़ग़ान हुकूमत कदम वापस खिंचते हुई दिख रही है, उसमें अंतर्कलह है और उसे अपने जनरलों को निष्कासित करना पड़ रहा है।
 
आख़िर में क्या होगा?
इसमें कोई शक नहीं कि काबुल में बैठी हुकूमत के लिए हालात हाथ से निकलते हुए दिख रहे हैं। लेकिन आरयूएसआई के जैक वाटलिंग का कहना है कि अफ़ग़ान फौज में भले ही हताशा का एहसास बढ़ रहा हो लेकिन "राजनीति के रास्ते हालात अभी भी संभाले जा सकते" हैं।
 
उनका कहना है कि अगर सरकार कबायली नेताओं का भरोसा जीत ले तो हालात को और बिगड़ने से रोका जा सकता है। माइक मार्टिन भी जैक वाटलिंग की बात से सहमत हैं। वे कहते हैं कि मज़ार-ए-शरीफ़ में वॉरलॉर्ड अब्दुल रशीद दोस्तम की वापसी एक अहम घटना है। उनके आने से चीज़ें बदली हैं।
 
अफगानिस्तान में जल्द ही जंग और गर्मियों का मौसम ख़त्म हो जाएगा। सर्दियां लड़ाई के लिहाज से माकूल नहीं मानी जाती हैं। ये अब भी मुमकिन है कि अफगानिस्तान में साल के आख़िर तक हालात संभल जाएं और काबुल और कुछ बड़े शहरों पर अफ़ग़ान हुकूमत का नियंत्रण बना रह जाए।
 
और अगर तालिबान में ही कोई टूट हो जाए तो हवा का रुख मुड़ सकता है। लेकिन अभी जो हालात हैं, उससे तो यही लगता है कि अफगानिस्तान में शांति, सुरक्षा और स्थिरता लाने की अमेरिका और नेटो की कोशिश अतीत में सोवियत संघ की तरह ही बेकार हो रही है।
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