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Written By BBC Hindi
Last Updated : शनिवार, 30 मई 2020 (15:54 IST)

मोदी सरकार 2.0 के मैन ऑफ़ द मैच हैं अमित शाह?

Amit Shah | मोदी सरकार 2.0 के मैन ऑफ़ द मैच हैं अमित शाह?
रेहान फ़ज़ल (बीबीसी संवाददाता)
 
एक बार 2019 के चुनाव से पहले अमित शाह से पूछा गया था कि क्या बीजेपी लोकसभा चुनाव के लिए तैयार है? क्या उसे मतदाताओं का सामना करने में डर लग रहा है? अमित शाह ने तपाक से जवाब दिया था, 'हमने 27 मई 2014 से ही 2019 के चुनाव की तैयारी शुरू कर दी थी।'
 
शतरंज के शौकीन अमित शाह को हमेशा से ही रणनीति बनाकर अपने प्रतिद्वंद्वियों को मात देने में मज़ा आता रहा है। अमित शाह के काम करने का तरीक़ा उन्हें 'टिपिकल' नेताओं से अलग करता है।
अनिर्बान गांगुली और शिवानंद द्विवेदी अमित शाह की जीवनी 'अमित शाह एंड द मार्च ऑफ़ बीजेपी' में लिखते हैं, 'एक बार अमेठी में जगदीशपुर के दौरे में अमित शाह ने आख़िरी मिनट पर बीजेपी कार्यकर्ताओं की बैठक बुला ली। ये बैठक वनस्पति घी बनाने वाली एक कंपनी के गोदाम में बुलाई गई थी क्योंकि उस समय वहां कोई दूसरी जगह उपलब्ध नहीं थी। बैठक सुबह 2 बजे तक चली।'
 
'बीजेपी के स्थानीय नेताओं ने अमित शाह के ठहरने की कोई व्यवस्था नहीं की थी क्योंकि वो मानकर चल रहे थे कि शाह बैठक ख़त्म होते ही लखनऊ वापस चले जाएंगे लेकिन शाह ने उस रात उसी गोदाम में रुकने का फ़ैसला किया।'
 
'वो सीढ़ियों पर चढ़े। अपने लिए एक जगह खोजी और कुछ घंटों के लिए लेट गए। उनकी देखा-देखी बीजेपी के दूसरे नेता भी जिसे जहां जगह मिली पसर गए। बीजेपी के स्थानीय कार्यकर्ताओं को ये विश्वास ही नहीं हुआ कि उनकी पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष एक गोदाम की टिन की छत के नीचे बिना किसी परेशानी के रात बिता सकता है।'
मोदी के जनरल अमित शाह
 
2019 का चुनाव जीतते ही जिस अंदाज़ में पार्टी मुख्यालय में अमित शाह ने नरेन्द्र मोदी का स्वागत किया था उससे ही अंदाज़ा हो गया था कि अब वो मोदी के शिष्य के दर्जे से ऊपर उठकर उनके जनरल की श्रेणी में आ चुके हैं।
 
शाह को राजनाथ सिंह की जगह गृहमंत्री बनाया गया था। राजनाथ सिंह ने इस फ़ेरबदल को पसंद नहीं किया था, ख़ासतौर से ये देखते हुए कि उनकी नज़र में उन्होंने अपने मंत्रालय को सुचारू रूप से चलाने में कोई कसर नहीं रख छोड़ी थी।
 
अमित शाह को गृह मंत्रालय की ज़िम्मेदारी देने भर से ही संकेत मिल गया था कि बीजेपी के चुनाव घोषणापत्र में आरएसएस के एजेंडे को अमली जामा पहनाने के लिए ये ज़िम्मेदारी उन्हें दी जा रही है।
 
इस एजेंडे में शामिल था कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 को निरस्त करवाना, राम मंदिर मुद्दे का हल निकलवाना, ग़ैर-क़ानूनी ढंग से भारत में घुसने वाले बांग्लादेशियों को रोकने के लिए नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न बनवाना और नागरिकता क़ानून में संशोधन कर पड़ोसी देशों के हिंदू शरणार्थियों को भारत की नागरिकता प्रदान करवाना।
कश्मीर पर फ़ैसला
 
धारा 370 निरस्त करने का विचार नरेन्द्र मोदी के मन में पुलवामा हमले के तुरंत बाद आया था लेकिन उन्होंने ऐसा इसलिए नहीं किया क्योंकि उनके विरोधी उन पर आरोप लगा सकते थे कि वो ऐसा चुनाव जीतने के लिए कर रहे हैं। शाह ने गृह मंत्रालय का कार्यभार संभालने के बाद कश्मीर पर हर उपलब्ध फ़ाइल पढ़ी और फिर मोदी को इस बारे में अगला क़दम उठाने की सलाह दी।
 
दोनों ने इस पर अपने नज़दीकी सलाहकारों से चर्चा की और ये फ़ैसला किया गया कि न सिर्फ़ कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 को समाप्त किया जाएगा बल्कि जम्मू-कश्मीर को दो भागों में विभाजित कर केंद्र शासित प्रदेश बना दिया जाएगा। अमित शाह ने इसके लिए बाक़ायदा होमवर्क किया। अमरनाथ यात्रा को बीच में ही रोका गया और घाटी के चोटी के नेताओं और तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों को हिरासत में ले लिया गया।
 
जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक और बीजेपी नेतृत्व को क़रीब से जानने वाले राम बहादुर राय कहते हैं, 'अमित शाह की कार्यशैली है कि वो एक लक्ष्य निर्धारित करते हैं और योजना बनाकर उसको पूरा करने में जुट जाते हैं। उनके इस क़दम का घाटी में भले ही विरोध हुआ लेकिन शेष भारत में वो ये संदेश देने में सफल हो गए कि ये समस्या पहले की सरकारों की नालायकी की वजह से चल रही थी और उसको उन्होंने पटरी पर ला दिया है।'
 
कश्मीर में ही अमित शाह ने एक और बड़ा क़दम उठाया है जिसकी तरफ़ लोगों का ध्यान अभी नहीं गया है, वो है कश्मीर की पंचायतों का सशक्तीकरण करना। अमित शाह ने गृहमंत्री बनने के बाद जम्मू-कश्मीर के पंचायत क़ानूनों को बदलवाया और अब जम्मू-कश्मीर संभवत भारत का पहला राज्य बन गया है जिसके पास 29 में से 23 विषयों पर काम करने के लिए फ़ंड और कर्मचारी हैं।
 
पंचायत को अपने फ़ैसले करने का पूरा अधिकार है और इसके लिए उसे किसी कलक्टर या कमिश्नर की मंज़ूरी नहीं लेनी है। नतीजा ये हुआ है कि वहां पंचायतें अपने निर्णय से काम कर रही हैं और राजनेताओं की भूमिका संकुचित हो गई है। लेकिन अमित शाह का असली इम्तेहान तब होगा जब वो जम्मू और कश्मीर के पुनर्गठन की प्रक्रिया को जो कि अभी जारी है किस तरह का रूप देने में सफल होते हैं।
नागरिकता संशोधन क़ानून
 
शाह का दूसरा बड़ा कदम था नागरिकता संशोधन एक्ट को लागू करना। देश के अधिक्तर हिस्सों में इसका इस आधार पर विरोध हुआ कि इसमें सिर्फ़ पड़ोसी देशों के हिंदुओं को नागरिकता देने की बात कही गई। पूरे देश में मचे हाहाकार के बाद शाह का जवाब था कि 'इससे मुसलमानों को परेशान होने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि इस विधेयक का उद्देश्य नागरिकता लेना नहीं बल्कि नागरिकता देना है।'
 
समाचार पत्रिका इंडिया टुडे के संपादक राज चेंगप्पा लिखते हैं, 'इस बिल को पास कराने से पहले गृहमंत्री अमित शाह ने न तो लोगों खासकर अल्पसंख्यकों को विश्वास में लिया और न ही इसके लिए उनको तैयार किया जैसा कि अयोध्या मामले में उन्होंने किया।'
 
राम बहादुर राय कहते हैं, 'अव्वल तो इस बिल के बारे में लोगों को जागरूक नहीं किया गया और दूसरे बिना किसी संप्रदाय का उल्लेख किए हुए भी ये बिल लाया जा सकता था। ये उसी तरह से काम करता जिस तरह से आप चाहते थे। इससे बिना वजह लोगों को नरेन्द्र मोदी सरकार के ख़िलाफ़ एक मुद्दा मिल गया। अमित शाह से एक जगह चूक उस समय भी हुई जब उन्होंने अपने एक भाषण में सीएए को एनआरसी से जोड़ दिया और प्रधानमंत्री को रामलीला मैदान में सभा करके ये सफ़ाई देनी पड़ी कि एनआरसी पर तो कैबिनेट में विचार ही नहीं हुआ। क़ायदे से देखा जाए तो नेहरू और पटेल भी सीएए की मूल भावना के खिलाफ़ नहीं थे। लेकिन ये बात लोगों को बताई जानी चाहिए थी।'
प्रवासी मज़दूरों के सड़क पर आने से शाह की किरकिरी
 
अमित शाह के गृह मंत्रालय को कोविड 19 से जूझने के लिए मुख्य एजेंसी बनाया गया था। सूत्र बताते हैं कि इस पूरे संकट के दौरान वो हर रोज़ सुबह साढ़े आठ बजे नॉर्थ ब्लॉक के अपने दफ़्तर पहुंच जाते हैं और आधी रात के बाद तक वहां रहकर अपने मंत्रालय की ओर से जारी किए जा रहे निर्देशों और काम पर पूरी नज़र रखते हैं। केंद्र और राज्यों के बीच सुचारू समन्वय को भी सुनिश्चित करते हैं। जब तक वो सारी फ़ाइलें निपटा नहीं देते घर के लिए नहीं निकलते।
 
लेकिन प्रवासी मज़दूरों को उनके घर तक पहुंचाने के लिए जिस योजनाबद्ध कार्यकुशलता की ज़रूरत थी उसमें अमित शाह खरे नहीं उतरे हैं। भारत के बंटवारे के समय इस तरह का दृश्य देखने को मिला था जब एक से डेढ़ करोड़ लोग एक देश से दूसरे देश की तरफ़ पैदल गए थे।
 
जाने-माने इतिहासकार रामचंद्र गुहा इस पूरी अव्यवस्था और अफ़रातफ़री के लिए अमित शाह को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। गुहा ने तो यहां तक कहा, 'अगर इस समस्या को हल करना है तो इस पूरे काम को गृह मंत्रालय से ले लिया जाना चाहिए।'
 
नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की कई हल्कों में आलोचना हुई है कि चार घंटे के नोटिस पर पूरे भारत में लॉकडाउन लागू करने से पहले थोड़ी तैयारी ज़रूर की जानी चाहिए थी। इसके जवाब में अमित शाह कैंप का कहना है कि अगर तैयारी करने का समय दिया जाता तो इस दौरान ही लाखों लोग कोरोना से संक्रमित हो जाते। भारत के लोग इसकी विभीषिका तभी समझते जब उन्हें एक 'शॉक ट्रीटमेंट' के तहत समझाया जाता कि मामला कितना गंभीर है।
 
राम बहादुर राय कहते हैं, 'ये जो अचानक फैसला हुआ ये बिलकुल ठीक था, क्योंकि आप लोगों को सदमा देकर ही मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार कर सकते हैं। लेकिन इसके बाद राज्यों से समन्वय स्थापित करने और इसके लिए उन्हें तैयार करने में ज़रूर चूक हुई है। मज़दूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया और कई राज्य सरकारों की तो कोशिश रही है ये मज़दूर उनके राज्य से बाहर चले जाएं। 1991 के बाद से जो हम कोशिश कर रहे थे कि 20 से 25 करोड़ लोग गांवों से शहर की तरफ़ आ जाएंगे वो सारा स्वप्न ध्वस्त हो गया है।'
 
शाह और मोदी की जोड़ी
 
नागरिकता विधेयक के पास होने के बाद दिल्ली में भड़के दंगों के बाद कई हल्कों में मोदी और शाह के बीच कथित मतभेदों के कयास लगाए गए। अमित शाह के कुछ बड़े फ़ैसलों के बाद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने तो यहां तक कह डाला कि दिल्ली का सारा शो तो गृहमंत्री अमित शाह चला रहे हैं।
 
बघेल ने कहा कि अमित शाह और प्रधानमंत्री के बीच कई मुद्दों पर मतभेद दिखाई देते हैं। लेकिन बघेल ने इसके लिए साक्ष्य पेश नहीं किया। इन क़यासों के पीछे मोदी विरोधियों की ये ख़ुशफ़हमी थी कि अगर शाह मोदी से दूर चल जाते हैं तो मोदी की ताक़त पहले से बहुत घट जाएगी। वास्तविकता ये है कि ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।
 
वो लोगों के सामने दो अलग-अलग की तरह इमेज पेश करते हैं। मोदी अपने-आपको विज़नरी नेता के तौर पर पेश करते हैं तो अमित शाह कट्टर हिंदुत्व के बिगुलवादक के तौर पर अपनी छवि सामने रखते हैं, इस तरह विकास और हिंदुत्व, इन दोनों का लक्ष्य सधता है। यह अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की ही जोड़ी की तरह है जिनके बीच भी मतभेद की बातें होती थीं लेकिन दोनों एक-दूसरे के पूरक थे और जान-बूझकर दो तरह की इमेज प्रोजेक्ट करते थे।
 
द प्रिंट वेबसाइट की वरिष्ठ पत्रकार रमा लक्ष्मी का मानना है, 'मोदी विरोधी बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि वो मोदी को उनके एजेंडे से लड़कर हरा नहीं सकते। उनके लिए मौक़ा तभी बनता है जब मोदी की छवि को नुक़सान पहुंचे या फिर उनकी उनके 'शो रनर' अमित शाह से बनना बंद हो जाए लेकिन ये सब ख्याली पुलाव भर ही थे। असलियत ये है कि मोदी और शाह दो जिस्म और एक जान हैं।'
 
मोदी और अमित शाह लंबे समय से एक-साथ काम कर चुके हैं, वे नंबर-वन और नंबर टू की भूमिका में गुजरात में भी रहे हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री और गृहमंत्री के रूप में दोनों ने एक-साथ इतने समय तक काम किया है कि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के रूप में उन्हें ताल-मेल बिठाने के लिए कोई अतिरिक्त कोशिश नहीं करनी पड़ी।
 
गुजरात के गृहमंत्री के तौर पर अमित शाह के राजनीतिक जीवन में कई उतार-चढ़ाव आए, उनके ऊपर गंभीर आरोप लगे, उन्हें फ़र्ज़ी एनकाउंटर केस में जेल जाना पड़ा और गुजरात के बाहर भी समय बिताना पड़ा लेकिन इन तमाम मुश्किलों के बावजूद उनके प्रति नरेन्द्र मोदी का विश्वास और समर्थन बना रहा है।
 
अमित शाह का मानवीय पक्ष
 
ब्रिटिश इतिहासकार और लेखक पैट्रिक फ़्रेंच को दिए गए एक लंबे इंटरव्यू में अमित शाह ने बताया था कि वो डायरी लिखते हैं, प्रकाशन के लिए नहीं बल्कि आत्म-मूल्यांकन और अपने अनुभवों का रिकार्ड रखने के लिए।
 
इस इंटरव्यू के दौरान ली गई तस्वीरों में और कई दूसरे मौकों पर ये दिखता है अमित शाह के कमरे में दो तस्वीरें दीवार पर टंगी हैं जिनके बैकग्राउंड में वे तस्वीरे खिंचाना पसंद करते हैं। ज़ाहिर है, इन दोनों लोगों से अमित शाह काफ़ी प्रेरणा हासिल करते रहे हैं। ग़ौर करने की बात ये है कि इन दोनों प्रेरक पुरुषों में से किसी का संबंध आरएसएस से नहीं है, एक तस्वीर है चाणक्य की, और दूसरी विनायक दामोदर सावरकर की।
 
चाणक्य के 'साम दाम दंड भेद' की नीति का भरपूर इस्तेमाल अमित शाह की राजनीतिक कार्यशैली में दिखता है जिसमें वे कोई भी दांव आज़माने में हिचकते नहीं हैं। और सावरकर तो हिंदुत्व शब्द के जनक रहे हैं जिन्होंने और बहुत सारी बातों के साथ इस बात पर ज़ोर दिया था कि भारत मुसलमानों की पुण्यभूमि नहीं है।
 
अमित शाह के व्यक्तित्व की एक और दिलचस्प बात है कि वो अपने हाथ में घड़ी नहीं बांधते। खाने के शौकीन शाह को पकौड़े और फरसान खाना बहुत पसंद है। पार्टी अध्यक्ष बनने से पहले अपने दिल्ली प्रवास के दौरान अमित शाह अक्सर सोनीपत रोड से सटे हुए ढाबों में खाना खाने जाते थे। शाह को गुरुदत्त की फ़िल्में पसंद हैं और साहिर लुधियानवी और कैफ़ी आज़मी की लिखी नज़्में और गज़ले भी उन्हें अच्छी लगती हैं।
 
प्यासा फ़िल्म में वो साहिर के गीत 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए' से इतना प्रभावित हुए थे कि अपनी किशोरावस्था में उन्होंने मुंबई जाकर साहिर लुधियानवी से मिलने की कोशिश भी की थी। आजकल वो कृष्ण मेनन मार्ग के उसी घर में रहते हैं जिसमें कुछ समय पहले पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी रहा करते थे। अमित शाह अपने नेता की तरह दिन के सातों दिन पूरे समय सिर्फ़ राजनीति को जीते हैं। राजनीति उनके लिए करियर नहीं बल्कि जीवन है।
मेहनती राजनेता
 
भारतीय राजनीति में अमित शाह से मेहनती राजनेता कम हैं। मशहूर पत्रकार राजदीप सरदेसाई अपनी किताब '2019 -हाऊ मोदी वन इंडिया' में एक क़िस्सा बताते हैं, 'एक बार मैं सुबह 6 बजकर 40 मिनट की फ़्लाइट से लखनऊ जा रहा था। सुबह जल्दी उठ जाने के कारण मेरी आंखे लाल थीं और मेरे बाल बिखरे हुए थे। तभी जहाज़ में कड़क सफ़ेद कुर्ता पायजामा पहने हुए अमित शाह ने प्रवेश किया। वो देर रात कोलकाता से लौटे थे और 6 घंटे बाद दोबारा फ़्लाइट में थे। जैसे ही नाश्ता आया मैं तो इडली सांभर पर टूट पड़ा लेकिन अमित शाह ने कुछ भी खाने से इनकार कर दिया। उन्होंने एयरहोस्टेस से सिर्फ़ पानी देने के लिए कहा क्योंकि उस दिन उनका व्रत था। संयोग से हम दोनों एक ही होटल में रुके हुए थे।'
 
राजदीप याद करते हैं, 'करीब 11 बजे मुझे होटल के कॉरीडोर में कुछ हलचल सुनाई दी। शाह अपना भाषण समाप्त करने के बाद अपने सुरक्षाकर्मियों के साथ अपने कमरे पहुंच चुके थे। उनकी पार्टी के नेताओं ने उनसे मिलने के लिए लाइन लगाई हुई थी। ये बैठकें आधी रात के काफ़ी देर बाद तक चलीं। अगली सुबह मैं सात बजे सो कर उठा। मैंने सोचा क्यों न अमित शाह के कमरे में जाकर उनसे बात की जाए। जब मैं उनके कमरे में पहुंचा तो पता चला कि अमित शाह सुबह बहुत तड़के ही दिल्ली के लिए रवाना हो चुके हैं। तभी मुझे अंदाज़ा हो गया कि देश के दूसरे सबसे ताक़तवर शख़्स के लिए इस तरह का जीवन जीना रोज़मर्रा की बात है।'
 
होमवर्क करने वाले सांसद
 
पार्टी प्रमुख के तौर पर बहुत पहले से ही अमित शाह को मोदी के बाद दूसरे सबसे बड़े नेता के तौर पर देखा जाता रहा है। मोदी सरकार के दूसरे संस्करण में सिर्फ़ एक साल के अंदर अमित शाह ने सरकार पर भी अपनी पकड़ बना ली है। एक ज़माने में जिस सरकार को 'मोदी सरकार' कहा जाता था, अब उसे 'मोदी -शाह' सरकार के तौर पर देखा जाता है।
 
संडे गार्डियन के संपादक पंकज वोहरा लिखते हैं, 'अमित शाह ने साफ़ दिखाया है कि वो एक साधारण राजनेता नहीं हैं। वो किसी भी विषय पर बहस करने से पहले अपना होमवर्क करते हैं और अपनी पार्टी का एजेंडा बढ़ाने में शब्दों की कोताही नहीं करते। नागरिकता विधेयक पर हुई बहस में वो सभी सांसदों पर भारी पड़े। दरअसल बहुत लंबे अर्से से भारतीय संसद ने सरकार की नीतियों का इतना बेहतरीन बचाव करते किसी भी कैबिनेट मंत्री को नहीं देखा है। पिछले तीन दशक में सिर्फ़ दो ही नेता ऐसे हुए हैं, जो बिना नोट देखे और बिना किसी की मदद लिए किसी भी विषय पर संसद मे बोल सकते हों- एक चंद्रशेखर और दूसरे लालकृष्ण आडवाणी। अमित शाह उसी श्रेणी में आते हैं।'
 
बीजेपी में उनके प्रशंसक कहते हैं कि शाह 'रियल पॉलिटिक' में यकीन करने वाले राजनेता हैं। उनके जीवनीकार अनिर्बान गांगुली और शिवानंद द्विवेदी एक क़िस्सा सुनाते हैं, 'एक बार वो अपने गढ़ नारनपुरा से विधानसभा का चुनाव लड़ रहे थे। उनकी जीत लगभग पक्की मानी जा रही थी। लेकिन तब भी चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने अपने समर्थकों से अपने कांग्रेस के प्रतिद्वंदी जीतूभाई पटेल के 500 पोस्टर लगाने के लिए कहा। जब उनके समर्थकों ने इसका कारण पूछा तो उनका जवाब था कि हमारे प्रतिद्वंदी ने हार मान ली है। हम ये पोस्टर इसलिए लगा रहे हैं कि हमारे वोटरों को लगे कि मुक़ाबला कड़ा है और वो मतदान के दिन भारी संख्या में मतदान करने पहुंचें। अगर उन्हें लगने लगेगा कि मेरी जीत पक्की है तो वो घर में ही बैठे रहेंगे। इस चुनाव में अमित शाह की 63 हज़ार वोटों से जीत हुई।'
 
मोदी के उत्तराधिकारी
 
कुछ हल्कों में उन्हें मोदी के उत्तराधिकारी के तौर पर भी देखा जा रहा है। दिलचस्प बात ये है कि स्वयं मोदी भी इस धारणा को बनाए रखना चाहते हैं। जिस दिन लोकसभा में नागरिकता संशोधन बिल पास हुआ उस दिन लोकसभा में प्रधानमंत्री की कुर्सी ख़ाली थी।
 
अमित शाह ने इस तरह का आभास दिया जैसे वो ही सदन के नेता हों। बीजेपी सांसदों ने भी बिल के पास होने पर 'भारत माता की जय' का नारा लगा कर उनका स्वागत किया।
 
उस दिन प्रधानमंत्री के सदन में न आने का कारण झारखंड के चुनाव प्रचार में व्यस्त रहना बताया गया लेकिन कुछ बीजेपी नेताओं के अनुसार प्रधानमंत्री मोदी ने ऐसा जान-बूझकर किया ताकि अमित शाह को बिल पेश करने और उसे पास करवाने का पूरा श्रेय मिले और उन्हें मोदी के उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जा सके।
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