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Written By BBC Hindi
Last Modified: रविवार, 5 सितम्बर 2021 (09:44 IST)

अफगानिस्तान में तालिबान की जीत रूस और चीन के लिए कैसी होगी?

अफगानिस्तान में तालिबान की जीत रूस और चीन के लिए कैसी होगी? - Afghanistan in Taliban
पाब्लो ओचुआ, बीबीसी संवाददाता
अगस्त के मध्य में अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्ज़े के बाद अब वहाँ जल्द ही नई सरकार का गठन होने वाला है। इसके बाद अब दुनिया के कई मुल्क अफगानिस्तान में हुए सत्ता परिवर्तन के मद्देनज़र अपनी नीति बदलने और वहाँ हुए बदलाव के साथ तालमेल बैठाने के रास्ते तलाश रहे हैं।
 
रूस से लेकर चीन तक और पाकिस्तान से लेकर जर्मनी तक कई देशों ने इसके लिए कूटनीतिक प्रयास तेज़ किए हैं। लेकिन 26 अगस्त को काबुल एयरपोर्ट पर हुए हमले के बाद ये स्पष्ट हो गया है कि अफगानिस्तान में दूसरे सशस्त्र गुट भी हैं जो सक्रिय हैं और ये आने वाले वक्त में चिंता का विषय बन सकता है।
 
लेकिन अफगानिस्तान पर दो दशकों के बाद तालिबान की सत्ता के लौटने के बाद विश्व के दूसरे देशों और उसके पड़ोसियों के कौन-से हित उसके साथ जुड़े हैं?
 
पाकिस्तान
उम्मीद की जा रही है कि अफगानिस्तान में सरकार बदलने से उसके पड़ोसी पाकिस्तान को काफ़ी उम्मीदें हैं।
 
दोनों देशों के बीच 2,400 किलोमीटर लंबी सीमा है और पाकिस्तान क़रीब 14 लाख अफ़ग़ान शरणार्थियों का ठिकाना है। इनमें से कई ऐसे हैं जिसके पास उचित दस्तावेज़ तक नहीं हैं। पाकिस्तान की इस मुश्किल का सीधा नाता अफगानिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता से है।
 
लेकिन फ़िलहाल पाकिस्तान अकेला मुल्क है जो अफगानिस्तान में मौजूद तालिबान के क़रीब माना जा रहा है। 1990 के दशक की शुरुआत में तालिबान आंदोलन ने उत्तरी पकिस्तान से सिर उठाना शुरू किया था। शुरुआत में इस आंदोलन में जिन लोगों ने शिरकत की उनमें से अधिकांश की पढ़ाई पाकिस्तान के मदरसों में हुई थी।
 
तालिबान की मदद या समर्थन करने की बात से पाकिस्तान हमेशा से इनकार करता रहा है। लेकिन जिस वक़्त साल 1996 में अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार सत्ता में आई उस वक़्त जिन तीन देशों ने तालिबान सरकार को मान्यता दी थी उनमें पाकिस्तान एक था।
 
अन्य दो देश सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात थे। इसके बाद अफगानिस्तान के साथ सबसे आख़िर में अपने कूटनीतिक संबंध ख़त्म करने वाला देश पाकिस्तान ही था।
 
लंदन के रॉयल यूनाइटेड सर्विसेस इंस्टिट्यूट के विज़िटिंग फेलो ओमर करीम कहते हैं कि दोनों देशों के बीच बाद में रिश्तों में तनाव आना शुरू हो गया था लेकिन "पाकिस्तान के राजनीतिक हलकों में आम धारणा यही है कि मौजूदा वक़्त में अफगानिस्तान में सत्ता परिवर्तन से उसे फ़ायदा होगा।"
 
दुनिया को देखने का पाकिस्तान का नज़रिया भारत के साथ उसके तनाव और प्रतिद्वंदिता के साथ जुड़ा है। ऐसे में अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता का अर्थ उसके लिए वहाँ भारत के प्रभाव का कम होना है।
 
उमर करीम कहते हैं, "पाकिस्तान की सीमा से सटे जलालाबाद और कंधार जैसे शहरों में भारत के वाणिज्यिक दूतावास का होना पाकिस्तान के लिए हमेशा से परेशानी का सबब रहा है।"
 
"मेरा मानना है कि उत्तर में तहरीक-ए-तालिबान और दक्षिण में बलूच विद्रोही गुटों जैसे पाकिस्तान विरोधी तत्वों का का वो समर्थन करते हैं।"
 
करीम कहते हैं कि पाकिस्तान का मानना है कि तालिबान सरकार रही तो वो अफगानिस्तान में अपना प्रभाव एक बार फिर बढ़ा सकेगा।
 
वो कहते हैं, "चावल-आटे और सब्ज़ियों से लेकर सीमेन्ट और घर बनाने के सामान तक, अफगानिस्तान के साथ होने वाले व्यापार का बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के रास्ते हो कर गुज़रता है।"
 
साथ ही पाकिस्तान चाहता है कि वो अफगानिस्तान से होते हुए मध्य एशियाई मुल्कों तक एक "आर्थिक संबंध" स्थापित करे जो उसके देश को बेहतर तरीके से दुनिया की अर्थव्यवस्था के साथ जोड़े।
 
ऐसी सूरत में अफगानिस्तान को न केवल अपनी अर्थव्यवस्था के विकास के लिए पाकिस्तान के साथ बेहतर संपर्क रखना होगा बल्कि अन्य मसलों समेत सुरक्षा जैसे अहम मुद्दों पर भी उसे पाकिस्तान के साथ समन्वय बनाए रखना होगा।
 
उमर करीम कहते हैं, "इस बात की संभावना कम ही है कि वैश्विक स्तर पर अलग-थलग पड़ने का ख़तरा झेल रही तालिबान सरकार पाकिस्तान के ख़िलाफ़ होगी।"
 
रूस
1979 से लेकर 1989 तक सोवियत संघ अफ़ग़ान विद्रोहियों के साथ लड़ाई में जुटा रहा, दशक भर चले इस संघर्ष को रूस भूल नहीं पाया है।
 
मौजूदा दौर में अफगानिस्तान के साथ रूस के हित कम ही हैं, लेकिन इस देश में अस्थिरता रही तो इसका असर रूस के उत्तर में मौजूद उन पड़ोसियों पर पड़ सकता है जो कभी सोवियत संघ का हिस्सा हुआ करते थे।
 
रूस की बड़ी चिंता ये है कि अफगानिस्तान कहीं कॉकेशस इलाक़े के जिहादियों, ख़ास कर कथित इस्लामिक स्टेट के लिए सुरक्षित ठिकाना न बन जाए। हालाँकि केवल रूस ही नहीं बल्कि तालिबान भी इस्लामिक स्टेट को अपना दुश्मन ही मानता है।
 
ऐसे में रूस तालिबान की ताक़त को पहचानता है और इस समस्या को लेकर पहले ही सतर्क है। वो पश्चिमी देशों की सेनाओं के अफगानिस्तान से बाहर जाने से पहले ही इससे निपटने की तैयारी कर रहा है।
 
विदेशी मामलों पर एक रूसी पत्रिका के संपादक फ्योदोर लुक्यानोव ने बीबीसी से कहा कि अफगानिस्तान को लेकर रूस अपनी "दोहरी नीति" जारी रखेगा। एक तरफ़ वो राजनितिक स्थिरता के लिए तालिबान के साथ चर्चा करना जारी रख रहा है तो दूसरी तरफ वो ताजिकिस्तान में रूसी सैनिकों की संख्या बढ़ा रहा है।
 
हाल में रूस ने ताजिकिस्तान को अफगानिस्तान के साथ सटी अपनी सीमा पर एक चौकी बनाने के लिए 11 लाख डॉलर की मदद देने की घोषणा की थी।
 
इसके साथ ही रूस ने अफगानिस्तान के मुद्दे पर अपने पुराने सहयोगियों से चर्चा करने की बात भी की है ताकि अफगानिस्तान के इलाक़े से आने वाले "चरमपंथियों" को रोका जा सके।
 
मोटे तौर पर कहा जाए तो रूस मानता है कि मध्य एशिया के देशों में अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी ख़त्म हुई तो इस इलाक़े में वो अपना प्रभाव बढ़ा सकता है।
 
मॉस्को स्थित राजनीतिक विश्लेषक आर्कादी दुबनोव ने फाइनैंशियल टाइम्स को बताया, "जो हमारे लिए अच्छा है वो अमेरिकियों के लिए बुरा है और उनके लिए अच्छा है वो हमारे लिए बुरा है। मौजूदा वक़्त अमेरिकियों के लिए अच्छा नहीं है, लेकिन ये रूस हित में जा सकता है।"
 
चीन
अफगानिस्तान के साथ चीन के आर्थिक और सुरक्षा संबंधी हित जुड़े हुए हैं। अमेरिकी सेना के यहाँ से वापस जाने के बाद यहाँ के खनिज संसाधनों का इस्तेमाल करने के लिए चीनी कंपनियां पूरी तैयारी कर रही हैं। इन खनिजों में अत्याधुनिक तकनीक के लिए ज़रूरी माइक्रोचिप में लगने वाले महत्वपूर्ण खनिज शामिल हैं।
 
अमेरिकी जानकारों के एक आकलन के अनुसार अफगानिस्तान में मौजूद खनिज पदार्थों का मूल्य ट्रिलियन डॉलर तक हो सकता है। हालांकि अफ़ग़ान सरकार का दावा है कि ये असल में इस आकलन का तीन गुना तक है।
 
चीनी अख़बार ग्लोबल टाइम्स में अगस्त 24 में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार चीनी कंपनियां फ़िलहाल इस इलाक़े को लेकर राजनीतिक और सुरक्षा जोखिम पर विचार कर रही हैं।
 
अख़बार के अनुसार चीन किस हद तक अफगानिस्तान में काम कर सकता है ये इस बात पर भी निर्भर करेगा कि पश्चिमी देशों के साथ तालिबान सरकार के किस तरह के संबंध रहते हैं और क्या पश्चिमी देश अफ़ग़ान सरकार पर किसी तरह के प्रतिबंध लगाती है।
 
हालांकि चीनी कंपनियां इस इलाक़े में मौजूद संसाधनों का फायदा लेने के लिए तैयार है और सरकार भी यहाँ खनन में निवेश करना चाहती है।
 
चीन एक विशेष आर्थिक कॉरिडोर बना रहा है जो उसे पाकिस्तान और ईरान समेत मध्य-पूर्व के दूसरे देशों से जोड़ेगी। चीन की इस महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड परियोजना में अफगानिस्तान की अहम भूमिका है और इसी से मद्देनज़र दोनों देशों के बीच साल 2016 में एक अहम समझौता हुआ था।
 
इस समझौते के तहत अफगानिस्तान इस परियोजना को लागू करने में चीन की मदद करेगा और चीन अफगानिस्तान में 10 करोड़ डॉलर का निवेश करेगा। साथ ही रूस की तरह चीन को ये भी चिंता है कि अफगानिस्तान चरमपंथियों का ठिकाना न बन जाए।
 
कूटनीतिक मामलों के बीबीसी के विश्लेषक जॉनथन मार्कस कहते हैं कि चीन के शिन्जियांग की सीमा अफ़गानिस्तान से भी मिलती है और यहाँ क़रीब 10 लाख वीगर मुसलमान हैं।
 
चीन को डर है कि वीगर मुसलमान और 'चीन विरोधी आतंकवादी संगठन' ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम) के सदस्य अफ़गानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल उसके ख़िलाफ़ गतिविधियों को अंजाम देने के लिए कर सकते हैं।
 
वो कहते हैं, "ऐसे में ये आश्चर्य की बात नहीं है कि चीन अफगानिस्तान के साथ कूटनीतिक संबंध बनाए रखने को लेकर इच्छुक हैं और हाल के दिनों में तालिबान को लेकर उसके नरम रुख़ अख्तियार किया है।"
 
वो पहले ही तालिबान को इस शर्त पर समर्थन देने की बात कर चुका है कि अफ़गानिस्तान के किसी हिस्से को उसके ख़िलाफ़ इस्तेमाल नहीं होने देगा।
 
काबुल पर तालिबान के कब्ज़े के बाद 25 अगस्त को चीनी राष्ट्रपति और रूसी राष्ट्रपति के बीच फ़ोन पर चर्चा हुई। इस दौरान दोनों के बीच इस बात पर सहमति बनी कि "अफगानिस्तान की तरफ से आने वाले आतंकवाद और नशीले पदार्थों की तस्करी के ख़तरे को रोकने के लिए दोनों को साथ मिल कर कोशिशें तेज़ करनी होंगी।"
 
ईरान
उमर करीम कहते हैं कि ईरान के इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कोर से जुड़े कुद्स फोर्स के माध्यम से तालिबान के साथ "बीते कई सालों से" ईरान के संबंध रहे हैं। कुद्स फोर्स के लड़ाके अपरंपरागत युद्ध में माहिर माने जाते हैं और अमेरिकी इसे एक आतंकवादी समूह मानता है। कुद्स फोर्स तालिबान के साथ संबंध बनाए रखे हुए हैं।
 
अफगानिस्तान में रहने वाले अल्पसंख्यक शिया मुसलमानों, ख़ास कर हज़ारा समुदाय के मुसलमानों के प्रति नरम रवैया रखने के बदले ईरान तालिबान आंदोलन के नेताओं का समर्थन करता रहा है और उन्हें हथियारों और धन के तौर पर मदद मुहैया करता रहा है।
 
माना जा रहा है कि यही वजह है कि केंद्रीय अफगानिस्तान के इलाक़े बिना खूनखराबे के तालिबान के हाथों चले गए। यहां हज़ारा समुदाय के लोग बड़ी संख्या में रहते हैं।
 
हालांकि इसके बावजूद तालिबान लड़ाकों के हज़ारा समुदाय के लोगों के साथ दुर्वव्यहार की कई ख़बरें आई थीं।
 
उमर करीम कहते हैं कि अफगानिस्तान अगर वैश्विक स्तर पर अलग-थलग पड़ जाता है तो ये ईरान के हित में होगा क्योंकि इससे ईरान को यहाँ अपना प्रभाव बढ़ाने में मदद मिलेगी।
 
ईरान की ये भी कोशिश रहेगी कि हथियारों के उत्पादन में मदद के लिए वो उन मिसाइलों, ड्रोन या दूसरे हथियार पाने की कोशिश करे जो अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में छोड़ गई है और जो अब तालिबान के हाथों में पहुँच गए हैं।
 
ईरान के लिए एक बड़ी चिंता ये भी है कि अफगानिस्तान से बड़ी संख्या में शरणार्थी ईरान आते हैं, अगर अफगानिस्तान में स्थायी सरकार रही तो वो कुछ हद तक इस समस्या का भी समाधान कर सकेगा। संयुक्त राष्ट्र शराणार्थी एजेंसी के अनुसार ईरान में फ़िलहाल 78,000 अफ़ग़ान शरणार्थी हैं।
 
पश्चिमी देश
पश्चिमी देशों के नेता ये दावा कर रहे हैं कि अफगानिस्तान में चला दो दशकों का उसका सैन्य अभियान कामयाब रहा है, लेकिन इस बात में कोई शक नहीं है कि तालिबान को लगता है कि अंत में जीत उसकी हुई है।
 
अफगानिस्तान पर कब्ज़ा होने के कई सप्ताह पहले, इसी साल अप्रैल में तालिबान नेता ने बीबीसी संवावदाता सिकंदर किरमानी से कहा था कि "इस युद्ध में जीत हमारी हुई है जबकि अमेरिकी हार गया है।"
 
रही बात अमेरिका और गठबंधन के उसके दूसरे सहयोगी देशों की तो बीते दो सप्ताह में अफगानिस्तान में जो कुछ हुआ है उससे उनकी छवि को बड़ा धक्का लगा है और इससे उबरने में उन्हें अभी कुछ वक़्त लगेगा।
 
यूरोपीय संघ
यूरोपीय संघ और ब्रिटेन ने कहा है कि वो अफगानिस्तान में तालिबान के नेतृत्व में बनने वाली नई सरकार को मान्यता नहीं देंगे।
 
संघ के विदेशी नीति प्रमुख जोसेप बुरेल ने कहा है कि तालिबान सरकार के साथ अगर किसी तरह की कोई बातचीत हुई तो वो कड़ी शर्तों के साथ होगी और केवल अफ़ग़ान नागरिकों के हितों को देखते हुए ऐसा किया जाएगा।
 
अफगानिस्तान को लेकर अमेरिका भी इसी तरह की राय रखता है लेकिन रूस और चीन ने इशारा किया है कि तालिबान सरकार के प्रति वो नरम रवैय्या रख सकते हैं।
 
यूरोपीय संघ ने कहा है कि वो तालिबान के साथ अपना संपर्क बनाए रखेगा और संघ के एक मिशन के ज़रिए काबुल में अपनी मौजूदगी बनाए रखेगा ताकि एक तरफ वो अफगानिस्तान में फंसे विदेशी नागरिकों को निकालने की प्रक्रिया पर नज़र रख सके और दूसरी तरफ ये सुनिश्चित कर सके कि नई अफ़ग़ान सरकार सुरक्षा और मानवाधिकारों के मुद्दे पर अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा कर रही है।
 
स्लोवानिया में संघ के सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों की एक बैठक में जोसेप बुरेल ने कहा, "हमने फ़ैसला किया है कि सुरक्षा शर्तों को पूरा किया गया तो।।। हम समन्वित तरीक़े से काम करेंगे।"
 
हालांकि उन्होंने स्पष्ट किया कि, "काबुल में यूरोपीय संघ के मिशन तालिबान सरकार को मान्यता देने की दिशा में पहला क़दम न समझा जाएग, बल्कि ये अफ़ग़ान सरकार के साथ संपर्क बनाए रखने के लिए व्यवहारिक क़दम है। हमारे सामने फ़िलहाल सबसे बड़ी चुनौती है, वहाँ फंसे लोगों को बाहर निकालना है और तालिबान से बात बिना किए ऐसा करना संभव नहीं होगा।"
 
उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान के मुद्दे पर वो अमेरिकी, जी7 और जी20 देशों समेत अन्य संगठनों के साथ भी समन्वय से काम करेंगे और अफगानिस्तान के पड़ोसियों के साथ मिल कर "क्षेत्रीय स्तर पर सहयोग के लिए राजनीतिक मंच" बनाने की कोशिश करेंगे।
 
जर्मनी
इससे पहले 25 अगस्त को जर्मन संसद में दिए एक भाषण में चांसलर एंगेंला मर्केल ने कहा, "अफगानिस्तान से गठबंधन देशों की सेना के निकल जाने का ये मतलब नहीं है कि सेना की मदद करने वाले वहाँ के लोगों और तालिबान के सत्ता में आने से मुश्किल परिस्थिति में फँसे लोगों की मदद नहीं की जाएगी।"
 
उन्होंने कहा, "हमारा उद्देश्य होना चाहिए कि बीते 20 सालों में अफगानिस्तान में जो कुछ हासिल किया गया है, उसे बचाने की हरसंभव कोशिश की जाए।"
 
वहीं 24 अगस्त को जी7 देशों की एक बैठक में यूरोपीय काउंसिल के अध्यक्ष चार्ल्स माइकल ने कहा था कि "आने वाली अफ़ग़ान सरकार के साथ हमारे किस तरह के रिश्ते होंगे, इस बारे में बात करना अभी जल्दबाज़ी होगी।"
 
माइकल का कहना था कि तालिबान के साथ संबंध इस बात पर निर्भर करेगा कि "ख़ास कर अफ़ग़ान नागरिकों के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक हकों और लड़कियों और अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों को लेकर नई सरकार का रवैया क्या रहता है। साथ ही हम ये भी देखेंगे कि सुरक्षा, चरमपंथ से लड़ने और नशे की तस्करी रोकने को लेकर अंतराराष्ट्रीय स्तर पर अफ़ग़ान सरकार की क्या प्राथमिकता होगी और वो इन प्रतिबद्धताओं को कैसे पूरा करेगी।"
 
ब्रिटेन
ब्रिटेन के विदेश मंत्री डोमिनिक राब ने कहा है कि "ब्रिटेन और पाकिस्तान दोनों के हित में यही होगा कि अफगानिस्तान का भविष्य स्थायी और शांतिपूर्ण हो।"
 
अफगानिस्तान में फंसे ब्रितानी नागरिकों को वहां से सुरक्षित निकालने की कोशिशों के तहत डोमिनिक राब फिलहाल पाकिस्तान के दौरे पर हैं।
 
इससे पहले ब्रिटेन ने अफगानिस्तान के पड़ोसी देशों की मदद के लिए 30 करोड़ पाउंड की मदद की घोषणा की थी और कहा था कि इसे तलिबान शासन से बच कर भाग रहे लोगों को शरण देने में इन देशों की मदद होगी।
 
इससे पहले 29 अगस्त को ब्रितानी प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने भविष्य में तालिबान के साथ ब्रिटेन के संबंधों पर बात की थी।
 
उन्होंने कहा था, "तालिबान के साथ हम चर्चा करेंगे लेकिन इस आधार पर नहीं कि वो क्या कहते हैं, बल्कि इस आधार पर कि वो क्या करते हैं। अगर अफगानिस्तान की भावी सरकार चाहती है कि कूटनीतिक तौर पर उसे मान्यता दी जाए या फिर फ्रीज़ कर दिए गए उनके अरबों डॉलर उन्हें वापस मिलें तो उन्हें देश छोड़ कर जाना चाह रहे लोगों को सुरक्षित बाहर निकलने का रास्ता देना होगा और महिलाओं और लड़कियों के हकों की रक्षा करनी होगी।"
 
साथ ही उन्होंने कहा कि "तालिबान को अफगानिस्तान को एक बार फिर आतंक की फैक्ट्री बनने से बचाना होगा, क्योंकि ऐसा हुआ तो ये अफगानिस्तान के लिए बेहद बुरा होगा।"
 
चरमपंथ ही समस्या
पश्चिमी देशों के लिए ये भी बेहद अहम मुद्दा है कि अफगानिस्तान को चरपमंथी गुटों का अड्डा न बनने दिया जाए और साथ ही आने वाले वक्त में अफ़ग़ान शरणार्थियों की संख्या पर लगाम लगाई जाए।
 
हाल में काबुल एयरपोर्ट पर हुए घातक हमले के बाद ये चिंता और अधिक बढ़ गई है। इस हमले की ज़िम्मेदारी इस्मिक स्टेट-ख़ुरासान ने ली थी।
 
बीते दिनों, अमेरिकी ख़ुफ़िया विभाग ने इस गुट के द्वारा संभावित हमले की चेतावनी दी थी। माना जाता है कि ये गुट तालिबान का प्रतिद्वंद्वी है। इस हमले के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा कि कि हमले कि लिए ज़िम्मेदार लोगों को सज़ी दी जाएगी।
 
उन्होंने चेतावनी दी, "इस हमले को अंजाम देने वालों के साथ-साथ वो लोग जो अमेरिका को नुक़सान पहुँचाना चाहते हैं, उन्हें माफ़ नहीं किया जाएगा। हम इन्हें नहीं भूलेंगे, हम उनका पीछा करेंगे और इन्हें इसकी क़ीमत चुकानी होगी। हम अपनी पूरी ताक़त के साथ अपने हितों की रक्षा करेंगे।"
 
तालिबान और अमेरिका के बीच हुए समझौते की शर्तों के अनुसार तालिबान अमेरिका या उसके सहयोगियों पर हमलों के लिए चरमपंथी गुटों को अपनी सरज़मीन का इस्तेमाल नहीं करने देगा।
 
लेकिन काबुल हवाई-अड्डे पर हुए हमले के बाद ये बात स्पष्ट हो गई कि ऐसे गुट अफगानिस्तान में पहले से मौजूद हैं और सक्रिय भी हैं।
 
इस्लामिक समूह
काबुल एयरपोर्ट पर हुए हमले ने ये भी साबित कर दिया है कि अफगानिस्तान में बदले हालात केवल दूसरे मुल्कों की सरकारों के लिए ही चुनौती पेश नहीं करते बल्कि तालिबान के सत्ता में आने का असर अफगानिस्तान में पहले से मौजूद विद्रोही गुटों के शक्ति संतुलन पर पड़ा है और ये उनके लिए बड़ी चुनौती है।
 
जानकार चेतावनी देते हैं कि अमेरिका में 9/11 के हमलों को अंजाम देने वाला अल-क़ायदा अफगानिस्तान में एक बार फिर सिर उठा सकता है। इसी चरमपंथी हमले के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान में आतंकी समूहों के ख़िलाफ़ सैन्य अभियान छेड़ा था।
 
जकार्ता में मौजूद इंस्टिट्यूट फ़ॉर पॉलिसी एनालिसिस ऑफ़ कन्फ्लिक्ट की निदेशक सना जाफरी कहती हैं कि तालिबान से सत्ता में लौटने से इस्लामिक स्टेट से जुड़े जिहादी समूहों के लिए अब "ख़ुद को साबित करने का दवाब बढ़ गया है।"
 
जाफरी कहती हैं कि इस्लामिक स्टेट से जुड़े समूह तालिबान की जीत की "निंदा" करते हैं और कहते हैं कि "ये अमेरिका के साथ हुए समझौते का नतीजा है न कि सही मायनों में जिहाद की लड़ाई का।"
 
हालांकि जाफरी तालिबान की जीत को "लंबे समय में हासिल की गई अल-क़ायदा समूहों ने सबसे बड़ी जीत" क़रार देती हैं।
 
दक्षिण-पूर्व एशिया में चरमपंथी समूहों के द्वारा चलाए जा रहे सोशल मीडिया अकाउंट्स और उनके आधिकारिक बयानों में तालिबान की जीत की ख़ुशी मनाई गई थी।
 
जाफरी कहती हैं, "उन्हें इससे जो संदेश मिला वो ये है कि इंतज़ार का फल मीठा होता है। इस बात में संदेह नहीं है कि तालिबान की जीत ने इलाक़े के कई चरमपंथी समूहों में उत्साह भर दिया होगा।"
 
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