आने वाली पीढ़ियाँ जब इतिहास के पन्ने पलट कर देखेंगी तो भारत के पन्ने पर 2009 में कुछ ऐसी घटनाएँ मिलेंगी, जिन्होंने समाज में अहम और स्थाई परिवर्तन कर दिए।
इनमें से एक है चंद्रयान अभियान। वैज्ञानिक उपलब्धियों की दृष्टि से अंतरिक्ष विज्ञान ऐसा क्षेत्र है जिस पर कोई भी भारतीय गर्व कर सकता है। चंद्रयान का सफल अभियान भी ऐसी उपलब्धियों में से एक था। चंद्रयान ने न केवल चंद्रमा के करीब पहुँचने में सफलता पाई बल्कि उसने उल्लेखनीय आँकड़े भी जुटाए।
इन आँकड़ो में एक अहम जानकारी यह भी थी कि चंद्रमा पर पानी हो सकता है। बाद में नासा के प्रयोगों ने इन आँकड़ों की पुष्टि की। इसके अलावा भारत ने इसी साल एक साथ सात उपग्रह अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित करने में सफलता पाई।
दूसरा है दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला जिसमें समलैंगिक संबंधों को वैधता प्रदान कर दी गई। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस फैसले को बदलने से इनकार कर दिया। जिस देश में वैलेंटाइन्स डे मनाने पर आपत्ति की जाती रही है और पब में लड़कियों की मौजूदगी बर्दाश्त न हो रही हो। वहीं एक अदालत ने कह दिया कि समलैंगिक होना एक व्यक्तिगत फैसला है और अधिकार भी।
भूलना नहीं चाहिए कि इसी समय में अदालतों ने बिना विवाह साथ रहने, यानी ‘लिव-इन’ संबंधों को भी गलत मानने से इनकार कर दिया। उसने ऐसे रिश्तों में लड़की को पत्नी की तरह अधिकार देने की भी वकालत की। इन फैसलों ने कुंद होते दिख रहे भारतीय समाज में नई पीढ़ी के लिए स्वतंत्रता की खिड़कियाँ खोली हैं।
एक महत्वपूर्व परिवर्तन इस साल आया सर्वोच्च न्यायालय के गलियारों में। पहली बार सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने माना कि समाज के प्रति उनकी भी जवाबदेही है। लगातार बढ़ते दबावों के बाद आखिर सुप्रीम कोर्ट ने न्यायाधीशों ने अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक कर दिया। इस कदम ने आशा जगाई कि भारतीय लोकतंत्र के स्तंभ धीरे-धीरे ही सही, थोड़ा-थोड़ा करके ही सही जवाबदेह और पारदर्शी हो रहे हैं।
इसी साल देश ने देखा कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के बालाकृष्णन ने किस तरह न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पर चिंता जताई। साल बीतते-बीतते कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पीडी दिनाकरण की सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति को जिस तरह से चुनौती मिली और इस प्रक्रिया को जिस तरह रोकना पड़ा, उसने भी एक आशा जगाई है।
कहना होगा कि सूचना का अधिकार इस साल समाज के हाथों में एक धारदार हथियार की तरह चमकता दिखाई दिया और उसने कार्यपालिका को भी जवाबदेह होने पर थोड़ा ही सही मजबूर तो किया ही है।
यूपीए की दूसरी पारी : वर्ष 2009 के पन्नों पर रतन टाटा की वह जिद भी दर्ज रहेगी, जिसका नाम 'नैनो' है। दुनिया की सबसे सस्ती कार नैनो को उन्होंने बहुत अड़चनों के बाद भी साकार करके दिखा दिया।
इस छोटी सी कार ने एकाएक दुनिया भर की कार कंपनियों के सामने एक चुनौती रख दी है। यह समय बताएगा कि यह कार आम जनता तक कितनी पहुँची और वह आम जनता वास्तव में कितनी आम थी। लेकिन रतन टाटा अपने वादे पर खरे उतरे हैं।
जो लोग अपने वादों पर खरे नहीं उतरे, यह साल उनको भी सबक सीखाने वाला साल रहा। यानी आम चुनाव का वर्ष। हालाँकि मई 2009 में हुए लोकसभा के चुनाव के नतीजे 1977, 1984 या 1989 की तरह ऐतिहासिक नहीं माने जाएँगे, लेकिन इन नतीजों ने फिर भी छोटी-छोटी कई इबारतें इतिहास के पन्नों पर दर्ज कीं।
नेहरु-गाँधी परिवार के दो ताक़तवर सांसदों के रहते हुए भी कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार में परिवार के बाहर के एक व्यक्ति को एक कार्यकाल पूरा करके दूसरी बार प्रधानमंत्री बनते इसी वर्ष ने देखा। लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान और मुलायम सिंह यादव को दरकिनार इसी साल ने किया। उत्तर प्रदेश के नतीजों से उत्साहित होकर एकाएक प्रधानमंत्री बनने की मायावती की हसरतों को भी इसी साल ने धोया।
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राहुल गाँधी, वर्ष 2009 में राजनीतिक रुप से परिपक्व हुए या नहीं इस पर मतभेद हो सकते हैं। इस बात पर भी बहस हो सकती है कि क्या वे सचमुच देश को समझना चाहते हैं। लेकिन इस बात से अधिकांश लोग सहमत होंगे कि प्रतीकों वाली अपनी राजनीति से उन्होंने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करने पर मजबूर कर दिया है।
इसी साल ने वामपंथी लाल क़िले की दीवार में दरार पैदा की और उन्हें बहुत सी जमीनी हकीकतों से वाकिफ़ करवाया और भारतीय जनता पार्टी को सबक सिखाया कि नेतृत्व का संकट कैसे किसी राजनीतिक दल को हाशिए पर धकेल सकता है।
तेलंगाना का आंदोलन : लेकिन इन चुनावों से बड़ी राजनीतिक घटना बनी दिसंबर माह में उभरी तेलंगाना की राजनीति। आंध्र प्रदेश अभी अपने मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी की मौत के सदमे से उबरा भी नहीं था कि अलग तेलंगाना राज्य के लिए आंदोलन फिर से शुरु हो गए।
हिंसक आंदोलनों, आत्महत्याओं और आमरण अनशनों के बीच केंद्र सरकार की अपरिपक्वता भरे निर्णयों ने आंदोलन को शांत करने की बजाय और धधका दिया। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक अलग तेलंगाना राज्य का मुद्दा कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार और राज्य की कांग्रेस सरकार के लिए गले की फाँस बना हुआ है।
राजनीतिक समाज के गले की फाँस एक और मामला बना हुआ है। वह है झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा पर दर्ज हुआ भ्रष्टाचार का मामला।
जिस देश में सरकारी आँकड़े कह रहे थे कि 80 प्रतिशत जनता को प्रतिदिन 20 रुपए से भी कम पर गुजारा करना पड़ता है और देश की 37 फीसदी जनता गरीबी रेखा से नीचे चली गई है। वहीं इस बात पर सहज भरोसा नहीं होता कि एक निर्दलीय विधायक से मुख्यमंत्री बने मधु कोड़ा ने अपने छोटे से कार्यकाल में अपने मुट्ठी भर साथियों के साथ मिलकर चार हजार करोड़ रुपयों का वारा-न्यारा कर लिया।
कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा के समर्थन से मुख्यमंत्री बने मधु कोड़ा के मामले ने भारतीय राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार पर बहुत से सवाल उठाए हैं।
सवाल तो चंडीगढ़ की रुचिका के मामले में 19 बरस बाद आए फैसले ने भी उठाए हैं। एक लड़की को आत्महत्या के लिए बाध्य करने और पूरे परिवार को सताने के बाद एक पुलिस अधिकारी को न केवल महानिदेशक बना दिया गया बल्कि अदालत ने सिर्फ छह महीने की सजा देकर छोड़ दिया।
सजा सुनाए जाने के बाद एसपीएस राठौर जिस तरह मुस्कुराते हुए बाहर आए, उससे एक बार फिर पूछा जा रहा है कि क्या इसे न्याय कहा जा सकता है?
जेसिका लाल, नितीश कटारा और प्रियदर्शिनी मट्टू की तरह एक और मामला बरस बीतते-बीतते सुर्खियों में छा गया है और इसने नागरिक समाज को एक बार फिर आंदोलित कर दिया है।
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बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के 17 बरस बाद आई लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट ने किसी को नहीं चौंकाया। अलबत्ता एक सवाल जरुर पूछा गया कि ऐसी रिपोर्ट के लिए 17 बरस लगाने का क्या औचित्य था?
पिछले साल, यानी 2008 में मुंबई पर हुए हमलों के बाद एकमात्र जीवित बचे हमलावर अजमल कसाब पर मुक़दमा चलता रहा और भारत पाकिस्तान को सबूत पर सबूत भेजता रहा। भारत ने पाकिस्तान को आठ दस्तावेज सौंपे और हर बार पाकिस्तान ने कहा कि भारत ठोस सबूत नहीं दे रहा है।
उधर कसाब ने पहले तो अदालत में अपना जुर्म कबूल कर लिया, लेकिन अंत में वह अपने पहले के बयानों से पलट गया। उम्मीद है कि नए साल में इस मामले पर फैसला आ जाएगा।
लेकिन देखना यह भी है कि मुंबई हमलों पर प्रधान कमेटी की रिपोर्ट पर सरकार का फैसला कब आता है और क्या वह उन अफसरों को दंड देगी जिन्हें रिपोर्ट में दोषी पाया गया है।
इस साल ने एक भारतीय वैज्ञानिक वेंकटरामन रामकृष्णन को रसायन शास्त्र का नोबेल ग्रहण करते देखा और भारतीय वैज्ञानिकों को जीन मैप बनाने में सफलता पाते हुए भी देखा। लेकिन यह निराशा बनी रही कि देश के बड़े हिस्से में अभी भी लोग मलेरिया और डायरिया से मर रहे हैं।
इसी साल ने तीन भारतीयों, एआर रहमान, गुलजार और रसूल पोकुट्टी को ऑस्कर पाते देखा और भारतीय फिल्म निर्माताओं-निर्देशकों को गिनती की अच्छी और बहुत सारी खराब फिल्में बनाते देखा।