Last Modified: नई दिल्ली। ,
बुधवार, 14 जनवरी 2009 (12:59 IST)
'जिन लाहौर नईं वेख्या' ने जमाया रंग
'गए दिनों का सुराग देकर, किधर से आया किधर गया वो। अजीब मानुस अजनबी था, मुझे तो हैरान कर गया...।' भारत-पाक बँटवारा बीते दिनों की बात हुई। उन दिनों की कहानी में गुँथे मर्म के जरिए दोस्ती के पैगाम का दिल्ली के खचाखच भरे प्रेक्षागृह में लोगों ने तहे-दिल से स्वागत किया। मौका था असगर वजाहत के लिखे नाटक 'जिन लाहौर नईं वेख्या' की पाकिस्तान के थिएटर ग्रुप तहीक-ए-निसवाँ की प्रस्तुति का।
मुंबई हमले के बाद बने तनाव और युद्धोन्माद के माहौल में अमन की मीठी तान सुनाते हुए पाक के इस समूह ने नाटक को दोस्ती के नाम नजर किया। नाटक के निर्देशक शीमा किरमानी और अनवर जाफरी ने जो तब्दीलियाँ की हैं, उससे नाटक का राजनीतिक संदेश ज्यादा मुखर हुआ है।
इस प्रस्तुति को दानियल विलायत के गायन ने नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। उन्होंने ठसकभरी शास्त्रीय आवाज में नाटक के प्रमुख किरदार मशहूर शायर नासिर काजमी की गजलों को गाया। नाटक के बीच-बीच में इन गजलों को जिस खूबसूरती से पिरोया गया, उससे निर्देशकों की मार्मिक दृष्टि और पैनी राजनीतिक समझ उजागर होती है।
दुख पर हावी गर्माहट : नाटक बँटवारे के दुख में भीगा हुआ है, लेकिन इस पर मानवीय संबंधों की गर्माहट हावी रहती है। बँटवारे के बाद लाहौर पहुँचे लखनऊ के एक परिवार को वहाँ एक कोठी आवंटित होती है। कोठी के असल मालिक हिन्दू जौहरी हैं और उसकी बूढ़ी माँ उसमें रहती है।
बूढ़ी माँ लाहौर से बेइंतहा मोहब्बत करती है और हिन्दुस्तान जाने को तैयार नहीं है। उन्हीं का जुमला है, 'जिन लाहौर नईं वेख्या, वो जन्म्या ही नईं'... यानी जिन्होंने लाहौर नहीं देखा, वह तो जन्मा ही नहीं।
यह सारी दास्ताँ असली है जिसे उस दौर के मशहूर शायर नासिर काजमी ने देखा-सुना। उसे ही नाटक में पिरोया असगर वजाहत ने और उसमें इस शायर का महत्वपूर्ण किरदार है। नाटक अंत में धर्म के नाम पर आतंक फैलाने वालों के खिलाफ एकजुट आवाज में तब्दील होता है।
कट्टरपंथी नाराज : नाटक को दोनों देशों के कट्टरपंथी पसंद नहीं कर रहे हैं। नाटक मुस्लिम कट्टरपंथियों के खिलाफ है। इसलिए पाकिस्तान में विरोध हुआ, भारत में इसका विरोध भाजपा और उसकी हिन्दुत्व ब्रिगेड ने किया। इसके चलते रविवार को दिल्ली में इसका मंचन कड़ी पुलिस सुरक्षा में हुआ, वहीं लखनऊ में इसका शो ही रद्द कर दिया गया।- भाषा सिंह