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Written By WD

स्थायी विकास के लिए गांधी की दूरदृष्टि

-एडमिरल विष्णु भागवत

स्थायी विकास के लिए गांधी की दूरदृष्टि -

विकास पर महात्मा गांधी के विचारों पर पूर्व नौसेना प्रमुख एडमिरल विष्णु भागवत

के आलेख की अंतिम कड़ी...


WD
वर्ष 2013 में संयुक्त राष्ट्र ने एक स्थायी, टिकाऊ विकास के मॉडल, उद्‍देश्य की खोज की घोषणा की थी, जो कि न केवल आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणीय और सभी के ल‍िए समान हो। गांधी के विचार ठीक ऐसे ही थे और उनकी दूरदृष्टि में संपूर्ण मानव जाति और 'धरती मां' भी शामिल थी।

उन्होंने प्रभावी आर्थिक व्यवस्था को एक ऐसी खतरनाक आर्थिक स्थिति या एक पाइंट ऑफ नो रिटर्न (एक ऐसी स्थिति से जहां से वापसी संभव न हो) की ओर जाते देखा। दो ‍तिहाई पृथ्वी की जरूरत पड़ेगी अगर लोग 10 फीसद भाग का उपभोग करते रहे, दूषित करते रहे और बर्बाद करते रहे। ये लोग पृथ्वी के 70 फीसद सीमित, अपूरणीय संसाधनों का उपयोग करते रहे तो वह भावी पीढ़ियों के लिए कुछ नहीं छोड़ेंगे।

अब 2013 में क्रमिक निकासी संभव नहीं है। इसके लिए समय बहुत कम बचा है। हमें बुनियादी मानवीय जरूरतों को पूरा करने के लिए आर्थिक विकास को रोकने की जरूरत है, जैसा कि क्यूबा और भूटान में है। इस बात को गांधी और अन्य दूसरे वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न बुद्धिजीवियों ने परिभाषित किया है और ऐसे लोगों में बोलीविया के राष्ट्रपति इवो मोराल्स भी शामिल हैं, जो ‍कहते हैं- 'अच्‍छी तरह से जीओ, क्योंकि पृथ्वी मां को बचाने के लिए आप बेहतर तरीके से नहीं जी सकते हैं।'

गांधीजी ने यह बात एक सार्वभौमिक पैमाने पर महसूस कर ली थी कि हमारे सामने संपूर्ण समाज को क्रांतिकारी पुनर्निर्माण अथवा अदूरदर्शी लड़ने वाले वर्गों और देशों की सामूहिक बर्बादी में से किसी एक को चुनने की जरूरत है। महात्मा गांधी ने एक क्रांतिकारी का जीवन जिया और वास्तव में लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम में उनके उदाहरण को अपनाया...।

क्या उन्होंने हमसे अधिक उत्तम जीवन नहीं जिया जबकि हम मध्यम और उच्च वर्गों में रहकर परजीवियों का जीवन जीते हैं और उन लोगों के अधिकार छीनते हैं, जो कि दिन-रात मेहनत करते हैं? पृथ्वी का विनाश पूरी तरह से जारी है, समुद्र, भूमि और हवा, पानी और वनों के संसाधनों को समाप्त किया जा रहा है जिनके बिना हम अपना भोजन भी नहीं पैदा कर सकेंगे और पृथ्वी पर जीवन भी नहीं बचा रह सकेगा।

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इसके लिए हमें प्रयोग में आने वाली सीमा तक ही लाभ कमाना होगा, केवल इतना पैदा करना होगा कि अच्छी तरह से जी सकें, दूसरे देशों या क्षेत्रों पर हमला करने या उन्हें हथियाने की जरूरत छोड़नी होगी और सामूहिक विनाश के असीमित हथियारों का उत्पादन रोकना होगा।

इस्लाम के पैगम्बर ने कहा है कि 'थोड़ा और पर्याप्त, बहुत अधिक लेकिन ललचाने वाली चीज की तुलना में बेहतर है।' गांधी ने बार-बार कहा कि आपको यह पता लगाने की जरूरत है कि आप कितने संसाधन बर्बाद करते हैं और संसाधनों का किस तरह से बेहतर उपयोग किया जा सकता है।

दो समकालीन विचारकों और लेखकों- असीम श्रीवास्तव और आशीष कोठारी- का उद्धरण देते हुए कहा जा सकता है कि मात्र पिछले अगस्त महीने में वर्ल्ड बैंक ने जानकारी दी कि प्रदूषण संबंधी बीमारियों के तौर पर, भूमि की उत्पादकता के नुकसान (भूमि क्षरण और रसायनों के नुकसान) और ऐसी ही अन्य बातों से भारत की कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 5.7 फीसद भाग पर्यावरणीय नुकसान के कारण होता है।

उल्लेखनीय है कि वर्ल्ड बैंक एक ऐसी एजेंसी है, जो कि आर्थिक वृद्धि पर सवाल खड़े करने के लिए नहीं जानी जाती है। यह अध्ययन कुछेक तरह के नुकसानों तक ही सीमित था ले‍क‍िन इसमें अगर सभी तरह के नुकसानों का आकलन किया जाए तो बहुत संभव है कि भारत की वृद्धि की प्रसिद्ध कहानी पूरी तरह से निरर्थक साबित हो रही हो।

जुलाई 2013 के एशियन विकास बैंक के एक दस्तावेज में ठीक वैसा ही निष्कर्ष निकाला गया है, जैसा कि जोसेफ स्तिगलित्ज ने अपनी पुस्तक 'द प्राइस ऑफ इनइक्वलिटी' में लिखा है कि '‍व‍िकास की संभावनाएं अब आर्थिक असमानता और पर्यावरणीय अपकर्ष के कारण संकट में हैं.. अगर एशिया अपने स्थापित विकास मार्ग पर चलता रहता है तो आर्थिक वृद्धि पूरी तरह से गैरआर्थिक बन जाएगी।'

जीडीपी वृद्धि और प्रति व्यक्ति उपभोग व्यावहार‍िक बुद्ध‍ि की समझ से बहुत आगे निकल गए हैं। पिछले 200 वर्षों से अधिक समय से पश्चिमी देशों के आगे निकलने, उसकी संपन्नता और उपभोग की बातें की जा रही हैं लेकिन यह भी मात्र सत्ताधारी वर्ग के लिए संभव हुआ है (जो कि मात्र 1 फीसद है और अपने उपनिवेशों और नव उपनिवेशों, इनके घेरे से बाहर और दक्षिण के क्षेत्रों, महाद्वीपों और स्थानीय लोगों के संसाधनों की असीमित लूटपाट से हासिल किया गया है)। इतना ही नहीं, उपभोग की वर्तमान दर से पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधन खत्म होते जा रहे हैं। जैसा कि पहले कहा गया है कि पृथ्‍वी के आवरण को अक्षरणीय जलस्तर, वनों, खाद्य, ताजी हवा, तेल, कोयला और खनिजों से रहित किया जा रहा है, जो कि हमारे उपभोग की क्षमता और कृत्रिम तौर पर पैदा की गई इच्छाओं से पैदा होती है।

गांधी की बुद्धिमता, दूरदृष्टि और भविष्य देखने की नजर में सभी देशों की नींव 'माया' से अंधी हो गई है। यह वृद्धि का धोखा मात्र है और मीडास टच (किसी भी चीज को सोने में बदलने) की क्षमता का आभास मात्र है।

यह गांधी का अपना ठेठ तरीका ही था जब उनसे लंदन में पूछा गया था कि क्या एक लंगोट और हल्का शॉल ठिठुराने वाली सर्दी के दिन के लिए पर्याप्त हैं, तब वे सम्राट से उनके भव्य, गर्म और ठाठदार कपड़ों के साथ लिपटे होने के समय मिल रहे थे। तब गांधी ने अपनी आंखों में हल्की चमक के साथ कहा था, 'आपने तो हम दोनों को सर्दी से बचाने लायक कपड़े पहन रखे हैं।'

बिहार या बंगाल अथवा नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रॉविंस (एनडब्ल्यूएफपी) या और कहीं नंगे पैर या फिर टायर सोल की चप्पलों में घूमते अपनी 80 वर्ष की आयु के दौरान गांधीजी की मियव्ययिता हजारों तस्वीरों और डॉक्टूमेंट्रीज में श्वेत-श्याम चित्रों के तौर पर पीढ़ियों के लिए सुरक्षित है। वे कहा करते थे कि 'प्रत्येक की जरूरत के लिए पृथ्वी पर सभी कुछ मौजूद है लेकिन उसके लालच के लिए नहीं है।' क्या गांधी से बड़ा कोई व्यक्ति अधिक की मांग कर सकता है?

चीन के प्रधानमंत्री जिया बाओ ने हाल ही में अपने देश की आलोचना करते हुए कहा था, 'बाहरी तौर पर चीन की ताकत एक ऐसे ढांचे में छिपी हुई है, जो कि लगातार अस्थिर, असंतुलित, असंगठित और अंतत: एक अस्थायी रास्ते पर चल रहा है।'

गांधी ने हमें एक व्यावहारिक तौर पर राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय दृष्टि से स्थायी रास्ता दिखाया है जिसकी उन्होंने सत्य के साथ अपने प्रयोगों के साथ रूपरेखा तैयार की थी (और यह भावी पीढ़ियों की जरूरतों के संबंध में थी)। उनके प्रयोगों ने एक समय पर ताकतवर ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें हिला दी थीं और इसके परिणामस्वरूप बहुत सारे एशियाई और अफ्रीकी देशों की आजादी और स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त हुआ था और अब यह मानवता को हथकड़ियों से आजादी दे रहे हैं जिनसे यह जकड़ी हुई है।

लाखों-करोड़ों लोगों ने उन पर भरोसा किया और उनका चरखा एक ब्रह्मास्त्र बनकर गांवों में मुक्त उद्यम का प्रतीक बन गया। अपने दिमाग में उन्होंने ग्राम स्वराज्य की कल्पना को साकार किया। इसका यह मतलब था कि बाजरा, ज्वार, जवारी, रागी की खेती की जाए जिनमें कम पानी लगता है और ये भूमि को उपजाऊ बनाती हैं। गाय और बकरियां, जो कि घर के बचे और छोड़े हुए खाने पर पल जाती हैं, को पाला जाए जिससे लोगों और प्रकृ‍‍त‍ि, पर्यावरण के बीच सामंजस्य का प्रतीक रूप सामने आए। साथ ही, उन प्रजातियों के साथ रहें जिनके साथ हम पृथ्वी साझा करते हैं।

इसका मतलब है कि हमें मिट्‍टी और इसके बहुमूल्य सूक्ष्म जीवों, केंचुओं को नष्ट करने वाले रसायनों की जरूरत नहीं है। हमें कीटनाशकों की जरूरत नहीं है, जो कि पौधों, जैवविविधता को सुरक्षित रखने वाले हितैषी जीवन के रूपों को नष्ट करें। सैकड़ों वर्षों की अवधि में बने कुओं और जल संसाधनों को पानी देने वाले प्रकृति के जलदायी स्तरों की जरूरत है, बोरवेल्स की नहीं, जो कि बहुत छोटी पानी की नालियों को, पानी और इसके पौष्टिक चक्र को तोड़ते हैं। 'टर्मिनेटर' बीजों और जीएम पौधों की जरूरत नहीं है, जो कि जीवन को अलग कर देते हैं और जो पौधों, प‍शु और मानव जीवन को नष्ट कर देंगे, मार देंगे।

बार-बार कृषि कारोबार को कम सक्षम बताया गया है जबकि योरप, अमेरिका और कनाडा में इसे भारी सब्सिडीज दी जाती हैं और ये प्रति एकड़ बहुत अधिक खाद्य पैदा कर रहे हैं जबकि हमारी गहन, छोटे खेतों, जै‍विक खाद और इको फॉर्मिंग ( पर्यावरण हितैषी खेती) कम हानिकारक और पर्यावरण को कम नुकसान पहुंचाने वाली है। यह लोगों को आजीविका उपलब्ध कराने और अफ्रीका, एशिया या लैटिन अमेरिका में जमीन पर निर्भर सभी समुदायों के लिए कहीं अधिक श्रेष्ठ है।

यह एक ऐसी दुनिया थी जिसे गांधी चाहते थे कि आने वाली पीढ़ियां विकसित करें ताकि मनुष्य और प्रकृति सहकारिता के जरिए शांतिपूर्ण अर्थव्यवस्‍था को बना सकें। यह एक सहकारी जीवन दर्शन होगा जिसमें एक आदमी द्वारा दूसरे आदमी के शोषण के बिना जी सके और काम कर सके।

गौतम बुद्ध के धम्म और ईसा के बाद के समुदायों में इसका उल्लेख है लेकिन निश्चित रूप से कृषि के निगमीकरण का नहीं है, जैसा कि यह भारत की 12वीं पंचवर्षीय योजना में उल्लिखित है। हम अपने आपको तैयार माल का उपभोक्ता मानते हैं और साथ ही वह प्रासेसर (संसाधक), जो कि तैयार माल को बनाता है लेकिन ऐसा कोई कारण नहीं है कि हम तैयार माल के क्रेता और संसाधक नहीं हो सकते हैं, जो कि तैयार माल बनाता है।

इस तरीके से आप सभी बिचौलियों को दूर कर सकते हैं और नई आर्थिक गतिविधि के जरिए रोजगार पा सकते हैं, क्योंकि यहां से आत्मनिर्भरता आती है, गर्व और स्वतंत्रता का एक भाव पैदा होता है और इसी को गांधी ने तमिलनाडु के इलांगो गांव में ग्राम स्वराज का नाम दिया था।

जो कुछ गांधी ने हमें दिया जब हम उसे छोड़ देते हैं तो हम 'झूठे देवताओं' की पूजा करने लगते हैं, जो कि हमसे झूठे वादे करते हैं, तब गांधी तमाशा बन जाते हैं जिनकी समाधि पर हम 2 अक्टूबर और 30 जनवरी को अपनी झूठे चढ़ावे चढ़ाते हैं।

भारत में 45 करोड़ या इससे ज्यादा लोग अपनी आजीविका के लिए कृषि, गीली जमीन, सूखी जमीन, जलस्रोतों और वनों पर निर्भर करते हैं और प्रकृति उन्हें उनकी 90 फीसद आय उपलब्ध कराती है। अगर इन सभी लोगों को जमीन से बेदखल कर दिया जाता है तो उद्योग कैसे इन लोगों को काम उपलब्ध करा सकता है? केवल संपन्न लोगों के लिए घर बनाने का काम करेंगे? हम उनसे क्या करवाना चाहेंगे...? क्या ये लोग फेरारी या जेएलआर बनाएंगे? वह आर्थिक मॉडल क्या होगा जिसके जरिए हम 45 करोड़ लोगों के लिए वैकल्पिक रोजगार मुहैया कराएंगे? यूएनईपी के पवन सचदेव यह सवाल पूछते हैं।

भारत की विशेष किस्म की परिस्थ‍ित‍ियों, भूमि और परंपराओं के साथ गांधी ने कभी इस पर विचार नहीं किया कि इसे विश्वव्यापी दुनिया की अर्थव्यवस्था से जोड़ा जाए। विश्वव्यापी दुनिया की अर्थव्यवस्था का पश्चिमी ढांचा एक लापरवाह, परभक्ष‍ी, वैश्विक वित्त का है, जो कि संपत्तियों के पोर्टफोलियोज (निवेश सूची) के आसानी से होने वाले हस्तांतरण को करने के लिए बेरोकटोक चलने वाले भूमि और संपत्तियों के बाजार पैदा करते हैं।

उदाहरण के लिए ये 'इंडिया बुल्स' या ब्लैक स्टोन्स हो सकते हैं और अब तो इन मुखौटों या मोहरों की भी जरूरत नहीं रही, क्योंकि अब शत-प्रतिशत एफडीआई का जमाना आ गया है। आजीविकाएं कम होती जाती हैं और ठेकेदार, डेवलपर्स, सेज मालिक, नौकरशाह और राजनीतिज्ञ शहरी मध्यम वर्ग और ग्रामीण क्षेत्रों के संपन्न वर्ग से चिपके रहते हैं, जो कि खुद को अधिकाधिक संपन्न बनाना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि लोगों को बेदखल कर डकैती डालने और लूटने वालों का नया वर्ग पैदा हो गया है। उद्योग को भी यह महसूस करना होगा ‍‍क‍ि सभी आर्थिक गतिविधियां एक पर्यावरणीय ढांचे में संपन्न होती हैं- वास्तव में उद्योग कुदरती सब्सिडीज पर चलते हैं- इसे कृषि औद्योगिक गतिविधियों के लिए पानी, बिजली मिलती है। जबकि उद्योग प्रकृति को खराब करता है, नष्ट करता है तो यह मानसून की भरपाई कैसे करेगा? यह प्रश्न क्लाड अल्वारेज पूछते हैं।

मैं यहां वियतनाम के गांधी हो ची मिन्ह की एक प्रसिद्ध कविता को याद करता हूं : 'हमारे पहाड़ और नदियां हमेशा ही बने रहेंगे... निश्चित तौर पर अमेर‍िकी आक्रमणकारी पराजित होंगे और हम अपने देश को दस गुना अधिक सुंदर बनाएंगे।' पर दुख की बात है कि ऐसा वैश्वीकरण से संभव नहीं होगा, जो ‍क‍ि नव उपनिवेशवाद या वैश्विक वित्तीय सत्ता पर पृथ्वी का निजीकरण करने वाले मुख्य रूप से बड़े बैंकों का कोड वर्ड है।

हमारे अपने देश में सरकार की अपनी रिपोर्ट,1997 के अध्यक्ष अर्जुन सेनगुप्ता के अनुसार हमारी श्रमशक्ति का 93 फीसद भाग अनियमित है। नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकॉनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर), नई दिल्ली के आंकड़ों के अनुसार भारत में नियमित अर्थव्यवस्था में आज केवल 2 करोड़ 80 लाख लोग ही रोजगारशुदा हैं। वर्ष 1929 में गांधी ने 'यंग इंडिया' में लिखा था, 'पाश्चात्य सभ्यता शहरी है।

इंग्लैंड और इटली जैसे छोटे देश अपनी व्यवस्थाओं को शहरी बना सकते हैं लेकिन बहुत छिटपुट जनसंख्या वाले बड़े देश अमेरिका के लिए ऐसा करना संभव नहीं हो सकता है। लेकिन अगर कोई सोचे कि बहुत अधिक जनसंख्या वाला एक बड़ा देश, जिसकी प्राचीन ग्रामीण परंपरा हो और जिसने अब तक अपना उद्देश्य सुनिश्तित कर रखा हो, उसे पश्चिमी मॉडल की जरूरत नहीं है और उसे इसकी नकल नहीं करना चाहिए। एक देश के लिए जो अच्छा है वह दूसरे विभिन्न तरह से स्थित देश के लिए जरूरी नहीं कि अच्छा हो।

1993 में गांधी जयंती के अवसर पर करीब 5 लाख किसानों ने बेंगलुरू में अपनी 'बीज सत्ता' को सुरक्षित रखने के लिए प्रतिज्ञा की। उन्होंने निजी टीएनसीज और एमएनसीज द्वारा बीजों और पौधों के संसाधनों को पेटेंट कराने को चुनौती दी। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वे भारत की जैवविविधता की रक्षा करेंगे और इनकी भारतीय कृषि के क्षेत्र में घुसपैठ का विरोध करेंगे। वर्षों से गांधीवादी तरीके से विरोध किया जा रहा है लेकिन फिर भी हमें डब्ल्यूटीओ शर्तों और जीएम एग्रीबिजनेस का सामना करना पड़ रहा है। ये लोग अपनी कृषि की रक्षा के लिए प्रत‍िदिन 2 अरब डॉलर की सब्सिडी दे रहे हैं, पर हम पर दबाव है कि हम खुद को एओए (एग्रीमेंट ऑन एग्रीकल्चर) और इंडो-यूएस नॉलेज इनीशिएटिव इन एग्रीकल्चर के लिए खोलें, हम जीईएसी बोर्ड में बैठने वाली बड़ी कंपनियों जैसे बीटी मोनसैंटो, आर्चर-डैनियल्स और वालमार्ट के नेतृत्व वाली बीज क्रांति के लिए दरवाजे खोल दें। इस प्रकार हम अपनी डब्ल्यूटीओ-आईएमएफ की नीतियों से प्रेर‍ित कहानी में सबसे अधिक समय तक किसानों की आत्महत्याएं देख चुके हैं।

आज गांधी हमारे साथ नहीं हैं और डॉ. मनमोहन सिंह कहते हैं कि एक ऐसे समय (इनफ्लेशियन पाइंट) पर जब भारतीय अर्थव्यवस्था और वे अर्थव्यवस्थाएं, जो कि हमें प्रोत्साहित करती हैं, खतरनाक स्थिति को टालने में मदद कर रही हैं तब वैश्वीकरण की नीति को बदला नहीं जाएगा। कहने का अर्थ है कि हमारी पॉलिटिकल इकॉनोमी (राजनीतिक अर्थव्यवस्था) को अधिकाधिक तौर पर वैश्विक वित्त और वैश्विक आर्थिक सत्ता केंद्रों के हवाले किया जाएगा। जबकि लोग कुछ और ही कहते हैं : 'ये लोग हमें चैन से जीने नहीं देंगे। ये लोग बॉक्साइट की चट्‍टानों को पहाड़ों से ले जाना चाहते हैं। अगर वे इन चट्‍टानों को दूर ले जाते हैं तो हम कैसे जिएंगे? क्योंकि इनके कारण ही बरसात होती है, सर्दी में ठंडी हवा चलती है और मानसून सारा पानी लाता है। अगर वे इन चट्‍टानों को ले जाते हैं तो हम मर जाएंगे। हमने अपनी आत्मा खो दी है, नियामगिरी हमारी आत्मा है।'

गांधी का अनुकरण करते हुए नेशनल फोरम ऑफ फॉरेस्ट पीपुल एंड फॉरेस्ट वर्कर्स ने जून 2009 में कहा था, 'हम दुनिया के जंगलों के लोग हैं, हम जंगलों में रहते रहे हैं, जंगल के फलों और इसकी फसलों पर गुजारा करते रहे हैं, जूम लैंड पर खेती करते रहे हैं, अपने झुंडों के साथ घूमते रहे हैं- हमने सदियों से इस जमीन पर काम किया है और इस पर कब्जा रखा है। हम पूरी एकता और एकजुटता के साथ जोरदार घोषणा करते हैं कि इस बात में कोई संदेह नहीं रहे कि हम ही जंगल हैं और जंगल ही हम हैं।'
सारी दुनिया में मल्टी नेशनल कॉर्पोरेशंस (एमएनसीज) या टीएनसीज चीन समेत सारी दुनिया में वर्ष 2007 में केवल 2 करोड़ 90 लाख कर्मचारियों को नौकरी देते हैं। ये अपने गृह देशों में ही बहुत कम टैक्स देते हैं और अपने लाभ का ज्यादातर हिस्सा और इकट्‍ठा की गई अतिरिक्त आय को करों में छूट वाले ऑफशोर फाइनेंशियल सेंटर में रखते हैं। क्या ये कंपनियां दुनिया में करोड़ों लोगों को कारोबार देंगी जबकि इनके अपने ही देशों में बेरोजगारी या कम रोजगार नए रिकॉर्ड बना रही है और वहां यह अवांछनीय स्तर पर है?

उच्च और मध्यम वर्ग के लोगों और मीडिया के साथ यह लगभग एक आदत बन गई है कि वे हमारे स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेताओं के कथित मतभेदों को चुन-चुन करके व‍िशिष्ट रूप से दर्शाते हैं जबकि वास्तव में रिकॉर्ड और जमीनी तथ्य यह दर्शाते हैं कि वे दो बड़ी चुनौतियों का सामना करने के लिए एकजुट थे। दो बड़ी चुनौतियों में से एक थीं लोगों को विकास के केंद्र में रखना और उनका आकलन करना तथा उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद को समाप्त करना ताकि दोनों ही बुरी शक्तियों को पराजित किया जा सके। गांधीजी ने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि 'एक देश की महानता इस बात में निहित होती है कि यह अपने सबसे कमजोर सदस्यों के साथ कैसा व्यवहार करता है।'

विभिन्न समयों पर प्रयोग की गई अभिव्यक्तियों में और उनकी बारीकी में बहुत थोड़ा- सा ही अंतर था, लेकिन गांधीजी, जवाहरलाल नेहरू, डॉ. अम्बेडकर, सुभाषचंद्र बोस, मौलाना आजाद और खान अब्दुल गफ्फार खान पूर्वोक्त उद्देश्यों और लक्ष्यों को हासिल करने में लगे रहे। 1946-47 के दौरान विभाजन की तैयारी के दौरान गांधीजी अन्य लोगों से अलग हो गए, क्योंकि वे लोग देख सकते थे कि दक्षिण एशिया में ऊर्जा, समय और कीमतों को लगाना बिलकुल बर्बादी हो सकती है। इससे परस्पर विनाशकारी लड़ाइयां, संघर्ष और हिंसा आने वाली कई पीढ़ियों को देखनी पड़ेंगी और इससे केवल सत्तारूढ़ वर्गों को ही लाभ होगा। इस बात को शेख अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा में अपने भाषण के दौरान स्पष्ट तरीके से कहा था। इसलिए यहां इस बात पर गौर करना और जरूरी होगा कि कट्‍टर दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी ताकतों ने मुस्लिम लीग द्वारा समर्थिन दो देशों के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया।

हालांकि इस बात का जोरदार विरोध किया गया कि गांधीजी ने 50 करोड़ रुपए पाकिस्तान को दिए। बाद में, यह बात स्पष्ट हो गई थी कि क्यों 50 करोड़ देने का कटु प्रचार फैलाया गया था ताकि गांधी की हत्या की उनकी वास्तविक योजनाओं पर एक पर्दा डाला जा सके और यह इन शक्तियों का असली अवतार, असली तस्वीर थी, जो कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद और ब्रिटिश खुफिया एजेंसियों के लिए प्रति‍निधि का काम करते थे।

गांधीजी ने 15 अगस्त, 1947 की रात दिल्ली से बहुत दूर एक गांव में गुजारी थी, जहां वे सांप्रदायिक हिंसा को समाप्त करने में लगे थे और यह हिंसा भी वहां झूठे बहानों पर आधारित थी। इसका असली कारण आर्थिक अन्याय और जमींदारों का उत्पीड़न था जिससे वे किसानों और ग्रामीण श्रमिकों को अपना निशाना बनाते थे। इस बात को गांधीजी ने अथक रूप से कहा था।

उन्हें पता था कि उपमहाद्वीप में सत्तारूढ़ या संपत्तिशाली वर्ग हिंसा फैलाकर बड़े पैमाने पर लोगों की मुक्ति को रोकने का प्रयास करेगा और स्वतंत्रता संग्राम में जिस समतामूलक धर्मनिरपेक्ष राज्य का वादा किया गया था उसे रोकेगा ताकि लोग सच्चे अर्थों में आंदोलन का नेतृत्व करने वाले न बन सकें। इसका पूरा उद्देश्य था कि साम्राज्यवादरोधी और उपनिवेशरोधी ताकतों को कमजोर किया जा सके।

इसलिए करीब 80 वर्ष के बूढ़े और कमजोर आदमी को खत्म किया गया, क्योंकि वह उपमहाद्वीप में तब भी ब्रिटिश साम्राज्य और इसके बिचौलियों के लिए एक समर्थ खतरा था। उन्होंने यह समझ लिया था कि वह सत्ता प्रतिष्ठान से अलग रहकर भी लोगों को आंदोलित कर सकता था और उन्हें उन नीतियों और कार्यक्रमों के खिलाफ एकजुट कर सकता था, जो कि उनके जीवन के बुनियादी आत्मसम्मान को खतरे में डालती हों। इसलिए जो गोलियां ब्रिटिश साम्राज्य नहीं चला सका और जो प्रक्रिया 1934 में महाराष्ट्र में शुरू हुई थी, ने उसे मार गिराया। सारा देश रोया और दुखी हुआ लेकिन हम उसे खो चुके थे और उसके साथ ही हमने वह भी खो दिया जिसे दुनिया ने खोया था।

उस समय मैं एक छोटा लड़का था और एक स्कूल में पढ़ता था, जो कि गंगा और वरुणा के संगम पर स्थित था। हमारी प्राचार्य श्रीमती तेलंग ने हमें इकट्‍ठा किया और बताया कि बापू की एक हत्यारे ने गोली मारकर हत्या कर दी है। उनके अंतिम शब्द थे- 'हे राम'। हम बच्चे अपने अध्यापकों के साथ रोए। बापू का निधन हो गया था लेकिन हमें इस तथ्य के अलावा बहुत कम जानकारी थी कि उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया और ब्रिटिश लोगों को भारत से बाहर खदेड़ दिया।

जैसे-जैसे समय गुजरता गया हमें बापू के बारे में जानकारी मिलती गई... मुझे अभी भी दुनिया पर उनके स्थायी असर को पूरी तरह से समझना बाकी है और साथ ही भावी पीढ़ियों पर भी, जो कि उन्हें बड़ी उम्मीद के साथ याद रखेंगी और उनका एक उदाहरण के तौर पर अनुकरण करेंगी।

राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन प्रभातफेरियों और गानों से गूंजता था जिसमें लोग गाते थे, 'चरखा चला, चला के लेंगे स्वराज... हम'। संघर्ष के तीन दशकों के दौरान गांधी का संदेश था कि 'लोगों, देशों और महाद्वीपों को साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा हड़पना बंद हो... बाजारों पर कब्जा करना बंद हो, निजीकरण को रोको... सार्वजनिक जमीन, जंगल, पहाड़ और पर्वतमालाएं और नदियां और जलाशय लोगों के पास ही रहें।'

सच्चे वैश्वीकरण का अर्थ पृथ्वी के लोगों के मध्य परिपक्व सांस्कृतिक समझ विकसित होना चाहिए जिससे हथियार के उद्योग बेकार हो जाएंगे और लोग मुक्त गतिविधियों के तहत सीमा पार आ-जा सकेंगे। इससे हम जो समझते हैं उसका अर्थ है नियंत्रण मुक्त अंतरराष्ट्रीय वाणिज्य और निवेश, जो कि वैश्वीकरण के नाम पर चले यह उपनिवेशवाद का एक अच्छी तरह से बनाया गया स्वरूप हो।

यह इतना परिष्कृत हो कि इसमें राष्ट्रीय मध्यस्थों के वर्ग को भी संपन्न औद्योगिक देशों में प्रभावी सत्तारूढ़ वर्गों के साथ शोषण से मिली राशि का बंटवारा करने की भी गुंजाइश हो। इसका सर्वाधिक विनाशकारी पारिस्थितिकीय व सामाजिक परिणाम होता है और यह स्पष्ट रूप से अस्थायी है क्योंकि पृथ्वी के मंथन से पर्यावरणीय लागतें अधिक गरीब देशों पर केंद्रित हो जाती हैं।

वैश्वीकरण या पुन:उपनिवेशवाद की कोशिश का यह भी अर्थ है कि अधिकतम लाभ एक थ्रोअवे कल्चर (इस्तेमाल के बाद फेंक दिए जाने वाली संस्कृति) को मिलता है। इससे पूरी तरह से मानव जीवन की बेहतरी या मानवीय सुख का कोई लाभ नहीं होता, जैसा कि गांधी ने बार-बार इस बात पर जोर दिया था।

गौरतलब है कि गांधी हमारे समय के संरक्षणकर्ता और पर्यावरणविद हैं। 1991 के बाद की सुधारवादी सरकारों ने उन बुनियादी मूल सिद्धांतों पर ध्यान नहीं दिया, जो कि गांधी ने हमें दिए। उनका कहना था कि 'हमारे समाज में ये विशेषताएं होती हैं- 1. एक विशाल और लगातार बढ़ते बिक्री की कोशिशें, जो कि उत्पादन के ढांचे पर गहरा असर डाले। 2. बहुत अमीर लोगों के लिए ऐशोआराम की चीजों का उत्पादन, जो कि 10 फीसदी या 1 फीसदी तक हो सकता है। 3. असाधारण सैन्य और दंडविषयक सरकारी खर्च। 4. नियोजित मूल्यह्रास जिसमें मनोवैज्ञानिक मूल्यह्रास भी शामिल है। 5. वित्त, बीमा और रीयल एस्टेट बाजारों के रूप में सट्‍टेबाजी के एक पूरे ढांचे का विकास। (जॉन फॉस्टर और ब्रेट क्लार्क के शोध पत्र 'प्लानेटरी इमर्जेंसी' से)।

गांधीजी की बुनियादी विचारधारा को इस्तवान मेसजारोस के शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है, 'उनकी अर्थव्यवस्था का विचार मौलिक रूप से 'अर्थव्यवस्था' के पूंजीवादी उत्पादन से पूरी तरह बेमेल है, क्योंकि यह हमारी पृथ्वी के सीमित संसाधनों की लूटमार की हद तक बर्बादी करता है और इसके बाद यह मानव पर्यावरण को अपनी बहुत अधिक मात्रा में पैदा गंदगी और अपशिष्ट से प्रद‍ूषित और जहरीला बनाकर परिणामों को घातक बनाता है।

और आज के नेता क्या इस बात पर विश्वास करेंगे कि बाजार के जादू से पूरक तकनीक और जनसंख्या नियंत्रण समस्या को सुलझा सकते हैं जबकि 70 फीसद प्रदूषण और पर्यावरणीय, भूमंडलीय विनाश 10 फीसद से भी कम लोगों द्वारा पैदा होता है। अगर हम पढ़ें कि गांधी ने क्या कहा और जिसका अभ्यास किया तो हम इस जादू या चमत्कार के करीब पहुंच सकते हैं कि हम और सभी लोगों को धरती माता को बचाने और शांतिपूर्ण तथा सुखी जीवन जीने की जरूरत है।