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यह दुखद तथ्य है कि इस बीमारी के अलावा अन्य बीमारियों के मृत्यु आँकड़े भी बढ़ते क्रम में पाए गए हैं। बढ़ती बीमारियाँ राष्ट्रीय स्तर पर जिस चिंता का विषय बननी थीं वह नहीं बनी और अन्तत: हर प्रदेश के हर शहर में आग लगने पर कुआँ खोदने की स्थिति दिखाई दीं। बीमारियों से लड़ने के लिए जिस प्रकार की मुस्तैदी और सावधानी अपेक्षित थी बड़े अस्पतालों में ही वह नदारद थी। ऐसे में छोटे शहरों और गाँवों की हालत का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। एक स्वाईन फ्लू को कुछ देर के लिए हाशिए पर रख भी दें तो बीते साल डायबिटीज, ब्लडप्रेशर, कैंसर(सभी प्रकार के), एड्स, डेंगू, प्रसव मृत्यु, हार्ट अटैक, अस्थमा, मलेरिया, हेपेटाइटिस, टीबी, ब्रेन ट्यूमर, ब्रेन हैमरेज से मरने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है।
जहाँ इन बीमारियों पर नियंत्रण जैसी स्थिति देखी गईं वहाँ भुखमरी, अवसाद, उन्माद व त्वचा संबंधी रोगों ने अपना जाल फैला रखा है। साल 2009 प्राकृतिक आपदाओं के लिए नहीं बल्कि जनता की खुद बुलाई आपदा के लिए अधिक जाना जाएगा। क्योंकि स्वच्छता और पोषण इन दो मोर्चों पर जनता द्वारा बरती असावधानियाँ ही नई-नई बीमारियों की जनक बनीं।

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विशेषज्ञों ने बताया कि संक्रमित व्यक्ति के खाँसने या छींकने से, उन वस्तुओं को हाथ लगाने से जिसे संक्रमित व्यक्ति ने छुआ हो, संक्रमित व्यक्ति स्वयं के लक्षण आने के एक दिन पहले से सात दिन बाद तक इसे फैला सकता है। बीमारी के फैलते ही फेस मास्क व रेस्पिरेटर बचाव के लिए तेजी से प्रयोग में आने लगे। वायरस को ज्यादा प्रभावशाली तरीके से दूर रखने के हरसंभव उपाय खोजे जा रहे हैं। अभी तक इसका टीका बाजार में उपलब्ध नहीं है। आसिलटेमाविर (टेमीफ्लू) नाम की दवा लक्षण आरंभ होने के 48 घंटे के अंदर शुरू करने की सलाह दी जा रही है।
आमतौर पर पशुओं और पालतू जानवरों को होने वाले वायरस के हमले कभी इंसानों तक नहीं पहुँचते। इसकी वजह यह है कि जीव विज्ञान की दृष्टि से इंसानों और जानवरों की बनावट में फर्क है। देखा यह गया था कि जो लोग सूअर पालन के व्यवसाय में हैं और लंबे समय तक सूअरों के संपर्क में रहते हैं, उन्हें स्वाइन फ्लू होने का जोखिम अधिक रहता है।
मध्य 20वीं सदी से अब तक के चिकित्सा इतिहास में केवल 50 केसेस ही ऐसे हैं जिनमें वायरस सूअरों से इंसानों तक पहुँचा हो। ध्यान में रखने योग्य यह बात है कि सूअर का माँस खाने वालों को यह वायरस नहीं लगता क्योंकि पकने के दौरान यह नष्ट हो जाता है।
वर्ल्ड ऑर्गनाइजेशन फॉर एनिमल हैल्थ ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि यह वायरस अब केवल सूअरों तक सीमित नहीं है, इसने इंसानों के बीच फैलने की कुवत हासिल कर ली है। अमेरिका में 2005 से केवल 12 मामले ही सामने आए थे। एन्फ्लूएंजा वायरस की खासियत यह है कि यह लगातार अपना स्वरूप बदलता रहता है। इसकी वजह से यह उन एंटीबॉडीज को भी छका देता है जो पहली बार हुए एन्फ्लूएंजा के दौरान विकसित हुई थीं। यही वजह है कि एन्फ्लूएंजा के वैक्सीन का भी इस वायरस पर असर नहीं होता।
क्या है खतरा
1930 में पहली बार ए1एन1 वायरस के सामने आने के बाद से 1998 तक इस वायरस के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। 1998 और 2002 के बीच इस वायरस के तीन विभिन्न स्वरूप सामने आए। इनके भी 5 अलग-अलग जीनोटाइप थे। मानव जाति के लिए जो सबसे बड़ा जोखिम सामने है वह है स्वाइन एन्फ्लूएंजा वायरस के म्यूटेट करने का जोकि स्पेनिश फ्लू की तरह घातक भी हो सकता है। चूँकि यह इंसानों के बीच फैलता है इसलिए सारे विश्व के इसकी चपेट में आने का खतरा है।
कैसे बचेंगे

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ताजा आँकड़े
दिसंबर 2009 के ताजा आँकड़ों के अनुसार विश्व स्तर पर अब तक स्वाईन फ्लू के 6, 22,482 केस दर्ज हुए हैं। जबकि मरने वालों की संख्या 9596 तक पहुँच चुकी है। भारत में अब तक 21,731 केस स्वाईन फ्लू के पाए गए हैं और मरने वालों की संख्या 700 के आँकड़े तक जा चुकी है। चिंता का सबब यह है कि यह संख्या अभी भी लगातार बढ़ रही है। अमेरिका में इस बीमारी से 6131, युरोप में 1242, दक्षिण-पूर्वी एशिया में 814, पश्चिमी क्षेत्र में 848, मध्य पूर्वी क्षेत्र में 452 तथा अफ्रीका में 109 लोग मारे गए हैं।

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अत्यंत सावधानी और जागरूकता कार्यक्रम के बावजूद एड्स की बीमारी पर प्रभावी नियंत्रण नहीं पाया जा सका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया में एड्स के मरीजों की संख्या तीन करोड़ 34 लाख तक हो गई है, जिसमें 21 लाख बच्चे हैं। जबकि 2008 में तकरीबन 27 लाख नए लोग एचआईवी और एड्स से पीड़ित हुए। वायरस के शिकार ज्यादातर लोग निम्न और मध्यम आय वाले देशों से हैं लेकिन आज एड्स दुनिया भर के सभी देशों के पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के लिए खतरा बना हुआ है। इस रोग का पहली बार 1981 में पता चला और अब तक ढाई करोड़ लोग बीमारी से मर चुके हैं और तकरीबन हर दिन साढ़े सात हजार लोगों को नया संक्रमण होता है। एड्स से निपटने के लिए दुनिया भर में खास कार्यक्रम चल रहे हैं।
वर्ष 2009 के आँकड़े परेशानी में डालने वाले हैं। 5.2 मीलियन एचआईवी पीड़ितों में 40% भारतीय हैं और उनमें भी अधिकांश महिलाएँ हैं जिन्हें यह रोग अपने पति या पार्टनर से मिला है।
गर्भाशय कैंसर विश्व भर में गर्भाशय कैंसर के 4,93,000 नए मामले आए हैं उनमें से 27 प्रतिशत यानी 1,32,000 तो मात्र अकेले भारत में ही हैं। और अगर इससे होने वाली मौतों के आँकड़ों पर नजर डालें तो दुनिया भर में 2,73,000 औरतें इस गंभीर बीमारी का शिकार बनती हैं, इनमें से भी 27 प्रतिशत औरतें भारत से ही होती हैं यानी 74,000। यह स्पष्ट है कि इन औरतों को बचाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया जा रहा है।

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चूँकि जागरूकता कम है इसलिए इस रोग की स्क्रीनिंग भी कम ही होती है। गौर करें इन आँकड़ों पर कि प्रत्येक 3 सालों में 18 से 69 वर्ष की सभी भारतीय महिलाओं में से मात्र 2.6 प्रतिशत की ही स्क्रीनिंग हो पाती है।