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Written By WD

कपास में कीट एवं रोग नियंत्रण

कपास में कीट एवं रोग नियंत्रण -
कपास पर कीड़ों एवं रोगों का प्रकोप अधिक होता है। 'आवश्यकता-मूलक उपयोग' द्वारा 'जैविक फसल रक्षक' का छिड़काव इन कीड़ों एवं रोगों पर उचित नियंत्रण किया जा सकता है।

आवश्यकता मूलक उपयोग के लिए फसल पर 'आक्रामक कीड़े या रोग की पहचान व उनकी तीव्रता के अनुरूप' नियंत्रण के उपाय अपनाने चाहिए। इनसे बचाव के लिए भी जहाँ तक सम्भव हो, रोकथाम के उपाय अवश्य अपनाएँ। इन उपायों को अपनाने से कपास के कीड़ों एवं रोगों का कम खर्च में उचित नियंत्रण हो सकता है।

बाढ़ अवस्था में लगने वाले कीड़े एवं रोग पत्तियों का रस चूसने वाले कीड़े :

हरा मच्छर या फुदका (जैसिड) : शिशु व वयस्क हरे-पीले रंग के होते हैं व पत्तियों की निचली सतह पर रहते हैं। इनके आक्रमण से पत्तियाँ गहरी लाल होकर सिकुड़ जाती हैं। प्रारम्भिक बाड़ अवस्था (जून से सितम्बर) में इनका प्रकोप अधिक होता है। नर कपास पौधों, अमेरिकन नेक्टरीलेस पर इस कीड़ों का प्रकोप बहुत ही भयंकर होता है, इसलिए नियंत्रण के विशेष उपाय अपनाने चाहिए।

माहो या चेपा (एफिड) : शिशु व वयस्क हरे-पीले रंग के होते हैं व असंख्य संख्या में पत्तियों पर चिपके रहते हैं। कीड़े मीठा रसदार पदार्थ भी छोड़ते हैं, जिससे पौधों पर काली फफूंद लग जाती है। अगस्त से सितम्बर माह में इनका प्रकोप अधिक होता है।

अन्य कीड़े : तेला या थ्रिप्स (शिशु व वयस्क सूक्ष्म एवं हरे-पीले रंग के होते हैं) व सफेद मक्खी या व्हाइट फ्लाय (शिशु हरे सूक्ष्म एवं वयस्क सफेद होते हैं) बाढ़ अवस्था में कभी-कभी आक्रमण करते हैं।

रोकथाम के उपाय-

बीज बोते समय गड्ढों में 2 किलोग्राम यूरीना+3 किलोग्राम फास्फीना+ 4किलोग्राम पोटोरिच + 2 किलोग्राम ट्रायोहिट प्रति एकड के हिसाब से मिलाकर डालें। नर कपास पौधे व अमेरिकन नेक्टरीलेस, पर हरे मच्छरों का प्रकोप बहुत भयंकर होता है।

नियंत्रण के उपाय-
1 लीटर कोरीन + 1 लीटर नीमगो + 1 लीटर से 2 लीटर गोमूत्र + 4 लीटर सड़ी हुई छाँछ पानी में मिलाकर प्रति एकड़ पौधों पर छिड़काव करें।

पत्तियों को खाने वाले व तना छेदक कीड़े-

पत्तियों को नुकसान पहुँचाने वाले कीड़ों में हरी इल्ली या सेमीलूपर (इल्लियाँ हरे रंग की होती हैं व शरीर मोड़कर चलती हैं) व पत्ती लपेटने वाली इल्ली या लीफ रोलर (इल्लियाँ चमकीले गहरे रंग की होती हैं व पत्तियों को लपेटकर उनमें रहती हैं) मुख्य हैं। इन इल्लियों का प्रकोप अगस्त से अक्टूबर माह में होता है। तना छेदक इल्ली प्रारम्भिक बाढ़ अवस्था में तनों में छेदकर नुकसान करती हैं।

नियंत्रण के उपाय-

2 लीटर नीमगो + 4 लीटर गोमूत्र + 4 लीटर सड़ी हुई छाँछ मिलाकर प्रति एकड़ पौधों पर छिड़काव करें। मुड़ी हुई पत्तियों को तोड़कर नष्ट कर दें।

जड़-सडन रोग : यह रोग फफूंदों से होता है व हलकी जमीनों में अधिक पाया जाता है। इस रोग में पौधों की जड़ें सड़ने लगती हैं एवं पौधे मरने लगते हैं।

रोकथाम के उपाय-

15 से 20 ग्राम ट्रायोहिट प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से उपचारित कर बोएँ। रोगग्रस्त पौधे निकालकर नष्ट कर दें।

नियंत्रण उपाय-

1 किलोग्राम ट्रायोहिट 50 लीटर पानी में घोलकर पौधे के गौड़ में छिड़काव करें।

काले धब्बे वाला रो

(ब्लैक आर्म) : यह रोग शाकाणुओं के द्वारा होता है। पत्तियों पर गाढ़े भूरे रंग के नुकीले धब्बे बनते हैं व ये धब्बे पत्तियों की नसों के बाजू से फैलते हैं। धब्बे शाखाओं एवं बीडियों (डेडूओं) पर भी पाए जाते हैं। रोग ग्रसित पत्तियाँ एवं डेण्डू झड़ने लगते हैं। यह रोग बीज द्वारा फैलता है।
रोकथाम के उपाय-

ट्रायोहिट उपचारित बीज बोएँ।

नियंत्रण के उपाय-

2 लीटर नीमगो + 4 लीटर गोमूत्र + 4 लीटर सडी हुई छाँछ पानी में घोलकर छिड़काव करें। (अहिंसक खेती)