कृषि प्रधानता में उपेक्षित किसान
बजट जैसे महत्वपूर्ण अवसर पर भी संसद किसान मुद्दे पर ठप हो रही है। खेद है कि अब तक इस बारे में स्पष्ट नीति नहीं बन सकी है। प्रत्येक आधे घंटे में एक किसान आत्महत्या कर रहा है। सन् 2006 में सत्रह हजार से अधिक किसानों ने मौत को गले लगाया। इनमें ज्यादातर किसान महाराष्ट्र, आंध्र, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश के थे।सात वर्षों में एक लाख किसान अपने प्राण दे चुके हैं। राजनीतिक दलों और सरकारी विभागों ने इस पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया है। आज भी अनेक किसान स्वयं को विपदा का सामना करने में असमर्थ पाकर निराशा मेंडूब रहे हैं।भारत जैसे कृषि प्रधान देश के साठ करोड़ किसानों की यह हताशा भारत की सुख, समृद्धि व प्रगति के सपनों पर एक बड़ा सवाल है। आर्थिक समीक्षा कृषि वृद्धि दर में कमी की आशंका व्यक्त कर रही है। दस पंचवर्षीय योजनाओं में एक लाख करोड़ रुपया कृषि व संबद्ध ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में निवेश हो चुका है। मगर देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का अंशदान 53 प्रतिशत से घटकर 18 प्रतिशत रह गया है। कृषि विकास की दर 2.4 प्रतिशत वार्षिक रह गई है।हाल ही मेंकेंद्र सरकार ने प्रो. एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले आयोग की सिफारिशों पर बनी राष्ट्रीय किसान नीति 2007 को स्वीकृति भी दी है। कृषि ऋण पर ब्याज दर घटाने और कृषकों को आसान शर्तों पर ऋण देने की सुविधा पर जोर दिया गया है। पानी, बिजली, सड़क औरविपणन व्यवस्था सुधारने पर जोर दिया जा रहा है। कृषि और ग्रामीण विकास में निजी क्षेत्र और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भूमिका बढ़ाई जा रही है। संविदा कृषि और व्यापारिक खरीद-बिक्री उभर रहे हैं। सरकार के कार्यक्रमों का लाभ गिने-चुने बड़े धनी किसानों को मिल रहा है। अधिकांश किसान जो सीमांत या भूमिहीन किसानों की श्रेणी में आते हैं, कर्ज के भार से दबे हुए हैं और रोजमर्रा की जरूरतें भी जुटा नहीं पाते हैं। वे सब गरीबी की रेखा के नीचे आते हैं।लघु कृषकों की भूमि व संपत्ति छीनी जा रही है। कृषि मंत्री पवार ने किसानों पर बकाया कर्ज में से 30 करोड़ रुपए के कर्ज की माँग की है।वित्तमंत्री से उम्मीद है कि वे आज शुक्रवार को 2008-09 के बजट को पेश करने में इसे मान लेंगे। मगर इससे समस्या हल नहीं होगी। कर्ज को चुकाने की क्षमता तभी आएगी जब कृषि लाभदायक व्यवसाय बने और किसान अपना काम छोड़ने को मजबूर न हों।