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  4. Indias partition incident, Conspiracy at every step, fear of death every moment
Written By Author गिरीश पांडेय

भारत विभाजन की आपबीती, कदम कदम पर साजिश, हर पल मौत का खौफ...

भारत विभाजन के साक्षी जगदीश लाल तनेजा से बातचीत

Jagdish lal Taneja
Partition of India Memorial Day: 1939 में पाकिस्तान में पैदा हुए जगदीश लाल तनेजा बंटवारे के समय करीब 9 साल के थे। उनके दिलो-दिमाग पर विभाजन की त्रासदी की घटनाएं अमिट रूप से चस्पा हैं। कहते हैं कि जो देखा भोगा और घर के बुजुर्गों से सुना, उस पर पूरी किताब लिखी जा सकती है। तनेजा का परिवार एक संपन्न परिवार था। मूल काम गिरवी का था। गांव की आबादी मिश्रित थी, पर अल्पसंख्यक बहुल। लिहाजा उनके अधिकांश ग्राहक भी वही थे। सब बहुत प्रेम से रहते थे।
 
एक मुस्लिम महिला ने अपना दूध पिलाकर पाला-पोषा : आपस में कितना प्यार था वह इसका उदाहरण देते हैं। उनके मुताबिक जब वह पैदा हुए तब उनकी मां की तबीयत बिगड़ गई। उसी समय के आसपास पड़ोस के मुस्लिम परिवार की एक महिला भी मां बनी थीं। जब उन्होंने मेरी मां की तबीयत के बारे में सुना तो मुझे उठाकर अपने घर लाईं। मेरी मां बताती थीं कि साल भर तक उन्होंने मुझे भी अपने बच्चे की तरह ही दूध पिलाकर बड़ा किया। आपसी सौहार्द का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है।
 
जब बंटवारे के बाद माहौल बिगड़ने लगा : आसपास से मार-काट, लूट, हत्या, बलात्कार की खबरें आने लगीं तो लोग जहां तक संभव था अपना माल-असबाब लेकर हिंदुस्तान भागने लगे। कुछ ने इस उम्मीद में कुछ कीमती सामानों को घर में छुपा दिया कि शायद कभी अच्छा वक्त आए और घर लौटना पड़े। हमारा काम साख का था। यही हमारी पूंजी थी। लोंगो की ढेर सारी अमानत हमारे पास पड़ी थी। पिताजी का मानना था कि जिसकी जो अमानत है, उसे उनको वापस करने के बाद ही हिंदुस्तान जाने की सोचेंगे। 
 
इलाके के राजा का भी आश्वासन था कि उनकी रियासत में रहने वाले हिंदुओं को कोई परेशान नहीं करेगा। कोई बाहरी भी इस मकसद से आया तो उसका पुरजोर विरोध होगा। समय के साथ माहौल खराब होता जा रहा था। बुरी खबरें लगातार आ रहीं थीं। लोगों का पलायन जारी था। राजा भी खुद को असहाय मान रहा था। 
 
अनिश्चित भविष्य और अजनबी लोगों को लेकर द्वंद्व : लिहाजा परिवार में सहमति बनी कि अब अपना ये वतन छोड़ना ही होगा। उस जमाने में घर में एक घोड़ी, गाय, भैंस थीं। इनको घर में काम करने वालों को देकर हम अपना पूरा अतीत छोड़कर एक शरणार्थी कैंप (पिंड दादन) के शरणार्थी बन गए। वहां हर रोज इसी बात का इंतजार रहता था कि कब हमको सुरक्षित हिन्दुस्तान पहुंचा दिया जाए। वहां जाकर कहां रहेंगे? क्या खाएंगे? हमारा और हमारे बच्चों का क्या भविष्य होगा कुछ भी तय नहीं। सच तो यह है कि जान की चिंता के आगे इस बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था।
 
पाकिस्तान के शरणार्थी कैंप में : पाकिस्तान के शरणार्थी कैंप में दोनों वक्त बड़ों को दो-दो और बच्चों को एक एक रोटियां मिलतीं थी। हम भरे-पूरे परिवार से थे। हालात से काफी हद तक अनजान एक दिन मैंने पिताजी से यह सवाल पूछ लिया। उन्होंने एक लंबी उसास भरी। बोले बेटा सब वक्त-वक्त की बात है। यह वक्त भी वाहे गुरु की कृपा से गुजर जाएगा।
 
खत्म हुआ इंतजार : नए  वतन में आने और पुराने वतन को छोड़ने का इंतजार खत्म हुआ। एक दिन कैंप के व्यवस्थापकों ने आकर बताया कि आप लोगों के अटारी तक सुरक्षित वापसी का प्रबंध हो गया है। हम खुश थे पर डरे हुए भी। ज्यादा अदावत सिखों और मुसलमानों के बीच थी। कैंप में सिख भी थे। हमने उनको ले जा रही ट्रेन से जाने को मना कर दिया। सुना कि जिस स्टेशन पर उनकी ट्रेन रुकी वहां बलवाई चढ़ आए। धमकियां दी कि या तो जान देने को तैयार हो जाओ या जो भी साथ में सामान और महिलाएं हैं, हमको सौंप दो। सिखों ने तलवारें और कृपाण निकाल लीं। बोले हमारे जीते जी तो यह संभव नहीं होगा। उनके इस तेवर के आगे बलवाइयों को बैकफुट पर होना पड़ा।
 
सफर एक अजनबी जगह के लिए : हमारा भी नंबर आ गया। हमें मालगाड़ी से जाना था। सुरक्षा के लिए एक बोगी में सेना के लोग भी थे। गाड़ी दो जगह रुकी। बलवाइयों ने हमला किया। सेना के कूपे को निशाना बनाकर बम फेंका। बम फटा तो नहीं पर दहशत फैल गई। बलवाई ट्रेन में घुस आए जो मिला उसका समान लूट लिया। बहू-बेटियों को ट्रेन से नीचे उतार लिया अधिकांश लोग इस मारकाट में घायल हो गए।
 
कुछ देर बाद हालत सामान्य हुए तो आर्मी के लोग अपनी बोगी से उतरे और पूरी ट्रेन के लोगों को कुछ बोगियों में भेड़ बकरियों की तरह ठूंस दिया। मरता क्या न करता की तर्ज पर हम लोग निर्देश का पालन करते रहे। मेरे साथ मेरे भाई भी थे। लोंगों के नीचे कहीं दबे। पानी-पानी चीख रहे थे। प्यास हमें भी लगी थी। पिताजी हिम्मत कर उतरे। बारिश के दिन थे। पास ही किसी गड्ढे से पानी लाए। जिस गड्ढे से पानी लाए उंसमे क्षत-विक्षत शव पड़े थे।
 
कदम-कदम पर साजिश : वहां से चले तो एक दूसरे स्टेशन पर ट्रेन रुकी। फरमान आया कि जिनको चोट लगी है वह पास में ही लगे हेल्थ कैंप में आकर मरहम-पट्टी करवा सकते हैं। यह भी बलवाइयों की साजिश थी। बचे-खुचे लोगों को मारने की। जो गए उनमें से कुछ लोगों ने आकर यह बताया। यही नहीं पिताजी तो यह भी बताते थे कि भूखों को आकर्षित करने के लिए उस दौरान रेलवे स्टेशन पर जो फल और खाना बिकता था उसमें भी जहर मिला दिया जाता था।
 
अटारी में हुआ भव्य स्वागत : किसी तरह हम अटारी पहुंचे। हमारे स्वागत से लेकर भोजन तक की शानदार व्यवस्था थी। पर हमें तो इसकी फिक्र थी कि कौन आया, कौन बिछड़ गया? सब कुछ के बाद खुद को सहेजे। चंद रोज जालंधर में एक रिश्तेदार के घर गुजरा। फिर दिल्ली आ गए। 
 
सब्जियां बेचीं, अखबार बांटा, गाडियां साफ कीं : नई जिंदगी के लिए हमने सब्जियां बेचीं, गाड़ियां साफ कीं, अखबार बांटा पर स्वाभिमान से कोई समझौता नहीं किया। यह सिर्फ मेरी बात नहीं थी। पाकिस्तान से आने वाले किसी भी पंजाबी को भीख मांगते नहीं देखा। किसी सेठ के यहां पल्लेदारी कर ली। संघर्ष करते रहे। उस समय की परंपरा के अनुसार महिलाओं को घर से नहीं निकलने दिया। 
 
घर के खर्च के बाद बचे पैसे को थोड़ा-थोड़ा जोड़ते रहे। उसी से अपना काम शुरू किया। मसलन अगर किसी सेठ के दुकान पर कोई काम करता था तो वह समय निकालकर या पल्लेदारी का काम करता था या बारदाना बेचता था या उसी दुकान से लेकर फुटकर में उसी की दुकान के सामने वहीं से लेकर अनाज बेचता था। 
 
समय के साथ वह भी आढ़तिया बन गए। इसी तरह जो गाड़ियां साफ करते थे उसने ड्राइविंग सीखी। फिर गाड़ी चलाने लगा। फिर एक गाड़ी खरीदी और धीरे-धीरे कई गाड़ियों के मालिक हो गए। कुल मिलाकर पाकिस्तान से जो भी आए और आज जो कुछ हैं, वह अपने संघर्ष के बूते हैं। और पूरे देश में हैं।
 
रही मेरी बात तो उस समय साल में दो क्लास पूरे होते थे। पढ़ाई पूरी करने के बाद 18 साल की उम्र में रक्षा मंत्रालय में नौकरी पा गया। कुछ साल बाद केंद्रीय वित्त मंत्रालय में आ गया। करीब 42 साल की सरकारी सेवा के बाद रिटायर हो गया। मैंने पूर्व प्रधानमंत्री एवं केंद्रीय वित्तमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह के साथ भी काम किया है। बड़े-बड़े उद्योगपति भी आते थे। लोग भी। अपने काम के लिए लालच भी देते थे, पर कभी जमीर से समझौता नहीं किया।
 
मां की सीख मेरे जीवन का मंत्र थी : मरते समय मेरी मां ने कहा था किसी को दुख मत देना, गलत काम मत करना। वाहे गुरु की कृपा से तेरा कोई काम नहीं रुकेगा। बरक्कत होती रहेगी। एक बार की बात है। मेरे मित्र रामलाल ने अपने किसी परिचित का दिल्ली से लक्ष्यद्वीप का तबादला रुकवाने के लिए अपने रिफरेंस से मेरे पास भेजा। उनकी ओर से रिश्वत का ऑफर था। मैंने कहा मैं ईमानदारी से पैरवी करूंगा। क्योंकि पैरवी मेरे मित्र की है। काम होना न होना आपकी किस्मत पर है। ऐसे बहुत से प्रसंग हैं।
 
तब पैसा भगवान नहीं था, लोग नैतिक थे : पर यह उस जमाने की बात है जब लोग अपेक्षाकृत नैतिक थे। ट्रांसफर उद्योग नहीं बना था। पैसा भगवान नहीं बना था। रिश्तों की कीमत थी।
Edited by: Vrijendra Singh Jhala
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