लेखक : श्री आनंद बाबा (पीठाचार्य श्रीजीपीठ मथुरा)
श्री भगवत्या: राजराजेश्वर्या:
देश को राजनीतिक स्वतंत्रता मिले हुए 74 साल हो गए। देश 75वें साल में प्रवेश कर आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, किन्तु अभी भी हम सांस्कृतिक दृष्टि से पराधीन हैं, दिग्भ्रांत हैं। कहना तो यह चाहिए कि स्वतंत्रता के बाद भारत सांस्कृतिक दृष्टि से जितना पराधीन होता गया है उतना राजनीतिक दृष्टि से वह कभी भी नहीं रहा है।
देश में अंग्रेजी और अंग्रेजियत का प्रभुत्व पहले की अपेक्षा कहीं अधिक दृढ़ हुआ है और जीवन के हर क्षेत्र में पश्चिम का अन्धानुकरण राष्ट्र के भविष्य के लिए एक गम्भीर खतरा बन चुका है। हम अपने तात्कालिक राजनैतिक स्वार्थ की पूर्ति और कुर्सी-मोह में अन्धे होकर राष्ट्र की इस मूलभूत समस्या को जितना ही नज़रअंदाज करते जाएंगे, हमारा भविष्य उतना ही अंधकारमय होता जायेगा। इससे बचने व उबरने के लिए हमें अपनी जड़ सहित संकृति को समझना होगा।
भारतीय दर्शन ग्रंथों में कहा गया है कि
समानी व आाकूतिः समाना हृदयानि वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति॥
संस्कृति के द्वारा हम स्थूल भेदों के भीतर व्याप्त एकत्व के अन्तर्यामी सूत्र तक पहुँचने का प्रयत्न करते हैं और उसे पहचान कर उसके प्रति अपने मन को विकसित करते हैं।
प्रत्येक राष्ट्र की दीर्घकालीन ऐतिहासिक हलचल का लोकहितकारी तत्त्व उसकी संस्कृति है। संस्कृति राष्ट्रीय जीवन की आवश्यकता है। जिन मनुष्यों के सामने संस्कृति का आदर्श ओझल हो जाता है उनकी प्रेरणा के स्रोत भी मन्द पड़ जाते हैं। किन्तु सच्ची संस्कृति वह है जो सूक्ष्म और स्थूल, मन और कर्म, अध्यात्म जीवन और प्रत्यक्ष जीवन इन दोनों का कल्याण करती है।
भारतीय संस्कृति में सदैव जगत कल्याण की कामना ही की गई है। और ऐसा आजादी से पूर्व से लेकर आज तक चला आ रहा है। स्वतन्त्रता से लगभग 900 वर्ष पूर्व से ही भारत प्रत्यक्ष आतंकवाद से प्रभावित रहा है परंतु सौभाग्य है कि वर्तमान में इसके विरोध में जनसमुदाय तत्परता से खड़ा है। इसका कारण ही भारतीय दर्शन में न्याय सिद्धान्त बड़ी कुशलता से जनमानस के मन में बैठा हुआ है। और ऐसा करने का कार्य भारतीय संतों ने आजादी से पूर्व से लेकर अभी तक अनवरत रूप से यथावत कर रहे हैं।
कठिन समय में इसके आदिकाल में नारद जी, कश्यप ऋषि, अत्रि, अंगिरा, परशुराम, वशिष्ठ, विश्वामित्र, वाल्मीकि इत्यादि रहे हैं तो मध्यकाल में आचार्य चाणक्य, श्रीआदि गुरु शंकर, रविदास, गो. तुलसीदास, गुरु तेगबहादुर, गुरु गोविंदसिंह, स्वामी रामदास जी इत्यादि संतों का और बाद में स्वामी विवेकानंद, दयानंदजी, अरविंदजी से लेकर स्वामी करपात्री जी महाराज इत्यादि आज तक जनजागृति व नवचेतना की जगत में अलख जगाये हुये हैं।
आज का सर्वत्र बढ़ता हुआ कट्टरपंथ किसी के हित में नहीं है और भारत के सभी धार्मिक संत जनसमुदाय को उनका सामाजिक हित समझाने में सक्षम हैं और ऐसा लगातार करके देश के भविष्य को गौरवान्वित किए हुए हैं। पाश्चात्य संस्कृति का बढ़ता हुआ प्रभाव एक विशेष बात के रूप में समाज के अंदर आजादी के बाद से आज तक देखा गया। गुण ग्राह्यता का होना हमारी संस्कृति रही है तो इसका पालन अवश्य होना चाहिए। भारतीय दर्शन को जानने व पढ़ते व समझने की भावना संतजन समाज को प्रदान करते रहेंगे तो हमारा भौतिक व आध्यात्मिक विकास होता रहेगा।
आजादी से पूर्व भारत ने बहुत कुछ खोया परन्तु वर्तमान में हम अपने जनसमुदाय के समर्थन से इस वर्ष आजादी का 75वाँ साल अमृत महोत्सव के रूप में मनाकर अपना गौरव सूर्य की भांति जगत के आभामंडल में प्रकाशित कर रहे हैं।
हमारी प्रभु श्रीश्रीजी महाराज से कामना है कि हमें सदैव आध्यात्मिक, आरोग्य, सद्विवेक व नूतनता युक्त चेतना से सम्पूर्ण करें एवं सभी का सर्व-मङ्गल करें।