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Written By Author अनिरुद्ध जोशी

अहिंसा का भाव

अहिंसा का भाव - अहिंसा का भाव
योग के प्रथम अंग का प्रथम सूत्र है- अहिंसा। अहिंसा से ही योग की शुरुआत है। अहिंसा का भाव नहीं तो योग में आगे बढ़ना भी मुश्किल है।

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हम जब भी अहिंसा की बात करते हैं तो अकसर यह खयाल आता है कि किसी को शारीरिक या मानसिक दुख न पहुँचाना अहिंसा है। मन, वचन और कर्म से किसी की हिंसा न करना अहिंसा कहा जाता है। यहाँ तक कि वाणी भी कठोर नहीं होनी चाहिए। फिर भी अहिंसा का इससे कहीं ज्यादा गहरा अर्थ है।

भगवान महावीर, भगवान बुद्ध और महात्मा गाँधी की अहिंसा की धारणाएँ अलग-अलग थी। फिर भी महावीर और बुद्ध की अहिंसा से महात्मा गाँधी प्रेरित थे। उक्त सभी ने प्राचीन योग शास्त्र के अहिंसा के सूत्र को विस्तृत और गूढ़ आयाम दिया।

महात्मा गाँधी का चिंतन : महात्मा गाँधी कहते हैं कि एकमात्र वस्तु जो हमें पशु से भिन्न करती है वह है अहिंसा। हमारा समाजवाद अथवा साम्यवाद अहिंसा पर आधारित होना चाहिए जिसमें मालिक-मजदूर एवं जमींदार-किसान के मध्य परस्पर सद्भावपूर्ण सहयोग हो। नि:शस्त्र अहिंसा की शक्ति किसी भी परिस्थिति में सशस्त्र शक्ति से सर्वश्रेष्ठ होगी। सच्ची अहिंसा मृत्युशैया पर भी मुस्कराती रहेगी। बहादुरी, निर्भीकता, स्पष्टता, सत्यनिष्ठा, इस हद तक बढ़ा लेना कि तीर-तलवार उसके आगे तुच्छ जान पड़ें, यही अहिंसा की साधना है। शरीर की नश्वरता को समझते हुए, उसके न रहने का अवसर आने पर विचलित न होना अहिंसा है।

अहिंसा का महत्व : पातंजलि योग दर्शन के पाद 2 सूत्र 35 में कहा गया है कि- अहिंसा प्रतिष्ठायाँ तत्सन्निधौ बैर त्यागः अर्थात अहिंसा की साधना से बैर भाव निकल जाता है। बैर भाव के जाने से काम, क्रोध आदि वृत्तियों का निरोध होता है। वृत्तियों के निरोध से शरीर निरोगी बनता है। मन में शांति और आनंद का अनुभव होता है। सभी को मित्रवत समझने की दृष्टि बढ़ती है। सही और गलत में भेद करने की ताकत आती है।

अहिंसा का भाव : खुद के और दूसरे के बारे में हिंसा का विचार भी न लाने से चित्त में स्थिरता आती है। परपीड़क और स्वपीड़क न बने। ऐसा सोचने और करने से सकारात्मक उर्जा का जन्म होता है। सकारात्मक उर्जा से आपके आस-पास का महौल भी खुशनुमा होने लगता है। यह खुशनुमा माहौल ही जीवन में किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होने देता। यही आपकी सफलता का आधार है। इसी से आपके रिश्ते-नाते कायम रहेंगे। अहिंसा से ही स्वयं को स्वयं की देह, मन और बुद्धि के सारे क्रिया-कलापों से उपजे दुखों से स्वतंत्रता मिलेगी।
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