योग शब्द के दो अर्थ हैं और दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। पहला है- जोड़ और दूसरा है समाधि। जब तक हम स्वयं से नहीं जुड़ते, समाधि तक पहुंचना कठिन होगा। इस सांसार में दो मार्ग है सांसारिक रहकर श्रेष्ठ जीवन जिना और दूसरा संन्यासी बनकर मोक्ष की ओर गमन करना। योग यह दोनों ही मार्ग सीखता है।
1. योग धर्म और विश्वास नहीं : योग दर्शन या धर्म नहीं, गणित से कुछ ज्यादा है। दो में दो मिलाओ चार ही आएंगे। चाहे विश्वास करो या मत करो, सिर्फ करके देख लो। आग में हाथ डालने से हाथ जलेंगे ही, यह विश्वास का मामला नहीं है। योग धर्म, आस्था और अंधविश्वास से परे है।
पतंजलि ने ईश्वर तक, सत्य तक, स्वयं तक, मोक्ष तक या कहो कि पूर्ण स्वास्थ्य तक पहुंचने की आठ सीढ़ियां निर्मित की हैं। आप सिर्फ एक सीढ़ी चढ़ो तो दूसरी के लिए जोर नहीं लगाना होगा, सिर्फ पहली पर ही जोर है। पहल करो। जान लो कि योग उस परम शक्ति की ओर क्रमश: बढ़ने की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। आप यदि चल पड़े हैं तो पहुंच ही जाएंगे।
यह आठ अंग हैं- (1) यम (2) नियम (3) आसन (4) प्राणायाम (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान (8) समाधि। उक्त आठ अंगों के अपने-अपने उप अंग भी हैं। वर्तमान में योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और ध्यान।
2. एक विज्ञान है योग : ओशो कहते हैं कि योग एक सीधा विज्ञान है। प्रायोगिक विज्ञान है। योग है जीवन जीने की कला। योग एक पूर्ण चिकित्सा पद्धति है। एक पूर्ण मार्ग है-राजपथ। जैसे बाहरी विज्ञान की दुनिया में आइंस्टीन का नाम सर्वोपरि है, वैसे ही भीतरी विज्ञान की दुनिया के आइंस्टीन हैं पतंजलि। जैसे पर्वतों में हिमालय श्रेष्ठ है, वैसे ही समस्त दर्शनों, विधियों, नीतियों, नियमों, धर्मों और व्यवस्थाओं में योग श्रेष्ठ है।
3. कर्मो में कुशलता है योग : तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्'-गी. 2-50 अर्थात कर्मो में कुशलता को ही योग कहते हैं। सुकर्म, अकर्म और विकर्म- तीन तरह के कर्मों की योग और गीता में विवेचना की गई है। कर्म में कुशलता की तीन स्टेप हैं:- कर्म को समझो, अच्छे कर्म या कार्य का अभ्यास करो, उक्त दोनों से कर्म में कुशलता आएगी जो सफलता दिलाएगी। यदि आपके पास सब कुछ है, लेकिन जीवन में सुकून नहीं है तो आप असफल व्यक्ति हो। कर्मवान अपने कर्म को कुशलता से करता है। कर्म में कुशलता आती है कार्य की योजना से। योजना बनाना ही योग है। योजना बनाते समय कामनाओं का संकल्प त्यागकर विचार करें। तब कर्म को सही दिशा मिलेगी।
4. कर्म बंधन से मुक्ति है योग : कर्म बंधन से मुक्ति की साधन योग बताता है। कर्मों से मुक्ति नहीं, कर्मों के जो बंधन है उससे मुक्ति ही योग है। कर्म बंधन अर्थात हम जो भी कर्म करते हैं उससे जो शरीर और मन पर प्रभाव पड़ता है उस प्रभाव के बंधन से मुक्त होना आवश्यक है। जहां तक अच्छा प्रभाव पड़ता है वहां तक सही है किंतु योगी सभी तरह के प्रभाव बंधन से मुक्ति चाहता है। इस मुक्ति से बुद्धि और शरीर अविचलित रहता है। भय और चिंता से व्यक्ति न तो भयभित होता है और न ही उस पर वातावरण का कोई असर होता है।
आसक्तिभाव (मोह) और अनासक्ति (निर्मोह) भाव से किए कर्म का परिणाम अलग-अलग होता है। कर्म से चित्त पर 'बंध' बनता है- इसे कर्मबंध कहते हैं। यही बंध मृत्यु काल में बीज रूप बनकर अगले जन्म में फिर जड़ें पकड़ लेता है। जीवन एक चक्र है तो इस चक्र को समझना जरूरी है। आपकी सोच और आपके कर्म से निकलता है आपका भविष्य। इस कर्म चक्र को जो समझता है वही कर्म में कुशल होने की भी सोचता है। कर्म में कुशल होने से ही जीवन में सफलता मिलती है।
5. कैसे बने कर्म में कुशल : कुछ भी प्राप्त करने के लिए कर्म करना ही होगा और कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा न रहे इसके लिए भी कर्म करना ही होगा। योग और गीता हमें यथार्थ में जीने का मार्ग दिखाते हैं। ज्यादातर लोग अतीत के पछतावे और भविष्य की कल्पना में जीते हैं। योग कहता है कि वर्तमान में जीने से सजगता का जन्म होता है। यह सजगता ही हमारी सोच को सही दिशा प्रदान करती है। इसी से हम सही कर्म के लिए प्रेरित होते हैं। कर्म में कुशल होने के लिए योग के यम के सत्य और नियम के तप और स्वाध्याय का अध्ययन करना चाहिए। क्रिया योग से कर्म का बंधन कटता है।
योग कहता है कि शरीर और मन का दमन नहीं करना है, बल्कि इसका रूपांतर करना है। इसके रूपांतर से ही जीवन में बदलाव आएगा। यदि आपको लगता है कि मैं अपनी आदतों को नहीं छोड़ पा रहा हूं, जिनसे कि मैं परेशान हूं तो चिंता मत करो। उन आदतों में एक 'योग' को और शामिल कर लो और बिलकुल लगे रहो। आप न चाहेंगे तब भी परिणाम सामने आएंगे।
संदर्भ : योग सूत्र और गीता