सुधा अरोड़ा
साठ-पैंसठ साल पहले तक महिलाओं की सामाजिक स्थिति पर, उनके सशक्तिकरण, उनकी उपलब्धियों और संघर्षों पर, उनके रचे साहित्य और अवधारणाओं पर गंभीरता से चर्चा नहीं की जाती थी। महिला लेखन को बहुत सम्माननीय दर्जा प्राप्त नहीं था और जो दो-चार महिलाएँ रचनाएँ करती भी थीं, उन्हें घर के सीमित दायरे की सीमित समस्याओं के घेरे में रचा लेखन मानकर या घर बैठी 'सुखी महिलाओं का लेखन' मानकर या तो गंभीरता से नहीं लिया जाता था या एक आरक्षित रियायत दे दी जाती थी कि आखिर तो इनका दायरा छोटा है, परिवेश सीमित है तो बड़े फलक के मुद्दे कैसे उठाएँगी।
स्त्रियों पर जो भी चर्चाए हुईं, वे पुरुषों ने कीं, चाहे वह सामाजिक सरोकारों के मद्देनजर हो या सहानुभूति से। स्त्री चरित्रों को लेकर पुरुष रचनाकारों का एक अपना नजरिया और अपना आकलन था। प्रेमचंद, अज्ञेय, जैनेन्द्र ने बेहद जीवंत स्त्री पात्र अपने उपन्यासों, कहानियों में रचे। ज्योतिबा फुळे, महात्मा गाँधी, राममनोहर लोहिया, बाबासाहेब आंबेडकर के स्त्री संबंधी सरोकारों से सभी परिचित हैं । पर यह स्थिति पिछले दो दशकों से विश्व के हर क्षेत्र में देखी जा रही हैं कि स्त्रियाँ अपने बारे में स्वयं अपने को विषय बना कर चर्चा कर रही हैं, अपनी समस्याओं से जुड़े विषय अपनी तरह से उठा रही हैं।
जब नारीवाद नारे और आंदोलन के रूप में चर्चित नहीं था, तब भी नारीवादी लेखन किया गया है। रुकैया सखवत हसन की कहानी'सुलताना का सपना' देखें। बंग महिला, सुमित्राकुमारी सिन्हा, चन्द्रकिरण सौनरेक्सा की कहानियों के बाद महादेवी वर्मा की 'श्रृंखला की कड़ियाँ ' के आलेख अभूतपूर्व हैं। उन दिनों संस्मरण विधा का भी इतना चलन नहीं था पर महादेवी जी ने अपने आलेखों में कितनी सशक्त शैली में अपने समय की स्त्री की हर क्षेत्र में यातना का सटीक चित्रण किया। उसमें लछमा का चरित्र बहुत कुछ कह जाता है।
महादेवी स्त्री को लेकर अपने समय की सोच पर या स्थितियों पर कोई बयान नहीं देतीं पर उस समय से उठाए गए एक स्त्री पात्र का जैसा रोंगटे खड़े कर देने वाला चित्रण वह करती हैं, वह अपने आप में एक बयान है। कृष्णा सोबती की मित्रो मरजानी, उषा प्रियंवदा की पचपन खंभे-लाल दीवारें, मन्नू भंडारी की कहानियाँ -बंद दराजों का साथ, तीन निगाहों की एक तस्वीर, अकेली, नई नौकरी, स्त्री सुबोधिनी परंपरा और विद्रोह के संधिकाल में खड़ी स्त्री की कहानियाँ हैं।
इन कहानियों का विश्लेषण करें तो उस समय की स्त्री की सामाजिक स्थिति को बखूबी पहचाना जा सकता है। लेकिन महिला रचनाकारों की यह त्रयी जब तक रचनारत थी, इन्हें महिला लेखन के खाँचे में नहीं डाला गया। उनकी कहानियों का जिक्र या समीक्षा मेनस्ट्रीम के रचनाकारों के साथ ही की गई।
इसके बाद जब 75 के आसपास जब महिलाओं की एक बड़ी जमात ने अपनी धाक जमानी शुरु की तो समीक्षकों के लिए कोई विकल्प नहीं रह गया क्योंकि इसे अनदेखा करना संभव नहीं था। संवेदना के स्तर पर ये रचनाएँ आश्चर्यजनक रूप से भिन्न थीं और इसमें मूलभूत अंतर वही था जो एक स्त्री और पुरुष की भावनात्मक और सोच के धरातल पर होता है।
पिछले सालों में अगर कुल कहानियों के विषय का विभाजन करें तो हम पाएँगे कि सबसे ज्यादा कहानियाँ स्त्री के मुद्दों पर ही रची गई हैं। उपन्यास के क्षेत्र में स्त्री समस्याओं पर लिखे गए उपन्यासों की एक बेहद उर्वरा जमीन हिन्दी के रचनात्मक साहित्य में देखी गई है। कृष्णा सोबती की 'मित्रो मरजानी' एक अक्खड़ और दबंग औरत की एकांतिक तस्वीर प्रस्तुत करती है, उषा प्रियंवदा की 'रुकोगी नहीं, राधिका' 'पचपन खंभे,लाल दीवारें' और 'शेष यात्रा ' में परंपरा और रूढ़ियों के द्वंद्व में फंसी एक आधुनिक स्त्री की अपनी अस्मिता को ढूँढने की तलाश है।
मन्नू भंडारी का उपन्यास -'आपका बंटी' हिन्दी साहित्य में एक मील का पत्थर हैं, जो अपने समय से आगे की कहानी कहता है और हर समय का सच होने के कारण कालातीत भी है। शकुन के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि व्यक्ति और माँ के इस द्वंद्व में वह न पूरी तरह व्यक्ति बनकर जी सकी, न पूरी तरह माँ बनकर । ...... और क्या यह केवल शकुन की त्रासदी है? अपने व्यक्तित्व को पूरी तरह नकारती हुई, अपने मातृत्व के लिए संबंधों के सारे नकारात्मक पक्षों को पीछे धकेलती हुई या उन्हें अनदेखा करती हुई , हिन्दुस्तान की हजारों औरतों की यही त्रासदी है।
अलग होने के बाद बच्चों की त्रासदी की कल्पना मात्र से हिन्दुस्तान के नब्बे प्रतिशत विवाह टूटने से बचे रह जाते हैं। आपका बंटी सिर्फ बच्चे की त्रासदी का उपन्यास नहीं है। इसमें शकुन की समस्या को भी बहुत गहराई के साथ उठाया गया है। अधिकांश भारतीय भाषाओं में अनूदित इन तीन प्रमुख बहुचर्चित रचनाकारों के बाद सन् 1980-85 के बाद हिन्दी में स्त्री विषयक उपन्यासों की जैसे बाढ़ सी आ गई।
ममता कालिया के उपन्यास 'बेघर' और 'एक पत्नी के नोट्स' में एक मध्यवर्गीय पढ़ी लिखी महिला का भी अपने पति द्वारा एक सामान्य औरत की तरह ट्रीट किया जाना और गाहे बगाहे व्यंग्य का शिकार होना तथाकथित प्रगतिशील और पढ़े लिखे वर्ग को बेनकाब करता है । मृदुला गर्ग का 'अनित्य' जिसमें दो महत्वपूर्ण स्त्री पात्रों में से एक काजल एक फेमिनिस्ट प्राध्यापक की तरह उभरती है जो अनलिखे इतिहास को दुबारा लिखना चाहती है, भगतसिंह के सिद्धांतों पर विश्वास करती है और उसे पढ़ाती है हालाँकि वह उनके कोर्स में नहीं है, संगीता जो एक वेश्या की बेटी है पर अपने सिद्धांत खोती नहीं, अपनी अस्मिता के साथ खड़ी होती है।
मृदुला गर्ग का 'चितकोबरा' और 'मैं और मैं' जिसमे एक औरत और एक लेखिका के दोनों पहलुओं की कश्मकश का बड़ी बारीकी से चित्रण किया गया है। और इन सबसे बढ़कर मृदुला गर्ग का 'कठगुलाब', जिसमें स्त्रियों के इतने विभिन्न रंग रूप और शेड्स हैं कि स्त्री विमर्श की कई अवधारणाओं की पोथी बाँची जा सकती है।
चित्रा मुद्गल का 'एक जमीन अपनी' और 'आवाँ', जिसमें एक सामाजिक कार्यकर्ता की जमीनी लड़ाई के संघर्षों का पहली बार हिन्दी साहित्य में इतना सचेत और बेबाक चित्रण हुआ है। मृणाल पांडे का 'पटरंगपुराण' जिसे पढ़कर लगता है कि पूरा एक शहर ऐसी औरतों के नजरिए से देखा-परखा और बयान किया जा रहा है जो अपने घूँघट उलटाकर और अपने खिड़की-झरोखे खोलकर बड़ी पैनी निगाह से कस्बे में होने वाले हर क्रिया कलाप का जायजा ले रही हैं।
मेहरुन्निसा परवेज का 'कोरजा', जिसमें आदिवासी परिप्रेक्ष्य में एक स्त्री की त्रासदी का वर्णन है, सूर्यबाला का 'मेरे संधि पत्र', मंजुल भगत का 'अनारो' ,'गंजी'- जिसमें पहली बार एक कामकाजी नौकरानी के रोटी-रोजी के संघर्ष के साथ-साथ उसकी ताकत और स्वाभिमान को रेखांकित किया गया है। 'खातुल' जिसमें अपने मुल्क से बेदखल हुआ किरदार मर्द का नहीं, औरत का है जिसे मुहाजिर बनाकर प्रस्तुत किया गया है। अफगानिस्तान से भागकर आई यह शरणार्थी एक कमसिन बच्ची है।
जंग के तमाम वहशी हादसे और खौफनाक मंजर भुगतने के बाद भी वह अपना मुल्क छोड़कर भागना नहीं चाहती बल्कि उसे आजाद कराने में कुर्बान होना चाहती है। कमल कुमार का 'यह खबर नहीं' जिसमें सत्ता और प्रभुत्वशाली वर्ग के बीच किस तरह एक प्रतिभाशाली लड़की की अस्मिता को कुचला जाता है, इसका रोमांचकारी यथार्थ वर्णन है।
नासिरा शर्मा का 'एक और शाल्मली', जिसमें घर और बाहर अपने अधिकार माँगती आजादी के बाद की उभरती एक अलग किस्म की स्वतंत्रचेता स्त्री है जो पति से संवाद चाहती है, बराबरी का दर्जा चाहती है, प्रेम की माँग करती है जो उसका हक है। इस पात्र का सृजन बेहद सूझबूझ से किया गया है और यह पात्र आधुनिक स्त्री के एक बहुत बड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है।
नासिरा का एक और उपन्यास 'ठीकरे की मंगनी' 'जिसमें बचपन में बिना पैसे के लेन-देन के मंगनी हो जाती है और लड़का बड़ा होने पर शादी करने से मुकर जाता है। इस पर कद्दावर औरत टूटती नहीं, वह अपना एक घर बनाती है, एक वजूद हासिल करती है और मर्द के लौटने पर उसे दुबारा कुबूल नहीं करती।
'कुइयाँ जान', उपन्यास में पानी की समस्या केंद्र में है पर इस समस्या से रू-ब-रू होती हैं औरतें। इस उपन्यास का सबसे खूबसूरत पहलू है कि औरतों के सामाजिक सरोकार उभर कर आते हैं और औरतें पर्यावरण के मुद्दे पर बात करती हैं। राजी सेठ का 'तत्सम ' चन्द्रकांता का 'अपने अपने कोणार्क' तथा 'कथा सतीसर' गीतांजलि श्री का 'माई', जिसमें गाँव-कस्बे की एक औरत अपने बच्चों और परिवार के लिए कैसे अपने को तिल-तिल होम करती है पर उसका मिटना भी उसके बच्चों में विद्रोह की चिंगारी और अपनी रीढ़ की हड्डी सीधी रखने का जज्बा जगा जाता है।
प्रभा खेतान का 'पीली आँधी ' तथा 'छिन्नमस्ता' जिसमें परंपरागत दकियानूसी मारवाड़ी परिवार की एक लड़की का बागी निकल आना कैसे पूरे समाज को उसके खिलाफ खड़ा कर देता है, का एक संपूर्ण दस्तावेज है। मैत्रेयी पुष्पा का बहुचर्चित उपन्यास 'इदन्नमम' तथा 'चाक' मधु काँकरिया का 'सलाम आखिरी' और 'सेज पर संस्कृत'- जिसमें जैन साध्वियों का धर्म के नाम पर शोषण दबा-छिपा कर रखा जाता है पर युवा पीढ़ी की एक जैन लड़की शोषण के खिलाफ उठ खड़ी होती है। अलका सरावगी का शेष कादम्बरी', अनामिका का 'दस द्वारे का पिंजरा' जिसमें पिछली शती की औरतों के कद्दावर होने का आज के परिप्रेक्ष्य में समूचा बयान है।
कमल कुमार का उपन्यास 'मैं घूमर नाचूँ' राजस्थान की एक बाल विधवा कृष्णा के चरित्र को फोकस करता हुआ स्त्री की आजादी को स्पष्टता से रेखांकित करता है और पुरुष प्रधान सत्ता को चुनौती देता है।
नारीवादी लेखन आज के समय की जरूरत है। आधुनिकता और उदार सोच के तमाम दावों के बावजूद स्त्री की सामाजिक स्थिति या उत्थान में कोई बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया है। आज भी वे समझौतों और दोहरे कार्यभार के बीच पिस रही हैं। पुरुष सत्ता की नीवें हमारे समाज में बहुत गहरे तक धँसी हुई हैं। इसे तोडना, बदलना या सँवारना एक लम्बी लड़ाई है। साहित्य और शिक्षा हो या सामाजिक संगठन, हर क्षेत्र में स्त्रियाँ अपनी-अपनी तरह से अपनी लड़ाई लड़ रही हैं और स्त्रियों की पारंपरिक दासता में बदलाव लाने की कोशिश में रत हैं।
कथा-साहित्य में भी स्त्री चेतना ने अपनी उपस्थिति पूरी गहराई और शिद्दत से दर्ज करवाई है पर हिन्दी साहित्य में तथाकथित स्त्री विमर्श और विचार इतने बौद्धिक स्तर पर है कि आम औरतों तक या उन औरतों तक, जिन्हें सचमुच जागरूक बनाने की जरूरत है, यह पहुँच ही नहीं पाता। यह काम साहित्य के स्त्री विमर्शकारों से कहीं अधिक महिला संगठन और जमीनी तौर पर उनसे जुड़ी कार्यकर्ता कर रही हैं।
प्रस्तुत है, कुछ चर्चित उपन्यासों के नारी चरित्रों के बारे में उन्हें गढ़ने वाली प्रमुख महिला रचनाकारों के अपने बयान कि किन स्थितियों ने उन्हें प्रेरित किया, कैसे उन चरित्रों ने आकार लिया और कागज पर उतरने के बाद उन चरित्रों ने कितनी समानधर्मा पाठिकाओं के अंतस को छुआ और एक दिशा दी ।
सुधा अरोड़ा :यहीं कहीं था घर' की दो चरित्र
50 साल पहले की पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास 'यहीं कहीं था घर' आधुनिकता और परंपरा के द्वन्द्व में उलझा है। जब मैंने यह उपन्यास लिखा था, न मेरे दिमाग में कोई मुद्दा था, नस्त्री की सामाजिक स्थिति को लेकर कोई चिंतन, न औरतों की समस्याओं का विश्लेषण करने की गंभरर मन: स्थिति। थी तो बस एक छोटी-सी इच्छा कि जो सबकुछ हमारे आसपास इतना बेआवाज घटित हो जाता है, उसे उसकी पूरी सचाई और पारदर्शिता के साथ बयान कर सकूँ। जब लिख चुकी तो देखा कि घटनाओं के विवरण के बीच विमर्श तो खुद ब खुद दबे पाँव चले आता है। उपन्यास में दो घर है। पहला घर उस अच्छी लड़की का है, जो अरेंज्ड मैरिज के रीति रिवाजों और परंपरा की बलि चढ़ीं। और दूसरा घर उस लड़की का जिसने प्रेम विवाह किया। औसत भारतीय प्रेम विवाह की तरह यह भी वहीं से शुरु हुआ जहाँ प्रेम समाप्त हो जाता है और शेष रह जाते हैं केवल सामंती संस्कार। एक तरफ लड़की के पैदा होने से लेकर हिदायतों के बीच बड़े होने फिर जड़ समेत घर की मिट्टी से उखड़ने की कहानी है दूसरी तरफ लड़की से औरत बनने के दौरान तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों से निहत्थे जूझने और अपने घर को बचाए रखने में सारी ऊर्जा खपा देने की व्यथा है।
मन्नू भंडारी : आपका बंटी की शकुन
'मेरे उपन्यास 'आपका बंटी' की समीक्षाओं-चर्चाओं में हमेशा बंटी ही छाया रहा। शकुन तो एक तरह से हाशिये में जा पड़ी। उसे अपेक्षित महत्त्व मिला ही नहीं जब कि मेरे हिसाब से वह उपन्यास का एक महत्त्वपूर्ण चरित्र है। जरूरी है कि एक आधुनिक स्त्री के सन्दर्भ में उसके चरित्र के बारे में मै कुछ कहूँ। हमसे पहले वाली पीढ़ी का ना तो कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व होता था, ना ही कोई स्वतंत्र पहचान, वह तो मात्र रिश्तों से ही पहचानी जाती थी। रिश्तों से परे भी उसका अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व है, उसका अपना कोई नाम भी है, इस बात का उसे कोई बोध तक नहीं था। न उसे, न उसके परिवार के लोगों को, बल्कि कहूँ कि समाज को। समय के साथ-साथ शिक्षा, जागरूकता,आर्थिक स्वतंत्रता, और बाहरी दुनिया से बढ़ते रिश्तों ने उसके भीतर इस बोध को जगाया कि रिश्तों से परे भी उसकी अपनी एक स्वतंत्र सत्ता है। सबसे नाजुक रिश्ता होता है माँ और बच्चे का। मातृत्व की उपेक्षा करके किसी भी माँ के लिए अपने व्यक्तित्व की बात सोचना, आशाओं-आकांक्षाओं की बात सोचना असंभव चाहे न हो पर कठिन तो है ही। मातृत्व और व्यक्तित्व का यह द्वन्द्व ही शकुन के चरित्र की कुंजी है।
नासिरा शर्मा : शाल्मली की शाल्मली
शाल्मली, मेरे तीसरे उपन्यास का पात्र है। शाल्मली संस्कृत भाषा में सेमल के दरख्त को कहते हैं। पाताल में बहने वाली नदी और एक नर्क का नाम भी शाल्मली है। शाल्मली की लकड़ी जल में जितना भीगे उतनी ही मजबूत होती है। ना जाने क्यों सेमल का दरख्त मुझे औरत से मिलता-जुलता लगा। जिसके फूलों के पराग को चूसने के लिए परिंदे और रेंगने वाले कीड़े भरे रहते हैं वृक्ष की डालियों पर। उपन्यास की मुख्य पात्रा का नाम शाल्मली रखा। वह सारे सवाल जो मुझे पति-पत्नी के बीच अहम लगते थे, मैंने शाल्मली और नरेश के माध्यम से व्यक्त किए। शाल्मली एक भारतीय या कहूँ कि एशियाई औरत का चरित्र है। यह चरित्र मैंने यूँ ही नहीं गढ़ा था बल्कि अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों में विश्व भर की महिलाओं से मिलने का जो मौका मुझे मिला, उनके और मेरे अनुभव के आधार पर रचा गया था। शाल्मली को लिखने में जो सुख मिला वह छपने के बाद कपूर बन उड़ने लगा। मेरे उठाए सवालों से पढ़ने वालों के सवाल टकराने लगे और वे उन सवालों को कर रहे थे जो उनके अपने अनुभवों के आधार पर खड़े हुए थे। आजादी के बाद जिस नई औरत ने आँखें खोली थी उसकी तरफ किसी का ध्यान ही नहीं गया। औरत अब घर-बाहर दोनों का ख्वाब देखती है। आज शाल्मली को छपे 25 वर्ष हो रहे हैं और मेरे सवाल अब ज्यादा महत्वपूर्ण हो उठें हैं। शाल्मली के चरित्र ने मुझे एक अनुभव दिया कि लेखक चरित्र को गढ़ने में ही अपने को होम नहीं करता बल्कि चरित्र को पाठक द्वारा स्वीकार किए जाने का भी इंतजार करता है। शाल्मली एक जिंदा किरदार बना जो बरसों को पार करता आज भी अहम है। -
मृदुला गर्ग : कठगुलाब की नर्मदा
नर्मदा गरीब तबके की अनाथ बच्ची है जो शादीशुदा बहन के घर रह कर चूड़ी कारखाने में बाल श्रमिक की तरह काम करती है। भट्टी की तेज आग के सामने 14 घंटे काम करके व गर्म पिघले शीशे को सलाखों पर लेकर दौड़ते हुए, जब-तब जल जाने से कमजोर पड़ जाने पर निकाल दी जाती है। तब घरेलू नौकरानी की तरह काम करती है। उसका जीजा उससे जबरन शादी कर लेता है। वह विरोध नहीं कर पाती क्योंकि मानसिक रूप से बीमार भाई को छोड़ नहीं सकती। तमाम दुख दर्द के बावजूद वह कटु नहीं होती। मानवीय संवेदना से ओतप्रोत रहती है। वह दबंग होने के साथ करुणामयी है। एक वक्त वही ठसके से महिला पत्रकार से कहती है,' चौराहे पर खड़ा बालक खुद अपनी तकलीफ बयान करे तो कोई सुनने को तैयार ना हो पर वहीं सब यह (पत्रकार) दोहराएगी तो वही लोग पैसा खर्च करके दुख खरीदेंगे। जाओ, वहीं चौराहे पर खड़ी रहो मुझे ना बेचनी दुख-तकलीफ अपनी।
सूर्यबाला : संधिपत्र की शिवा
70 के दशक में धर्मयुग में प्रकाशित होने वाला मेरा पहला उपन्यास 'मेरे संधिपत्र' आज भी मर्मज्ञ पाठकों की चहेती कृति बना हुआ है। इसकी नायिका शिवा को जिस आदर भाव से लोगों ने स्वीकारा उसने मुझे विस्मित और अभिभूत कर दिया। एयरफोर्स के किसी अधिकारी का लिखा एक वाक्य मुझे कभी नहीं भूलता कि ' अगर शिवा आपको कभी मिले तो उसे मेरा प्रणाम दीजिएगा। कुछ पाठकों ने लिखा था, ' शिवा, विद्रोह क्यों नहीं करती? वह जीवन में समझौते क्यों करती है? अपने लिए क्यों नहीं जीतीं? आपने शिवा को समर्थ स्त्री क्यों नहीं बनाया? मेरी समर्थ स्त्री की परिभाषा थोड़ी भिन्न है। मेरी दृष्टि में स्वयं अपने लिए सबकुछ समेटने वाली स्त्री से ज्यादा समर्थ वह स्त्री है जो दूसरों के हक और हित में खड़ी होती है। अपनी विडंबनाओं का रोना ना रोकर बगैर शोर किए विवेक से निर्णय लेती है। शिवा मेधावी, कुशाग्र और अति संवेदनशील है। मैंने अक्सर महसूस किया है कि बाहरी संघर्षों से ज्यादा मर्मांतक मानसिक अंतर्द्वंद्वों की लड़ाइयाँ होती है। शहर के समृद्ध रायजादा परिवार ने विपन्न परिवार की शिवा को अपने घर की बहू बनाया है। पहली पत्नी की संतान शिवा पर जान छिड़कती है और पति भी वफादार है। ऐसे में शिवा किसका विरोध करे? क्या सिर्फ इसलिए कि उसका पति विचार और संवेदका के स्तर पर शिवा से हीन है? यहाँ शोषण किया नहीं जा रहा है मगर हो रहा है। और दोषी कोई नहीं। यह मानसिक लड़ाई कहीं ज्यादा गहरी और त्रासद है। स्त्री के अदृश्य मानस लोक की यही दुर्दम्य लड़ाई शिवा ने लड़ी है। अपनी संवेदना के बूते पर। और एक मूल्यवान जीवन जीने की राह निकाली है। यह राह आत्सम्मान और खुद्दारी की है। एक स्वतंत्र चेता स्त्री के विवेक की है। यह राह लेने से ज्यादा देने में विश्वास रखती है। मेरी समझ से आज समूचे विश्व को ऐसी स्त्री की जरूरत ज्यादा है।
कमल कुमार : मैं घूमर नाचूँ की कृष्णा
रूपकुवँर सती हुई थी तो सती स्थल पर नहीं जाने दिया गया था। पर मैं वहाँ के चप्पे-चप्पे घुमी थी। वहाँ की प्रकृति, दुर्ग, गढ़ी, स्तूप, बावड़ियाँ, मंदिर, लोकगीतों, लोकधुनों और जादू-टोनों के साथ वहाँ की औरत 'सती', 'विधवा' और सधवा का भी भीतरीकरण हो गया था। मैं घूमर नाचूँ की कृष्णा भी बरसों तक मेरे भीतर साँस लेती रही। आख्यातीज की गोद में बनी दुल्हन और 9 वर्ष की उम्र में हुई विधवा, विधवा और सधवा दोनों के अर्थ से अनभिज्ञ सामाजिक लाँछन, प्रताड़ना और उत्पीड़न सहती, कोई विरोध-प्रतिरोध नहीं।
जीवन उत्तरार्ध के अकेलेपन में बचपन के कला संस्कारों ने उसके भीतर एक बड़े कलाकार को उद्घाटित किया। सैकड़ों कलाकृतियों का संग्रह आँगन के कोनों में बढ़ता रहा। दूसरी ओर अपने से बहुत छोटे डॉ. आयुष के साथ स्त्री प्रकृति के अनुरूप आत्मिक संबंध बना जो देह पर प्रतिफलित हुआ। इस रिश्ते ने उसे उर्जस्वित किया। स्त्री आकांक्षाओं की पूर्ति की। सवाल यह उठता है कि क्या इस संसार में जिया गया जीवन निर्दोष हो सकता है? स्त्री के संदर्भ में उसके जीवित रहने के निश्चय से ही पाप हो जाते हैं? औरत की मुक्ति उस के मस्तिष्क से शुरू होती है उसकी देह से नहीं।