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प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में वीरांगनाओं की ललकार

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में वीरांगनाओं की ललकार। freedom fighters womens - freedom fighters womens
-डॉ. कामिनी वर्मा
ज्ञानपुर (भदोही) उत्तरप्रदेश

10 मई 1857 मेरठ छावनी में सैनिकों के आक्रोश से उत्पन्न संघर्ष भारतीय इतिहास में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नाम से उल्लिखित है जिसमें शीघ्र ही ब्रिटिश शासकों की शोषणकारी नीतियों और दमनात्मक कार्रवाई से पीड़ित शासक व विशाल जनसमूह व्यापक स्तर पर शामिल हो गया। यद्यपि यह संग्राम गाय और सूअर की चर्बी वाले कारतूसों को मुंह से खोलने की घटना को लेकर शुरू हुआ, परंतु इसका मूल कारण ब्रिटिश सरकार और उसके कारिंदों द्वारा वर्षों से सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक व सांस्कृतिक स्तर पर की गई ज्यादतियां थीं जिनसे छुटकारा पाने के लिए भारतीयों द्वारा वृहद स्तर पर सशस्त्र कार्रवाई की गई।
 
अंग्रेजों से आजादी प्राप्त करने के लिए इस युद्ध में असंख्य पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं ने भी अपने प्राण न्योछावर करके देशप्रेम और पराक्रम का परिचय दिया। इस महासंग्राम में शासक वर्ग की नारियों- झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हजरत महल, अवंतीबाई के शौर्य व पराक्रम के साथ-साथ सामान्य वर्ग की सरायवालियों और तवायफों का योगदान भी शामिल था जिन्होंने सूचनाओं के आदान-प्रदान के साथ आर्थिक सहायता व क्रांतिकारियों को संरक्षण भी प्रदान किया।
 
संघर्ष के 161 साल हो जाने के बाद भी बहुत-सी ऐसी अनाम नारियां हैं जिनके त्याग और बलिदान से समाज आज भी अनभिज्ञ है। मेरे इस लेख में उन्हीं नारियों की शहादत को समाज के समक्ष उजागर करने का प्रयास किया गया है।
 
 
1857 के संघर्ष का आरंभ चर्बी वाले कारतूसों के कारण प्रारंभ हुआ। इन कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी प्रयुक्त होने की जानकारी ब्रिटिश अधिकारियों के घरों में काम करने वाली लज्जो ने अपने पति मातादीन को दी थी जिसने सैनिकों में ये सूचना संप्रेषित की। इसी चिंगारी ने क्रांति को जन्म दिया।

 
9 मई 1857 को विद्रोही सैनिकों को दंडित करने में शामिल ब्रिटिश शासकों के वफादार सैनिकों की भर्त्सना करने वाली उनकी मां, पत्नी व बहनें ही थीं जिसका उन पर इतना मनोनैतिक प्रभाव पड़ा कि उन्होंने संग्राम आरंभ की तिथि की प्रतीक्षा किए बिना 10 मई 1857 को विद्रोह कर दिया और जिसने कालक्रम में व्यापक और प्रचंड रूप धारण कर लिया। इस तरह इस महासंग्राम को आरंभ करने में नारियों की विशेष भूमिका थी।

 
विद्रोही सैनिकों ने दिल्ली पर अधिकार करके बहादुरशाह जफर से अगुवाई का आह्वान किया। तब बहादुरशाह जफर अपनी वृद्धावस्था और गीत-संगीत में रत रहने के कारण उनकी तत्पर सहायता करने के लिए तैयार नहीं हुए, तब बेगम जीनत महल ने ही क्रांतिकारियों का समर्थन करके उनका उत्साहवर्धन किया। कानपुर में विद्रोहियों का नेतृत्व नाना साहब ने किया। उनकी दत्तक पुत्री मैनादेवी को क्रांति की ज्वाला में जिंदा जला दिया गया।

 
बेगम हजरत महल कविता, संगीत, नृत्य गान में संलग्न रहने वाले अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह की बुद्धिमती पत्नी थीं। वे कुशल नेतृत्वकर्ती थीं। नवाब वाजिद अली शाह 1854 से ही कलकत्ता में नजरबंद थे। अवध का शासन कंपनी के पास था। इन परिस्थितियों में बेगम हजरत महल ने फैजाबाद के मौलवी अहमद शाह के सहयोग से स्त्रियों की मुक्ति सेना का गठन किया तथा उसे सैनिकोचित प्रशिक्षण प्रदान किया।
 
5 जुलाई 1857 को लखनऊ में बेगम ने ब्रिटिश सेना को पराजित किया तथा अपने बिरजिस कद्र को शासक घोषित करके स्वयं शासन संभाला। कालांतर में वजीरे आलम बालकृष्ण राव की हत्या और अहमद शाह के घायल हो जाने से नारी सेना भी कमजोर हो गई और 21 मार्च 1858 तक लखनऊ पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया और बेगम नेपाल चली गई और वहां के शासक से गुजारा भत्ता प्राप्त करके जीवन-यापन करने लगी थी।

 
'खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी' सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता की नायिका झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से सभी परिचित हैं जिन्होंने रणभूमि में ब्रिटिश सेना के छक्के छुड़ा दिए थे। रानी ने 'दुर्गा दल' नामक महिलाओं की अलग सेना तैयार की तथा इसे झलकारीबाई के नेतृत्व में समुचित सैन्य प्रशिक्षण प्रदान किया। झलकारीबाई का रंग रूप और सैन्य कुशलता में लक्ष्मीबाई के समान था। झांसी स्वतंत्र होने तक अपने स्वाभाविक स्त्रियोचित श्रृंगार के त्याग करने का प्रण लेने वाली झलकारीबाई देश के लिए शहीद हो गईं। लक्ष्मीबाई की काशी और मंदरा नाम की अंगरक्षक सखियों का देश के लिए बलिदान भी सराहनीय है।

 
मध्यप्रदेश के रामगढ़ रियासत की शासिका अवंतीबाई ने अंग्रेजी सेना का साहसपूर्वक मुकाबला किया, परंतु अंग्रेजों की गिरफ्त में आना निश्चित जानकर अपनी ही तलवार से स्वयं को खत्म कर दिया। नारी अवंतीबाई का पराक्रम और बलिदान अविस्मरणीय है। 1857 के संघर्ष में क्रांति के लिए प्रेरक के रूप में महारानी तपस्वनी का नाम विशेष रूप से लिया जाता है। ये भक्तों को आध्यात्मिक उपदेश देने के साथ राष्ट्रप्रेम के उपदेश दिया करती थीं। क्रांति को सशक्त बनाने के लिए लाल कमल और चपाती इनकी ही प्रेरणा से ही बांटे गए। युद्ध के समय वहां स्वयं सशस्त्र छापामार संघर्ष भी करती थीं। कलकत्ता में महाकाली पाठशाला भी खोली।


 
क्रिस्टोफर ह्यूबर्ट की पुस्तक 'द ग्रेट मीयुटीनी' तथा अमृतलाल नागर की रचना 'गदर के फूल' में लखनऊ के सिकंदर बाग में पुरुष वेश में ब्रिटिश सेना पर जंगली बिल्लियां के समान झपटकर वार करने वाली महिलाओं की टुकड़ी का उल्लेख किया गया है जिसकी नायिका उदादेवी थीं। ब्रिटिश सेना के खिलाफ असाधारण शौर्य का परिचय देते हुए एक पीपल के पेड़ के ऊपर छिपकर अकेले ही 36 अंग्रेजों को मार गिराया था। अंत में कैप्टन डासन द्वारा गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई थी। बाद में उसे स्त्री जानकर दु:खी होते हुए वहीं दफना दिया गया। आज भी सिकंदर बाग चौराहे पर उदादेवी की प्रतिमा स्थित है।

 
1857 के महासमर में तवायफों और सरायवालियों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। तवायफें प्राचीन तहजीब और ललित कलाओं की संरक्षक हुआ करती थीं। इनके कोठों पर फिरंगी और क्रांतिकारी दोनों आते थे और अक्सर अपनी कार्ययोजना यहीं आकर बनाया करते थे। उनकी योजनाओं को देशप्रेम का परिचय देते हुए लखनऊ की हैदरीबाई क्रांतिकारियों तक पहुंचाती थीं। बाद में ये रहीमी की संरक्षण में बेगम हजरत महल द्वारा संगठित नारी सेना दल में शामिल हो गईं।

 
रुडयार्ड किपलिंग की कृति 'आनंद ऑन द सिटी वॉल' में क्रांति के दौरान तवायफों का ब्रिटिश सरकार विरोधी गतिविधियों में शामिल होने का उल्लेख मिलता है। कानपुर की नर्तकी अजीजन क्रांतिकाल में विलासी जीवन परित्याग कर क्रांतिवीरों का सहयोग करने के लिए स्वयं रणक्षेत्र में कूद पड़ी। वह सैनिकों को अंग्रेजों की सूचनाएं पहुंचाने के साथ घायल सैनिकों के लिए दवा, भोजन आदि की व्यवस्था करती थी। नारियों को प्रशिक्षण देकर इसने 'मस्तानी मंडली' बनाई और पुरुष वेश में युद्धभूमि में वह वीरांगना के समान थी। स्त्रियोचित श्रृंगार त्याग वह झांसी को आजाद कराने के लिए शहीद हो गई। भारत भूमि जहां रणबाकुरों के ओज से उर्वर है वहीं वीरांगनाओं के शौर्य, साहस, पराक्रम और बलिदान से भी समृद्ध है।

 
1857 की क्रांति में इन वीर नारियों ने सिद्ध कर दिया वे कोमल जरूर हैं, लेकिन कमजोर नहीं। आवश्यकता पड़ने पर वे दुश्मन के प्राण ले भी सकती हैं और अपने प्राणों का देश के लिए बलिदान भी कर सकती हैं।

हालांकि क्रांति असफल हो गई फिर भी इस महासंग्राम में इन बलिदानी नारियों का त्याग व पराक्रम अप्रतिम है। इन महासशक्त नारियों द्वारा विदेशी शक्ति को देश के बाहर खदेड़ने के लिए उनको ललकारना काबिलेतारीफ है। उनके पराक्रम और बलिदान को याद करके प्रेरणा लेना उनके लिए वास्तविक श्रद्धांजलि है।