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Written By WD

सफर एक हिन्दुस्तानी औरत का

महिला दिवस विशेष

Womens Day 2010 | सफर एक हिन्दुस्तानी औरत का
सुधा अरोड़
एक पढ़ी-लिखी हिन्दुस्तानी औरत की त्रासदी यह है कि अपनी निजी जिंदगी का एक महत्वपूर्ण और सुनहरा हिस्सा वह अपना घर सुचारु रूप से चलाने में, पति की रुचि और पसंद के अनुसार अपने-आपको ढालने में और अपने बच्चों की पढ़ाई तथा उनके भविष्य की चिंता में होम कर देती है। चालीस-पैंतालीस की उम्र के बाद वह अचानक पाती है कि वह एक फालतू सामान की तरह घर में पड़ी है। बच्चे अपने पैरों पर खड़े हैं और माँ उनके लिए बहुत बड़ी जरूरत नहीं रह गई है। पति के लिए वह एक 'आदत' बन चुकी है। कस्बे की इसी तरह की मध्यवर्गीय लड़की के लिए रघुवीर सहाय ने एक सटीक व्यंग्य कविता लिखी हैः

पढ़िए गीता, बनिए सीता
फिर इन सबमें लगा पलीता
किसी मूर्ख की हो परिणीता
निज घर-बार बसाइए।
होय कँटीली, आँखें गीली
लकड़ी सीली, तबीयत ढीली
घर की सबसे बड़ी पतीली
भरभर भात पकाइ
* 'अपनी गुड्डी तो इतना बढ़िया खाना बनाती है कि पूछो मत, खाने वाला उँगलियाँ चाटता रह जाए...। गुड्डी के ऑफिस में सब उसकी तारीफ करते हैं, मजाल है कि काम आधा छोड़कर उठ आए। कई बार तो गुड्डी को घर आते-आते 10 बज जाते हैं... अभी सो रही है, एक रविवार ही तो मिलता है सोने के लिए! शुरू से ही बड़े लाड़-प्यार में पली है हमारी गुड्डी...'

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'इसे तो चाय तक ढंग से बनानी नहीं आती। इसके हाथ की बनी सब्जी बड़ी बेस्वाद होती है, पता नहीं इसकी माँ ने इसे क्या सिखाया है... आजकल तो सभी लड़कियाँ काम करती हैं, पर दस-दस बजे घर आना... इसे घर-गिरस्ती चलानी नहीं आती... महारानी सो रही हैं, अब तक... बड़े-बुजुर्गों की परवाह ही नहीं इसे...'

यह पहचानना कतई मुश्किल नहीं है कि कौन-सा संवाद किसके लिए कहा जा रहा है। आप अपनी पड़ोसन के घर जाते हैं, एक ही उम्र की दो लड़कियाँ हैं- एक अनब्याही बेटी है और एक ब्याहकर लाई बहू। बेटी 'संज्ञा' है, जिसका एक नाम है। घर में एक बहू भी है जो नाम होते हुए भी 'यह-वह', 'इस-उस' के सर्वनामों से जानी जाती है।

* दिनकर जोशी ने एक उपन्यास लिखा 'गाँधी विरुद्ध गाँधी'। हिन्दी में इसका संस्करण है 'उजाले की परछाईं' वैसे तो यह महात्मा गाँधी के सबसे बड़े पुत्र हरिलाल उर्फ हीरालाल की- महापुरुष के अनजान, उपेक्षित बेटे की तकलीफ, उसकी कुंठा की कहानी है।

पर माँ कस्तूरबा के माँ होने के दर्द, बड़े बेटे के प्रति लगाव होते हुए भी औरत होने और बने रहने की मजबूरी छोटे-छोटे प्रसंगों में झलकती है। एक महान पुरुष की पत्नी के रूप में पति की जिद, उसकी कमजोरियों का सहज मन से स्वीकार और उसके स्वनिर्मित सत्य के अग्निकुंड में अपने वात्सल्य की आहुति- "महानता" के साये-तले उसे अपने पति से शिकायत नहीं, क्योंकि उसका पहला सरोकार पत्नी बने रहना ही है।

गुजरात का वर्धा हो या पश्चिम बंगाल का बर्दवान- "बा" जैसी औरतें आज भी बहुतायत में मिल जाएँगी।

* वैज्ञानिक कीड़े-मकौड़ों और पशु-पक्षियों पर कुछ प्रयोग करते हैं। एक वैज्ञानिक ने दो मेंढक लिए। एक मेंढक को उसने काफी गरम पानी में छोड़ा, पानी के उस गरम तापमान को झेल पाने में असमर्थ वह फौरन कूदकर बाहर आ गया। अब उसने दूसरे मेंढक को ठंडे पानी में डाला, मेंढक उसमें आराम से तैरता-कूदता रहा, उसने बाहर छलाँग नहीं लगाई। वैज्ञानिक ने धीरे-धीरे पानी का तापमान बढ़ाया और धीरे-धीरे बढ़ाते हुए बहुत गरम कर दिया। मेंढक उस गरम होते तापमान का धीरे-धीरे अभ्यस्त हो गया। और जब उसका शरीर तापमान नहीं झेल पाया तो वह मर गया।

औरतों के साथ यही हुआ है। सदियों से उनका अनुकूलन किया जा रहा है। वह हर तरह के तापमान की इस कदर अभ्यस्त हो जाती है कि एक नए घर के नए माहौल में नए लोगों के बीच धीरे-धीरे बढ़ते तापमान के साथ तालमेल बिठाना सीख जाती है और यह तालमेल अंततः उनकी मर्यादित शोभायात्रा में उनकी माँग के सिन्दूर के रूप में उनकी सजी हुई अर्थी में दिखता है।

लेकिन आज समय ने करवट बदली है। सभी औरतें मरती नहीं हैं। वे देर से ही सही, पर बढ़ते तापमान को पहचानना सीख गई हैं। वे अपने जिंदा होने के मूल्य को समझ पा रही हैं। स्त्री सशक्तीकरण धीरे-धीरे बढ़ते हुए इस असहनीय तापमान से स्त्री का मोहभंग करने, उसे जागरूक बनाने और उसे एक पहचान देने की प्रक्रिया का नाम है।