बेनजीर भुट्टो
मैंने प्रधानमंत्री पद और प्रेग्नेंसी साथ-साथ सम्हाले
'
मैंने पहली इस्लामी महिला प्रधानमंत्री चुने जाकर रूढ़ियों के कई बुर्ज ढहाए। इस दौरान औरत की राजनीति में भूमिका के बारे में भी काफी बहसें हुईं। मुझे लगा था इस सबके साथ मैं व्यक्तिगत जीवन कैसे चलाऊँगी? मगर मुल्क के काम के साथ-साथ ही मुहब्बत और मातृत्व भी मुबारक हुए। जिन लोगों ने एक औरत के गद्दी सम्हालने का विरोध किया था, उन्हीं लोगों ने प्रेग्नेंट होने पर मेरी खिल्ली भी उड़ाई। मगर मैंने परवाह नहीं की। आखिर एक औरत को भी दोनों जीवन एक साथ जीने का हक है, किसी मर्द की तरह...'। प्रस्तुत है बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा 'डॉटर ऑफ द ईस्ट' से कुछ अंश, जो बताते हैं एक धाकड़ राजनेता की जद्दोजहद, जो उन्होंने स्त्री होने के नाते की।मैंने यह जीवन नहीं चुना, इस जिंदगी ने मुझे चुना है। मेरी जिंदगी पाकिस्तान के उतार-चढ़ाव का आईना है। इस्लाम का नाम इस्तेमाल करने वाले दहशतगर्दों ने इसकी शांति को खतरे में डाला है। सैनिक तानाशाही ने धोखे का खतरनाक खेल खेला है। सत्ता खोने के डर से इसनेतरक्की पसंद ताकतों को दूर रखा है, जबकि दहशतगर्दी को भड़काया है। पाकिस्तान कोई सामान्य देश नहीं है और मेरी जिंदगी भी कोई सामान्य जिंदगी नहीं रही है। मेरे पिता और मेरे दोनों भाई मार डाले गए। मेरे पति, मेरी माँ और मुझे जेल हुई। |
'मैंने पहली इस्लामी महिला प्रधानमंत्री चुने जाकर रूढ़ियों के कई बुर्ज ढहाए। इस दौरान औरत की राजनीति में भूमिका के बारे में भी काफी बहसें हुईं। मुझे लगा था इस सबके साथ मैं व्यक्तिगत जीवन कैसे चलाऊँगी? इस काम के साथ-साथ मुहब्बत और मातृत्व भी मुबारक हुए। |
|
|
मुझे लंबे समयतक निर्वासन में रहना पड़ा। बावजूद इसके मैं खुद को खुशकिस्मत समझती हूँ, क्योंकि मैंने पहली इस्लामी महिला प्रधानमंत्री चुने जाकर रूढ़ियों के कई बुर्ज ढहाए। इस दौरान एक औरत की भूमिका के बारे में कई बहसें हुईं। मगर अंततः यह साबित हुआ कि एक मुस्लिम औरत अच्छे से मुल्क चला सकती है, आदमियों और औरतों दोनों के द्वारा अपनी नेता के रूप में स्वीकार की जा सकती है। मुझे लगा था कि इस सबके साथ मैं व्यक्तिगत जीवन कैसे चलाऊँगी। मेरी खुशियाँ, मुहब्बत, शादी, बच्चे यह सब कैसे मुमकिन होगा? इंग्लैंड की रानी एलिजाबेथ प्रथम की तरह शायद मुझे भी कुँवारा रहना पड़े? मगर मेरी जिंदगी ने अपेक्षा की इन संकीर्णताओं को भी ठुकरा दिया। राजनीतिक जीवन के बावजूद मेरी शादी मुबारक हुई। मुझे अपने शौहर पर नाज है जो हर ऊँच-नीच में मेरे साथ खड़े रहे। मैं इतिहास की किसी भी औरत के साथ अपनी जिंदगी बदलना नहीं चाहूँगी। बल्कि यूँ कहा जाए कि औरत होना ज्यादा चुनौतीपूर्ण था तो बेहतर होगा। हाँ, यह सच है कि आज भी औरतों के सामने मुश्किलें ज्यादा हैं, चाहे वे किसी भी जगह की हों। हमें अपने आपको साबित करने के लिए मर्दों से ज्यादा जोर लगाना पड़ता है, क्योंकि दुनिया यूँ ही नहीं मानती। हमें औरत होने की वजह से हो रहे पक्षपातपूर्ण रवैए से और हमलों से भी अपने आपको बचाना होता है। मगर दुनिया के दोगले व्यवहार की शिकायत करते बैठे रहने के बजाए उससे पार पाना पड़ता है। मैं अपनी माँ की शुक्रगुजार हूँ, जिन्होंने मुझे समझाया कि प्रेग्नेंसी जीवनचर्या की एक सहज जैविक अवस्था है, यह कोई सीमा या बंधन नहीं है। अतः अपने आपको सिर्फ इसलिए सीमित करने की जरूरत नहीं कि एक औरत गर्भवती होती है! हालाँकि मेरे गर्भवती होने को मिलेट्री हेडक्वार्टर्स और राजनीतिक हलकों से लेकर अखबारों ने जबरन ही बहस का विषय बनाया। जबकि इससे मेरे कामकाज और भावनात्मकता पर कोई असर नहीं पड़ा था। मैंने गर्भावस्था संबंधी छोटे-मोटे ब्योरों को गुप्त ही रखा था, राजकाज के आड़े आने भी नहीं दिया था।
जब मेरा पहला बच्चा बिलावल होने वाला था, तब मैं पैंतीस साल की हो चुकी थी। सैनिक तानाशाही ने संसद भंग कर दी थी और आम चुनाव की घोषणा कर दी थी। उन लोगों को भरोसा था कि एक प्रेग्नेंट औरत कहाँ चुनावी कामकाज कर पाएगी? वे गलत थे। मैं सब कर सकती थी और मैंने किया भी। यही नहीं, मैंने बिलावल के जन्म के ठीक बाद होने वाले चुनाव भी जीते। मैं जब प्रधानमंत्री थी तभी दूसरी बार भी गर्भवती हुई। जब राजनीतिक विपक्षियों को पता चला कि मैं गर्भवती हूँ तो मानो भूचाल आ गया। उन्होंने राष्ट्रपति और सेना को बुलाकर मुझे निकाल बाहर करने को कहा! उन्हें डर था कि एक जच्चा सरकार कैसे चलाएगी? उन्हें लगायह असंवैधानिक है और अंतरिम सरकार गठित करके नए चुनाव करवा लिए जाने चाहिए! मैंने विपक्ष की माँग को ठुकरा दिया। साथ ही यह भी याद दिलाया कि देश में वर्किंग-वुमन के मेटरनिटी के अधिकार की रक्षा करने वाले कानून भी हैं। मैंने तर्क दिया कि यह अधिकार प्रधानमंत्री पर भी लागू होता है। मेरी सरकार के साथ सदस्यों ने मेरा साथ दिया। सरकार गिराने का दबाव बनाने के लिए विरोधियों ने हड़ताल का मन बनाया। मैंने अपने पिता से सही 'टाइमिंग' का महत्व सीखा था। प्रेग्नेंसी फुल टर्म में तो आ ही गई थी, मैंने हड़ताल के आह्वान की संध्या पर डॉक्टर के परामर्श पर सिजेरियन डिलेवरी करवा ली! मैं इस रूढ़ि को बल नहीं देना चाहती थी कि गर्भवती होने से परफॉरमेंस में कोई फर्क पड़ेगा। अतः मैं अंतिम समय तक सामान्य रूप से अपने कामकाज करती रही। और जचगी के लिए अस्पताल सरकारी गाड़ी में नहीं बल्कि अपनी मित्र की कार में गई। इस समय बेटी बख्तावर हुई।बख्तावर का मतलब होता है अच्छी किस्मत लाने वाली दूत। सचमुच बख्तावर खुशियाँ लाई, क्योंकि हड़ताल फेल हो गई, विरोधियों का आंदोलन असफल हो गया। मुझे दुनिया भर से हजारों बधाई संदेश मिले। विभिन्न देशों की सरकारों के प्रमुखों से लेकर आम लोगों तक केबधाई संदेश मुझे मिले। यह एक निर्णायक मौका था यह साबित करने के लिए कि सबसे चुनौतीपूर्ण, सबसे ऊँचे पद पर होते हुए भी स्त्री एक बच्चे को जन्म दे सकती है। मैं दूसरे ही दिन अपनी फाइलें देखने और पेपर साइन करने में लग गई थी। यह तो मुझे बाद में मालूम हुआ कि रिकॉर्डेड हिस्ट्री में यह पहला मौका था, जब हेड ऑफ द गवर्मेंट होते हुए कोई स्त्री जन्मदात्री बनी हो। जब मुझे तीसरी संतान हुई तब भी पाकिस्तान उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। आसिफा के जन्म के साथ ही मेरा परिवार संपूर्ण हो गया था। लंदन में जब मैं यह लिख रही हूँ, तब मुझे यह स्वीकार करना होगा कि मेरा जीवन जितना मुश्किल रहा उतना ही दिलचस्प भी रहा है। मैं हमेशा अपना बोरिया-बिस्तर बाँधे ही रही। महिलाओं के अधिकारों, प्रजातंत्र संबंधी अपने विचारों पर मैंने जगह-जगह व्याख्यान दिए। मगर अपने बच्चों के साथ अपना भावनात्मक जीवन भी जिंदा रखा। राजनीतिक-सामाजिक जीवन के साथ प्यार और ममता को भी छककर जिया। आखिर एक औरत को भी दोनों जीवन एक साथ जीने का हक है किसी मर्द की तरह!