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मुनव्वर राना की ग़ज़ल
तू कभी देख तो रोते हुए आकर मुझकोरोकना पड़ता है पलकों से समंदर मुझको इससे बढ़कर भला तौहीने अना1 क्या होगीअब गदागर2 भी समझते हैं गदागर मु्झको एक टूटी हुई कश्ती पे सफ़र क्या मानी हाँ निगल जाएगा एक रोज़ समंदर मुझको जख़्म चेहरे पे लहू आँखों में सीना छलनी ज़िंदगी अब तो ओढ़ा दे कोई चादर मुझको मेरी आँखों को वो बीनाई3 अता कर मौला एक आँसू भी नज़र आए समंदर मुझकोइसमें आवारा मिज़ाजी का कोई दख़्ल नहींदश्तो सहरा4 में फिराता है मुक़द्दर मुझकोआज तक दूर न कर पाया अँधेरा घर काऔर दुनिया है कि कहती है 'मुनव्वर' मुझको 1.
दुख 2. भिखारी 3. देखने की शक्ति 4. रेगिस्तान