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  4. importance of sentiments in youth
Written By WD Feature Desk
Last Updated : गुरुवार, 26 जून 2025 (17:54 IST)

रिश्तों की मशीनों में उलझी युवा पीढ़ी, युवाओं को रूकने की नहीं, रुक रुककर जीने की है जरूरत

क्या आज की युवा पीढ़ी दौड़ में इतनी उलझ चुकी है कि रिश्तों और भावनाओं का महत्व भूल रही है? पढ़िए तनुजा चौबे का विचारोत्तेजक लेख

youth and relationships
- तनुजा चौबे 
 
आजकल समाज में कई सर्वेक्षण होते हैं, अनेक संगोष्ठियाँ आयोजित होती हैं। सोशल मीडिया पर कई प्रेरक वक्ता युवाओं को जीवन जीने का तरीका, माता-पिता और परिजनों से व्यवहार और लिव-इन संबंधों पर भाषण देते हैं। फिर भी, कुछ ही लोग हैं जो शायद जीवन जीने की कला को वास्तव में समझते हैं। कुछ बुद्धिजीवी वर्ग स्वयं को समाज से अलग कर लेते हैं, यह कहकर कि "हमें इन बातों से क्या लेना-देना, हम तो अपनी ज़िंदगी जी रहे हैं।" इस सोच के दायरे से निकलना बहुत ही आवश्यक है। इसमें हर व्यक्ति यही मान बैठा है कि वह सबसे अलग और विशेष है, उसे सामाजिक परिवेश से कोई मतलब नहीं। लेकिन सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। अपनी बुद्धिमत्ता के बल पर आज के परिवेश को बदलने में सहायता देना होगा।
 
बात वहीं से शुरू होती है जब हमें पूरे संसार की नहीं, केवल अपने बच्चों के संस्कार, आचरण और व्यवहार की चिंता करनी चाहिए। हमारे पूर्वज जड़ी-बूटियों और योग से अपने को स्वस्थ रखते थे। धीरे-धीरे यही पद्धति वैश्विक बन गई और आज योग दुनिया भर में युवाओं की जीवनशैली का हिस्सा बन रहा है।
 
फिर भी यह प्रश्न खड़ा होता है कि इतनी जागरूकता के बावजूद आज के युवाओं में संवेदनाएं क्यों कम हो रही हैं? कोई भी समस्या आने पर वे माता-पिता के पास जाने की बजाय काउंसलर, मानसिक चिकित्सक या फिर आत्मघाती विचारों की ओर क्यों बढ़ जाते हैं?
 
कुछ बुद्धिजीवी वर्ग यह तर्क देते हैं कि यदि बच्चे आधुनिक हो रहे हैं और तकनीक के अधिक उपयोगकर्ता बनते जा रहे हैं, तो इसमें परेशानी क्या है? लेकिन कौन बताए कि इसी दौड़ में संस्कार पीछे छूट रहे हैं और संवेदनाएं भी। जिस दिन बच्चे केवल रोबोट बन जाएंगे, उसी दिन हमें उनके साथ रिश्तों को मशीनों की तरह संभालना पड़ेगा।
 
युवा पीढ़ी आज लिव-इन संबंधों में रहकर एक-दूसरे को समझने की कोशिश करती है। यह स्वतंत्रता उन्हें मिली है, लेकिन इसी से जुड़े मानसिक, शारीरिक और सामाजिक परिणाम भी उत्पन्न होते हैं। जब यह संबंध टूटता है, तो साथ में केवल एक-दूसरे से दूरी नहीं होती, बल्कि दिलों में एक अधूरा दर्द रह जाता है जिसे वे दिखावे की चादर से ढकने की कोशिश करते हैं।
 
बच्चों का जन्म एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, मगर आजकल यह भी तकनीकी प्रक्रिया में बदल गया है। गर्भावस्था के दौरान फोटो शूट, विभिन्न जांचें, और मेडिकल हस्तक्षेपों के कारण बच्चा भी जन्म से पहले ही एक मशीनों से घिरे संसार का हिस्सा बनने लगता है। उसकी संवेदनाओं की नींव मशीनों से गुजरकर रखी जाती है।
 
बच्चों के जन्म के बाद उन्हें `प्री स्कूल' में भेजा जाता है, जहां दो साल के बच्चे को स्कूल और इंटरव्यू के लिए तैयार किया जाता है। यह मशीनी प्रक्रिया बच्चे को जीवन की दौड़ में शुरुआती उम्र में ही शामिल कर देती है। जन्मदिन अब घरों, मंदिरों या सामाजिक संस्थाओं में मनाने के बजाय पिकनिक स्पॉट्स और रेस्टोरेंट में मनाए जाते हैं। इसी से जीवनशैली भी उसी अनुसार ढलने लगती है और धीरे-धीरे संवेदनाएं खोने लगती हैं।
 
इस दौड़ में बच्चों का लक्ष्य नब्बे प्रतिशत से ज्यादा अंक लाना होता है, क्योंकि उन्हें यही सिखाया जाता है कि इसी में उनका भविष्य सुरक्षित है। पढ़ाई तो होती है, लेकिन उसका व्यावहारिक ज्ञान अधूरा रह जाता है। जब वह युवा अपनी उम्र के अन्य लोगों को भी अपने जैसे पाता है, तो प्रतियोगिता और बेहतर बनने की अंधी दौड़ और तेज़ हो जाती है।
 
वह ऑनलाइन पाठ्यक्रमों, अतिरिक्त कक्षाओं और नए कौशलों को सीखने में लगा रहता है। शादी की उम्र आते-आते वह खुद को आर्थिक रूप से स्थापित करना चाहता है। गाड़ी, बंगला, सुख-सुविधाएँ लोन पर उपलब्ध हैं, लेकिन उन्हें चुकाते-चुकाते जीवन का उत्साह खो जाता है। आपसी समय न देना, थकान, नींद की कमी और अवसाद, रिश्तों को असंतुलित कर देते हैं।
 
धीरे-धीरे यह असंतुलन जीवन रथ की दिशा को भटका देता है। कुछ लोग तो अब शादी और बच्चों से भी दूर हो जाते हैं। समय के साथ जब वे ठहरते हैं, तो सोचते हैं, क्या यही सफलता है? क्या लग्ज़री जीवन या विदेश यात्रा ही जीवन का अर्थ है?
 
अब कुछ लोग जीवन के रथ की दिशा मोड़ने लगे हैं, अनाथ आश्रमों में सेवा, सामाजिक कार्यों में भागीदारी, कार्यशालाओं में सम्मिलित होकर अपनी ज़िंदगी को संतुलित करने की कोशिश कर रहे हैं। कई लोग अब स्वस्थ जीवनशैली को अपनाने लगे हैं, और धीरे-धीरे पीछे लौटने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन यह गति बहुत धीमी है।
 
जब तक हम वहीं न लौटें जहाँ संवेदनाओं को हमने छोड़ा था, तब तक युवा पीढ़ी संवेदनशील नहीं हो सकती। इसके लिए उन्हें अपने जीवन की गति को थोड़ा धीमा करना होगा, रिश्तों को समय देना ही होगा और जीने के तरीके में संतुलन लाना होगा।
 
युवाओं को रुकना नहीं है, पर कभी-कभी 'रुक कर जीना' ज़रूरी हो जाता है। यही "रुको, देखो,आगे बढ़ो" उन्हें संवेदनशील बनाएगा।