आसमान-ए-अदब का रोशन सितारा 'सरवर शहाब'
अज़ीज़ अंसारी देखने में आया है कि कुछ लोग बहुत कम मेहनत किसी काम में करते हैं लेकिन नाम ज़्यादा कमा लेते हैं। कुछ लोग किसी काम में बहुत ज़्यादा मेहनत करते हैं, बहुत अच्छा काम करते हैं लेकिन फिर भी गुमनामी के अंधेरे में पड़े रहते हैं। सियासत की हलचल हो या शे'र-ओ-अदब की महफ़िल एसे ख़ुशनसीब और ऐसे बदनसीब लोग हर जगह मिल जाएँगे। इन्दौर में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है। यहाँ हम जनाब सरवर शहाब का ज़िक्र करना पसन्द करेंगे। आप पेशे से एक कामयाब इंजीनियर और इंटीरियर डेकोरेटर हैं लेकिन शे'र-ओ-शायरी का शौक़ दीवानगी की हद तक रखते हैं। अच्छी शायरी पढ़ना और सुनना इनका महबूब मशग़ला है। जो कलाम इन्हें पसन्द आ जाए वो इन्हें याद हो जाता है। फ़न-ए-शायरी और शायरी के मेयार को समझते हैं, कभी कभी खुद भी तबा आज़माई कर लेते हैं। दोस्तों को दूसरों के शे'र तो खूब सुनाते हैं लेकिन अपने कहे हुए शे'र बड़ी मुश्किल से सुनाने पर राज़ी होते हैं। आज हम यहाँ उनकी दो ग़ज़लें पेश कर रहे हैं। सरवर शहाब की ग़ज़लें 1.
जवान अज़्म ने बख्शा है ये सिला मुझ को समन्दरों ने दिया बढ़ के रास्ता मुझ को मैं दूसरों पे जो तंक़ीद करने लगता हूँ मेरा ज़मीर दिखाता है आईना मुझ को ये जानते ही कि उसकी गली का ज़र्रा हूँ बिठाए फिरती है कांधे पे अब हवा मुझकोपुकारता हूँ तो आवाज़-ए-बाज़गश्त भी नहीं मेरा बदन भी लगा आज खोकला मुझ को बिछड़ के शाख़ से मुझ पे न हक़ किसी का रहा जहाँ भी चाहा उड़ा ले गई हवा मुझ को 2.
जो बेसबाती का अपनी ख्याल आता है रुख-ए-हयात पे रंग-ए-मलाल आता है अना की सीढ़ियाँ आमद जहाँ बढ़ाती हैं वहाँ उरूज से पहले ज़वाल आता है फ़िराक़-ए-यार की उन मंज़िलोi में गुम हूँ जहाँ सज़ा के तौर पर लफ़्ज़-ए-विसाल आता है जो नब्ज़-ए-वक़्त पे रखता है अँगुलियाँ अपनी वो अल्ग़नी पे उदासी को डाल आता है ये मैं जहाँ भी कहीं सरफ़राज़ होता है मेरे वजूद को पस्ती में डाल आता है जहाँ ख़िरद की रसाई के पर झुलसते हैं वहीं पे काम दिल-ए-पायमाल आता है