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Written By WD

असग़र गोंडवी की ग़ज़लें

असग़र गोंडवी की ग़ज़लें -
नये शीशा, न ये साग़र, न ये पैमाना बने
जान-ए-मैखाना तेरी नर्गिस-ए-मस्ताना बने

मरते मरते न कभी आक़िल-ओ-फ़रज़ाना बने
होश रखता हो जो इंसान तो दीवाना बने

परतव-ए-रुख के करिश्मे थे सर-ए-राहगुज़र
ज़र्रे जो खाक से उट्ठे वो सनमखाना बने

मौज-ए-सेहबा से भी बढ़ कर हों हवा के झोंके
अब्र यूँ झूम के छा जाए कि ैखाना बने

कार फ़रमा है फ़क़त हुस्न का नैरंग-ए-कमाल
चाहे वो शम्मा बने चाहे वो परवाना बने

छोड़ कर यूँ दर-ए-मेहबूब चला सेहरा को
होश में आए ज़रा क़ैस न दीवाना बने

खाक परवाने की बरबाद न कर बाद-ए-सबा
यही मुमकिन है कि कल तक मेरा अफ़साना बने

जुरअ-ए-मय तेरी मस्ती की अदा हो जैसे
मौज-ए-सेहबा तेरी हर लग़ज़िश-ए-मस्ताना बने

उसको मतलब है कुछ क़ल्ब-ओ-जिगर के टुकड़े
जेब-ओ-दामन न कोई फाड़ के दीवाना बने

रिन्द जो ज़र्फ़ उठा लें वही साग़र बन जाए
जिस जगह बैठ के पी लें वही मयखाना बने

2. है दिल-ए-नाकाम-ए-आशिक़ में तुम्हारी याद भी
ये भी क्या घर है कि है बरबाद भी आबाद भी

दिल के मिटने का मुझे कुछ और ऎसा ग़म नहीं
हाँ मगर इतना कि है इसमें तुम्हारी याद भी

किस को ये समझाइए नैरंग कार-ए-आशिक़ी
थम गए अशक-ए-मुसलसल रुक गई फ़रयाद भी

सीने में दर्द-ए-मोहब्बत राज़ बनकर रह गया
अब वो हालत है कि कर सकते नहीं फ़रयाद भी

फाड़ डालूँगा गरेबाँ फोड़ लूँगा अपना सर
है मेरे आफ़त कदे में क़ैस भी फ़रहाद भी

कुछ तो असग़र मुझमें है क़ाइम है जिससे ज़िन्दगी
जान भी कहते हैं उसको और उनकी याद भी

3. आलाम-ए-रोज़गार को आसाँ बना दिया
जो ग़म हुआ उसे ग़म-ए-जानाँ बना दिया

मैं कामयाब-ए-दीद भी, मेहरूम-ए-दीद भी
जलवों के अज़दहाम ने हैराँ बना दिया

यूँ मुस्कुराए जान सी कलियोँ में पड़ गई
यूँ लब कुशा हुए कि गुलिस्ताँ बना दिया

कुछ शोरिशों की नज़्र हुआ खून-ए-आशिक़ाँ
कुछ जम के रह गया उसे हरमाँ बना दिया

क्या क्या क़यूद देहर में हैं एहद-ए-होश के
ऐसी फ़िज़ा-ए-साफ़ को ज़िनदाँ बना दिया

मजबूरी-ए-हयात में राज़-ए-हयात है
ज़िन्दाँ को मैं ने रोज़न-ए-ज़िन्दाँ बना दिया

वो शोरिशें निज़ाम-ए-जहाँ जिनके दम से है
जब मुख्तसर किया उन्हें इंसाँ बना दिया

हम उस निगाह-ए-नाज़ को समझे थे नेशतर
तुमने तो मुस्कुराके रग-ए-जाँ बना दिया

इस हुस्न-ए-कारोबार को मस्तों से पूछिए
जिसको फ़रेब-ए-होश ने इसयाँ बना दिया

4. सितम के बाद अब उनकी पशेमानी नहीं जाती
नहीं जाती नज़र की फ़ितनासामानी नहीं जाती

नमूद-ए-जलवा-ए-बेरंग से होश इस क़दर गुम हैं
कि पेहचानी हुई सूरत भी पेहचानी नही जाती

पता मिलता नहीं अब आतिश-ए-वादि-ए-एमन का
मगर मीना-ए-मय की नूर अफ़शानी नही जाती

मगर इक मुश्त-ए-पर की खाक से कुछ रब्त बाक़ी है
अभी तक शाख-ए-गुल की शोला अफ़शानी नहीं जाती

चमन में छेड़ती है किस मज़े से ग़ुनचा-ओ-गुल को
मगर मौज-ए-सबा की पाक दामानी नहीं जाती

उड़ा देता हूँ अब भी तार तार-ए-हस्त-ओ-बूद असग़र
लिबाम-ए-ज़ोहद-ओ-तमकीं पर भी उरयानी नहीं जाती