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Written By अजीज अंसारी

हमारे भी हैं मेहरबाँ कैसे-कैसे

हमारे भी हैं मेहरबाँ कैसे-कैसे -
(ईद मुबारक कहने वाले अनोखे और प्यारे दोस्त)

WDWD
* आज ईद है मैं सबसे बचता हुआ एक बाग़ीचे में आ पहुँचा हूँ। आज यहाँ की रौनक़ का क्या कहना। हर फूल हँस रहा है, हर कली मुस्कुरा रही है। भीनी-भीनी ख़ुश्बू से सारा माहौल महक रहा है। हल्की-हल्की, ठंडी-ठंडी हवा बह रही है, सारे माहौल पर बेख़ुदी छाई हुई है।

बाग़ के तमाम फूल-पौधों और दरख़्तों को देखकर ऐसा मेहसूस हो रहा है जैसे आज ये कुछ ज़्यादा ही अपनी ख़ुशी का इज़हार कर रहे हैं। आज ये स्पेशल ख़ैरमक़दम कैसा! अरे जनाब आज ईद है! पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा आपसे आपका हाल पूछ रहा है और आपको कहा रहा है ईदमुबारक---ईदमुबारक।
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* मैं एक दिलकश बीच पर पानी से कुछ दूर खड़ा हुआ समन्दर को देख रहा हूँ। दूर-दूर तक पानी और सिर्फ़ पानी दिखाई दे रहा है। आज समन्दर ख़ामोश है, उसकी लहरें उठ ज़रूर रही हैं लेकिन इनमें वो शरारत, वो शोर नहीं है जो आम तौर से रोज़ हुआ करता है।

हल्की-हल्की लहरें किनारे तक आ रही हैं। ऐसा लगता है वो मेरे क़रीब आना चाहती हैं। मेरे क़दमों को छूना चाहती हैं। अरे ये क्या! ये तो आ भी गईं। लहरें मेरे पैरों से टकराने लगी हैं। जल्दी ही मेरी समझ में ये बात आ गई के ये मुझसे क्या कह रही हैं।
ये मुझसे कह रही हैं ईदमुबारक---ईदमुबारक।
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  चार साल में आज पहली बार इस नए घर में फ़ाख़ता का जोड़ा दिखाई दिया। मुझे लगा ये वही फ़ाख़ताएँ हैं। मैं उनसे बातें करने लगा। वो भी ग़ूँ-ग़ूँ करके कुछ कहती रहीं और हर पौधे पर बैठ कर उसका जायज़ा लेती रहीं।      
* क़रीब चार साल से मैं अपने नए मकान में रह रहा हूँ। इससे पहले जिस मकान में रहता था वहाँ आँगन में फ़ाखता के एक जोड़े ने अपना घोंसला बनाया था। आँगन के बड़े दरवाजे के ठीक सामने था ये घोंसला। इसमें फ़ाख़ता ने अंडे दिए थे और अपने बच्चों की परवरिश भी की थी। हम जब भी घर से बाहर जाते वक़्त गेट पर ताला लगाते तो फ़ाख़ता पर ज़रूर नज़र पड़ती। हम उससे कहते, 'देखो हम बाहर जा रहे हैं तुम कहीं नहीं जाना और घर की ठीक से देखभाल करना"। वो भी ग़ूँ-ग़ूँ करके कुछ कहती जैसे कह रही हो 'आप इत्मीनान से जाइए, यहाँ, मैं हूँ ना।'