मीर तक़ी मीर के मुनफ़रीद अशआर
पेशकश : अजी़ज़ अंसारी मस्जिद में आज इमाम हुआ आके वहाँ सेकल तक तो यही मीर खराबात नशीं थानाम आज कोई याँ नहीं लेता है उन्हों का जिन लोगों के कल मुल्क ये सब ज़ेर-ए-नगीं थाआया तो सही वो कोई दम के लिए लेकिन होंटों पे मेरे जब नफ़स-ए-बाज़-ए-पसीं था मुँह तका ही करे है जिस तिस काहैरती है ये आईना किस कादिल की वीरानी का क्या मज़कूर है ये नगर सो मरतबा लूटा गयासख्त काफ़िर था जिसने पहले मीर मज़हब-ए-इश्क़ इख्तियार किया इबतिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्याआगे आगे देखिए होता है क्याबुलबुल ग़ज़ल सराई आगे हमारे मत कर सब हमसे सीखते हैं अन्दाज़ गुफ़्तगू काशरीफ-ए-मक्का रहा है तमाम उम्र ऐ शेखये मीर अब जो गदा है शराबखाने कामुझको शायर न कहो मीर कि साहब मैंने दर्द-ओ-ग़म कितने किए जमआ तो दीवान कियावस्ल में रंग उड़ गया मेराक्या जुदाई में मुँह दिखाऊँगामीर साहब ज़माना नाज़ुक है दोनों हाथों से थामिए दस्तार कहता है कौन तुझको याँ ये न कर, तू वो कर पर हो सके तो प्यारे दिल में भी टुक जगह करमीर जी ज़र्द होते जाते हो क्या कहीं तुमने भी किया है इश्क़ बेकली बेखुदी कुछ आज नहीं एक मुद्दत से वो मिज़ाज नहीं मत सेह्ल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों तब खाक के परदे से इंसान निकलते हैं गिरया-ए-शब से सुर्ख हैं आँखेंमुझ बलानोश को शराब कहाँ होगा कसू दीवार के साए में पड़ा मीरक्या काम मोहब्बत से इस आराम तलब को हस्ती अपनी हुबाब की सी है ये नुमाइश सुराब की सी है शादी-ओ-ग़म में जहाँ की एक से दस का है फ़र्क़ ईद के दिन हँसिए तो दस दिन मोहर्रम रोइए
मीर अमदन भी कोई मरता है जान है तो जहान है प्यारेमेरे तग़यीर-ए-हाल पर मत जा इत्तेफ़ाक़ात हैं ज़माने के सरहाने मीर के आहिस्ता बोलोअभी टुक रोते-रोते सो गया है सह्ल है मीर का समझना क्या हर सुखन उसका इक मक़ाम से है यरान-ए-देर-ओ-काबा दोनों बुला रहे हैं अब देखें मेरा अपना जाना किधर बने है मर्ग-ए-मजनूँ से अक़्ल गुम है मीरक्या दिवाने ने मौत पाई है आगे कसू के क्या दें दस्त-ए-तमादराज़वो हाथ सो गया है सराहने धरे हुए पैदा कहाँ हैं एसे परागन्द तबआ लोग अफ़सोस तुमको मीर सोहबत नहीं रहीसब मज़े दरकिनार आलम के यार जब हमकिनार होता है मेरा शेर अच्छा भी ज़िद से कसू और का ही कहा जानता है कोहकन क्या पहाड़ तोड़ेगाइश्क़ ने ज़ोर आज़माई की फिरते हैं मीर ख्वार कोई पूछता नहीं इस आशिक़ी में इज़्ज़त-ए-सादात भी गईहम कभू ग़म से आह करते थे आसमाँ तक सियाह करते थेदिल गया, रुसवा हुए, आखिर को सौदा हो गयाइस दो रोज़ह ज़ीस्त में हम पर भी क्या क्या हो गयाआने के वक़्त तुम तो कहीं के कहीं रहे अब आए तुम तो फ़ाएदा हम ही नहीं रहे उन ने देखा जो उठ के सोते से उड़ गए आईने के तोते से