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नज़्म : माहौल
कमरे में एक बंगले के बैठे थे मर्द-ओ-ज़न फ़ैशन परस्त लोग थे उरयाँ थे पैरहन हाथों में थे ग्लास सभी के भरे हुए टेबल पे थे प्लेट में काजू धरे हुए था क़हक़हों का शोर भी म्यूज़िक भी था वहाँ नश्शा हरइक पे तारी था और रात थी जवाँ कुछ यूँ हुआ के चहरों पे हैरत सी छा गईदोशीज़ा एक झूमती कमरे में आ गईबेशर्म होके बाप से यूँ बोलने लगीहर राज़ अपने घर का वहाँ खोलने लगी डॆडी मुझे भी थोड़ी जगह अपने पास दो अब अपने हाथ ही से मुझे भी ग्लास दो बेटी पे अपनी आप कभी तो ख़्याल दो कुछ बर्फ़ और थोड़ा सा सोडा भी डाल दो डैडी ने उसका हुक्म बजा लाके ये कहाकमरे में अपने जाओ तमाशा ये हो चुका जाती हूँ डैडी बात मगर ये बता तो दूँइक चोट आप सब के दिलों पर लगा तो दूँदिल में सवाल उठने लगा होगा आपकेरिश्ते ये कैसे हो गए बेटी से बाप के बेटी थी घर की नेक मगर कैसी हो गई माहौल घर का जैसा था मैं वैसी हो गई