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रचनात्मकता को बढ़ाने में शिक्षकों की अहम भूमिका

रचनात्मकता को बढ़ाने में शिक्षकों की अहम भूमिका - Teachers Day and Teachers
-सुशील शर्मा
 
शिक्षा मनुष्य को देवत्व प्रदान करती है। -विवेकानंद
 
शिक्षा सुसंस्कृत बनाने का माध्यम है। यह हमारी संवेदनशीलता और दृष्टि को प्रखर करती है जिससे राष्ट्रीय एकता पनपती है, वैज्ञानिक तरीके के अमल की संभावना बढ़ती है और समझ और चिंतन में स्वतंत्रता आती है। साथ ही शिक्षा हमारे संविधान में प्रतिष्ठित समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के लक्ष्यों की प्राप्ति में अग्रसर होने में हमारी सहायता करती है।
 
शिक्षा की विशिष्टता के आधार पर शिक्षा के वैयक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्यों का सर्जन हुआ है। शिक्षा संबंधी सभी उद्देश्य प्राय: इन्हीं दोनों उद्देश्यों में से किसी एक उद्देश्य के पक्ष में बल देते हैं। व्यक्ति के विकास से ही समाज का विकास हुआ तथा दिन-प्रतिदिन हो रहा है अत: शिक्षा को व्यक्तिगत रुचियों, क्षमताओं तथा विशेषताओं का विकास करना
चाहिए।
 
गांधीजी ने 'हिन्द स्वराज' (पुस्तिका) में लिखा था- 'अंग्रेजी शिक्षा लेकर हमने अपने राष्ट्र को गुलाम बनाया है। जो लोग अंग्रेजी पढ़े हुए हैं, उनकी संतानों को नीति ज्ञान, मातृभाषा सिखानी चाहिए और हिन्दुस्तान की दूसरी भाषाएं सिखानी चाहिए'। अन्य प्राचीन धर्मों की तरह वैदिक दर्शन की भी यह मान्यता है कि प्रकृति प्राणधारा से स्पंदित है।
 
भारत की शिक्षा नीति
 
हमारी शिक्षा नीति में स्पष्ट उल्लेखित है कि राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था पूरे देश के लिए एक राष्ट्रीय शिक्षाक्रम के ढांचे पर आधारित होगी जिसमें एक 'सामान्य केंद्रिक' होगा और अन्य हिस्सों की बाबत लचीलापन रहेगा जिन्हें स्थानीय पर्यावरण तथा परिवेश के अनुसार ढाला जा सकेगा। 'सामान्य केंद्रिक' में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास, संवैधानिक जिम्मेदारियों तथा राष्ट्रीय अस्मिता से संबंधित अनिवार्य तत्व शामिल होंगे।
 
ये मुद्दे किसी एक विषय का हिस्सा न होकर लगभग सभी विषयों में पिरोये जाएंगे। इनके द्वारा राष्ट्रीय मूल्यों को हर इंसान की सोच और जिंदगी का हिस्सा बनाने की कोशिश की जाएगी। इन राष्ट्रीय मूल्यों में ये बातें शामिल हैं- हमारी समान सांस्कृतिक धरोहर, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, स्त्री-पुरुषों के बीच समानता, पर्यावरण का संरक्षण, सामाजिक समता, सीमित परिवार का महत्व और वैज्ञानिक तरीके के अमल की जरूरत। यह सुनिश्चित किया जाएगा कि सभी शैक्षिक कार्यक्रम धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों के अनुरूप ही आयोजित हों।
 
शिक्षा के उद्देश्य
 
1. वैयक्तिक उद्देश्य
 
संकुचित अर्थ में शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्य को आत्माभिव्यक्ति, बालक की शक्तियों का सर्वांगीण विकास तथा प्राकृतिक विकास आदि नामों से पुकारा जाता है। इस अर्थ में यह उद्देश्य प्रकृतिवादी दर्शन पर आधारित है। इसके प्रतिपादकों का अटल विश्वास है कि समाज की अपेक्षा व्यक्ति बड़ा है। अत: उनकी धारणा है कि परिवार, समाज, राज्य तथा स्कूलों को बालक की व्यक्तिगत शक्तियों को विकसित करने के लिए ही स्थापित किया गया है। इस दृष्टि से प्रत्येक राज्य तथा सामाजिक संस्था का कर्तव्य है कि वह व्यक्ति के जीवन को अधिक से अधिक अच्छा, संपन्न तथा सुखी एवं पूर्ण बनाए।
 
आज प्राकृतिक पर्यावरण के क्षरण और वर्तमान कष्ट का एकमात्र कारण आधुनिक शिक्षा प्रणाली का एकांतिक दृष्टिकोण है। यह व्यावहारिकता और यथार्थवाद से कोसों दूर है। शिक्षा का प्रारंभ इस एकमात्र लक्ष्य को लेकर हुआ कि सामाजिक दृष्टि से अच्छे इंसान तैयार हों, किंतु अब यह विकृत होकर ऐसी प्रणाली में बदल गई है, जो शरीर और बुद्धि की बात तो करती है किंतु मनुष्य का आध्यात्मिक और भावनात्मक दृष्टि से स्पर्श नहीं करती। इसका ही परिणाम है कि असंतुलित व्यक्तित्व तैयार हो रहे हैं, जीवन के लिए आवश्यक मूल्यों का ह्रास हो रहा है और मूल्यों पर से ही लोगों का विश्वास उठता जा रहा है। 
 
शिक्षाक्रम में ऐसे परिवर्तन की जरूरत है जिससे सामाजिक और नैतिक मूल्यों के विकास में शिक्षा एक सशक्त साधन बन सके। यदि प्रत्येक बालक के व्यक्तित्व का उत्तम विकास करना है तो व्यक्तिगत विभिन्नता के सिद्धांत को दृष्टि में रखना होगा। अत: प्रत्येक स्कूल का कर्तव्य है कि वह बालक की रुचियों, आवश्यकताओं तथा योग्यताओं को दृष्टि में रखते हुए उसके समक्ष ऐसे अवसर प्रदान करे जिनके आधार पर उसकी मूल प्रवृत्तियां निखर जाएं तथा उसकी समस्त शक्तियों एवं गुणों का समुचित विकास होकर वह एक उत्तम व्यक्ति बन जाए।
 
2. सामाजिक उद्देश्य
 
सामाजिक दृष्टि से व्यक्ति का संपूर्ण जीवन राष्ट्र की भलाई के लिए है, न कि राष्ट्र व्यक्ति के लिए है। अत: राष्ट्र का अधिकार है कि वह अपनी इच्छाओं, आवश्यकताओं तथा आदर्शों की पूर्ति के लिए व्यक्ति को जैसा चाहे बनाए तथा शिक्षा के द्वारा बालकों को जिस सांचे में ढालना चाहे, ढाले। प्रत्येक व्यक्ति का यह पुनीत कर्तव्य है कि वह राष्ट्र की सत्ता को बढ़ाने के लिए अपनी सत्ता को मिटा दे तथा तन और मन से उसकी सेवा करके उसे सबल तथा सुदृढ़ बनाए।
 
राष्ट्र स्वयं की शिक्षा की एक सुनिश्चित प्रणाली बनाकर लागू करता है। यही नहीं, पाठ्यक्रम, शिक्षण पद्धतियों एवं अनुशासन को भी इसी प्रकार से आयोजित करता है कि व्यक्ति की इच्छाओं तथा आकांक्षाओं का संकुचन भी हो जाए और उसमें आज्ञा पालन, अनुशासन, संगठन तथा अपार भक्ति के ऐसे भाव भी विकसित हो जाएं कि वह राष्ट्र कल्याण हेतु अपना सर्वस्व न्योछावर कर दे।
 
अत: बालक और समाज दोनों के विकास तथा प्रगति हेतु शिक्षा के दोनों वैयक्तिक तथा सामाजिक उद्देश्यों के मध्य का रास्ता निकाल लिया जाए जिससे कि व्यक्ति अपनी यथाशक्ति समाज को सबल बना सके तथा समाज व्यक्ति के व्यक्तित्व को पूर्ण रूप से विकसित करने के लिए वांछनीय परिस्थितियों को उपलब्ध करा सके। 
 
इस दृष्टि से यदि हम वैयक्तिक उद्देश्य का अर्थ आत्माभूति तथा सामाजिक उद्देश्य का अर्थ समाजसेवा स्वीकार कर लें तो दोनों उद्देश्यों में समन्वय सरलतापूर्वक स्थापित हो सकता है। दोनों उद्देश्यों के व्यापक रूपों में समन्वय से शिक्षा की ऐसी योजना बनाई जा सकेगी जिसके द्वारा दोनों बातें संभव हो सकेंगी- (1) बालक के व्यक्तित्व का विकास तथा (2) सामाजिक उन्नति। 
 
शिक्षा के उद्देश्य के बारे में स्पष्टता की आवश्यकता है। शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है- चरित्र निर्माण व व्यक्तित्व विकास। दूसरी बात यह कि शिक्षा के द्वारा देश और समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए तथा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समस्याओं का समाधान प्राप्त होना चाहिए। उपरोक्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए शिक्षा में प्राचीन एवं आधुनिकता का समन्वय होना चाहिए, साथ में भौतिकता व आध्यात्मिकता का भी समन्वय होना चाहिए, व्यवहार व सिद्धांत का संतुलन होना चाहिए। 
 
शिक्षा स्वायत्त होनी चाहिए, मूल्य आधारित होनी चाहिए, मातृभाषा में होनी चाहिए। शिक्षा व्यवसाय-व्यापार न होकर सेवा का माध्यम होनी चाहिए। शिक्षा में पारिवारिक भाव का विकास एवं शैक्षिक परिवार की संकल्पना होनी चाहिए, साथ ही शिक्षा का टुकड़ों-टुकड़ों में विचार न करते हुए समग्रता व एकात्मता का दृष्टिकोण होना चाहिए। इस प्रकार की आधारभूत बातों के आधार पर शिक्षा की नीति व्यवस्था एवं पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम का निर्धारण होना चाहिए।
 
रचनात्मक अभिव्यक्तियों का उन्नयन-
 
हमें अगर नई पीढ़ी में रचनात्मक अभिव्यक्तियों का उन्नयन करना है तो शिक्षा की प्रक्रियाओं के नवीकरण के साधनों के रूप में सभी उच्च तकनीकी संस्थान शोध कार्य में पूरी तत्परता से जुटना होगा। इनका पहला मकसद होगा उच्च कोटि की जनशक्ति उपलब्ध कराना, जो शोध और विकास में उपयोगी साबित हो सके। विकास के लिए शोध कार्य, मौजूदा प्रौद्योगिकी में सुधार, नई देशज प्रौद्योगिकी की खोज तथा उत्पादन की जरूरतों को पूरा करने से संबंधित होगा। प्रौद्योगिकी में होने वाले परिवर्तनों पर नजर रखने और नए आविष्कारों का अनुमान लगाने के लिए भी उपयुक्त व्यवस्था करनी होगी। 
 
अध्यापन कोई स्थिर व्यवसाय नहीं है बल्कि प्रौद्योगिकी, सदैव बदलते ज्ञान, वैश्विक अर्थशास्त्र के दबावों और सामाजिक दबावों से प्रभावित होकर बदलता रहता है। इसका मतलब है कि इन परिवर्तनों को संबोधित करने के लिए अध्यापन के तरीकों और कौशलों का लगातार अद्यतन और विकास आवश्यक है।
 
हम बिना सोचे-समझे भिन्न-भिन्न रुचियों वाले बालकों को एक ही प्रकार के कार्यों में जुटा देते हैं। ऐसी शिक्षा उनकी विशेषताओं को नष्ट करके एक निर्जीव सामान्यता की छाप लगा देती है। अत: रूसो ने कृत्रिम समाज का खंडन करते हुए इस बात पर बल दिया कि बालक की संपूर्ण शिक्षा का प्रबंध प्रकृति के अनुसार होना चाहिए। उसने यह भी बताया कि बालक का प्राकृतिक विकास उसी समय हो सकता है, जब उसकी शिक्षा की पूर्ण व्यवस्था उसकी रुचियों, रुझानों तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर की जाएगी।
 
पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा करने की बहुत जरूरत है और यह जागरूकता बच्चों से लेकर समाज के सभी आयु वर्गों और क्षेत्रों में फैलनी चाहिए। पर्यावरण के प्रति जागरूकता विद्यालयों और कॉलेजों की शिक्षा का अंग होनी चाहिए। इसे शिक्षा की पूरी प्रक्रिया में समाहित किया जाएगा।
 
व्यक्तित्व के विकास से उसका तात्पर्य आत्माभिव्यक्ति न होकर आत्मबोध अथवा आत्मानुभूति है। आत्माभिव्यक्ति में आत्मप्रकाशन की भावना प्रधान होती है। इससे व्यक्ति अपनी मूल-प्रवृत्तियों के वशीभूत होकर बिना किसी रोक-टोक के स्वच्छंद रूप से कार्य करता है। वह यह नहीं देखता कि उसकी क्रियाओं में समाज का क्या तथा कितनी हानि हो सकती है? इसके विपरीत आत्मानुभूति में आत्म वह आदर्श आत्म है जिसकी हम कल्पना करते हैं तथा जिसकी अनुभूति केवल दूसरों की रुचियों को ध्यान में रखते हुए ही की जा
सकती है।
 
शिक्षकों की भूमिका-
 
शिक्षकों का बदलाव की क्षमता से युक्त होना अनिवार्य है। अध्यापन प्रमाण पर आधारित व्यवसाय होना चाहिए और कि इससे बच्चों के लिए बेहतर परिणाम प्राप्त होंगे। विशेष रूप से वे सुझाते हैं कि संस्कृति में परिवर्तन की जरूरत है, जहां शिक्षक और राजनीतिज्ञ स्वीकार करते हैं कि हमें आवश्यक रूप से ‘पता’ नहीं होता कि क्या सबसे अच्छी तरह से काम करता है।
 
अनुमान यह होता है कि प्रमाण पर आधारित विधि एक अच्छी चीज है और अनुशंसित परिवर्तन शिक्षकों द्वारा स्वयं अपने काम का अनुसंधान करके प्राप्त किए जा सकते हैं। वास्तव में जिन विद्यालयों में अनुसंधान की परिपाटियां स्थापित हैं, वहां यह मान्यता होती है कि यह बात विद्यालय के सुधार में योगदान कर सकती है। अपने स्वयं के काम की व्यवस्थित ढंग से जांच करते हैं ताकि उसमें सुधार कर सकें, कोई समस्या पहचानें जिसे आप अपनी कक्षा में हल करना चाहते हैं। यह कोई विशिष्ट बात हो सकती है, जैसे क्यों कोई छात्र प्रश्नों का उत्तर नहीं देते हैं या आपके विषय के किसी पहलू को कठिन या निरुत्साहित करने वाला पाते हैं या यह कोई अधिक साधारण बात हो सकती है, जैसे समूह कार्य को प्रभावी ढंग से कैसे आयोजित किया जाए।
 
प्रयोजन को परिभाषित करें और स्पष्ट करें कि हस्तक्षेप का क्या प्रारूप होगा : इसमें साहित्य का संदर्भ लेना और यह लगाना शामिल होगा कि इस समस्या के बारे में पहले से क्या पता है। समस्या से निपटने के लिए परिकल्पित किसी हस्तक्षेप की योजना बनाएं। अनुभवजन्य डेटा जमा करें और उसका विश्लेषण करें।
 
एक और हस्तक्षेप करने की योजना बनाएं : यह इस बात पर आधारित होगा कि आपको क्या पता चलता है और उसे आपके द्वारा पहचानी गई समस्या को आगे समझने के लिए परिकल्पित किया जाएगा।
 
अध्यापक एक ऐसा सामाजिक प्राणी है, जो बेड़ियों में जकड़ा है लेकिन उससे स्वतंत्र सोच वाले नागरिक बनाने की उम्मीद की जाती है। अध्यापक शैक्षिक प्रशासन के ‘भययुक्त वातावरण’ में जीता है और स्कूल में बच्चों के लिए ‘भयमुक्त माहौल’ बनाने का रचनात्मक काम करता है। बच्चों को सवाल पूछने और जवाब देने के लिए प्रेरित करता है। इससे अध्यापकों के सामने मौजूद विरोधाभास विचारों के टकराव को समझा जा सकता है। इसके कारण अध्यापकों को वैचारिक अंतरविरोध का सामना करना पड़ता है। 
 
शिक्षा का उपकरणीय दृष्टिकोण कक्षा में होने वाले निरर्थक अभ्यासों और गतिविधियों को अपनाकर, संवेदी क्षमताओं, जिज्ञासा को कुंद करके और प्रतिस्पर्धात्मक रवैये को बढ़ावा देकर अपनाया जाता है। हम इस पद्धति के उदाहरण विभिन्न विषयों (गणित, भाषाएं, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान) के विषयवस्तु और शिक्षण में, मूल्यांकन व्यवस्थाओं में, तथ्यों और आंकड़ों को रटकर ज्यों-का-त्यों उतार देने की अपेक्षा में मानव-मस्तिष्क की मौलिक संभावनाओं को क्षीण करते जाने में देख सकते हैं।
 
जमीनी अनुभवों ने दर्शाया है कि प्रसन्न और रोमांचित रहने वाले बच्चों को जैसे-जैसे मुख्य धारा में लाया जाता है, वे उत्तरोत्तर दब्बू होते जाते हैं। उनका लिखना स्वाभाविक भावों की अभिव्यक्ति की बजाए सिर्फ ‘स्वीकृत ज्ञान’ को लिख देने तक सीमित हो जाता है। स्कूल जाने वाले बच्चों से राष्ट्रीय ध्वज, नुकीले पर्वत या फूलदान में रखे कृत्रिम दिखने वाले फूलों के अलावा कोई और चित्र बनवाने के लिए ढेर सारे प्रोत्साहन और मदद की आवश्यकता होती है।
 
हमें शिक्षा के लक्ष्यों पर पुनर्विचार करना होगा। उसके जड़, शरीर और बुद्धि को नहीं अपितु आत्मा को शिक्षित करना चाहिए। इन तीनों (धर्म, अर्थ और काम) के बीच सुव्यवस्थित संतुलन रखकर ही दुनिया में पारिस्थितिकी संतुलन को कायम रखा जा सकता है।
 
बालक की शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिसे वह अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को विकसित करते हुए अपनी योग्यताओं तथा क्षमताओं के अनुसार स्वतंत्र नागरिक के रूप में राष्ट्र की सेवा कर सके। चूंकि भारतवर्ष अब एक जनतंत्रात्मक समाजवादी राष्ट्र है इसलिए अब हमारी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य सच्चे, ईमानदार तथा कर्मठ नागरिक उत्पन्न करना है। 
 
अब इस उद्देश्य के अनुसार हमारे स्कूलों ने अब स्वयं एक आदर्श समाज का रूप धारण कर लेना चाहिए। उनमें प्रेम तथा आत्मत्याग की भावना का सुन्दर एवं उत्तम वातावरण दिखाई देना चाहिए। पाठ्यक्रम का अर्थ अब संकुचित न होकर व्यापक होना चाहिए। उन्हें उनके अधिकारों तथा राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों से भी अवगत कराया जाना चाहिए जिससे उनमें प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रसेवा की भावना जागृत हो।
 
संदर्भ ग्रंथ
 
1. आधुनिक भारतीय शिक्षा- समस्याएं और समाधान- रवीन्द्र अग्निहोत्री।
2. शिक्षा के दार्शनिक और सामाजिक सिद्धांत- एसके अग्रवाल।
3. आधुनिक भारतीय शिक्षा और उसकी समस्याएं- सुरेश भटनागर।
4. शैक्षिक अनुसंधान की कार्यप्रणाली- लोकेश कौल।
5. शिक्षा में संपूर्ण गुणवत्ता प्रबंधन- मर्मर मुखोपाध्याय
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