यूरोप को नहीं भायी भारतीय फॉर्मूला 1 की सफलता
'उदयीमान भारत की फॉर्मूला 1 साहसिकता'
फॉर्मूला 1 संसार की सबसे तेज़ रेसिंग कारों की दौड़ है और जर्मनी इस में सबसे अग्रणी है। शायद इसी कारण भारत में पहली बार इस कार-दौड़ पर जर्मन समाचार माध्यमों के शीर्षक इतने हिकारत भरे थे कि साप्ताहिक पत्रिका ''फ़ोकस'' के इंटरनेट संस्करण की रिपोर्ट का यह शीर्षक, 'उदयीमान भारत की फॉर्मूला 1 साहसिकता' फिर भी, सभ्य और संतुलित ही कहलाएगा। जर्मनी ही नहीं, यूरोप के अन्य देशों के मीडिया को भी इस दौड़ से भारत पर जमकर छींटाक़शी करने का मानो मुँह-माँगा निमंत्रण मिल गया था।नोइडा में हुई इस दौड़ की सुचारुता और सफलता पर भारतीय मीडिया चाहे जितना मुग्ध हो, प्रिंट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया तक पश्चिम यूरोप का शायद ही कोई जनमाध्यम ऐसा रहा, जिसने इस विषय को यदि छुआ, तो भारत की खिल्ली नहीं उड़ाई या उसकी ग़रीबी का रोना नहीं रोया। शायद ही किसी ने पहली प्रेस कांफ्रेंस के समय बिजली गुल हो जाने का उल्लेख न किया हो या पहले दिन की अभ्यास दौड़ के समय रेस ट्रैक पर कुत्ता दौड़ने की तस्वीर न प्रकाशित की हो। अंतिम दिन बीतने तक टीका-टिप्पणियों का स्वर ऐसा ही था, मानो कहा जा रहा हो, ' ज़रा देखो तो सही, गंगू तेली भी अब चला है राजा भोज बनने!'पहली बार भारत- भूमि परः फॉर्मूला 1 रेसें कवर करने वाले लगभग सभी यूरोपीय पत्रकारों और खेल-समीक्षकों ने पहली बार भारत-भूमि पर पैर रखे थे। भारत के बारे में उनका अधिकांश ज्ञान दूसरों से सुनी-सुनाई बातों और सदियों से पिष्ट-पेषित दुराग्रहों पर आधारित था। उनकी आँखे हर जगह सड़कों पर घूमने वाली गायें, मैले-कुचैले भिखारी और आवारा कुत्ते खोज रही थीं। जब भी ऐसा कुछ दिखा, उनकी बँछें खिल गयीं, उनके भारत-ज्ञान की पुष्टि हो गयी। इस पुष्टि को अपने पाठकों, दर्शकों या श्रोताओं तक पहुँचाने में उन्होंने आव देखा न ताव। टिकट इतने मंहगे हैं कि अधिकांश भारतीय पूरी ज़िंदगी भर उतना कमा नहीं पायेंगे। दूसरी ओर, इस नये रेस सर्किट के कुछ ही मीटर पीछे... मध्ययुग-जैसा अंधेरा भारत शुरू हो जाता है। यहाँ वे गाँववाले रहते हैं, जिनके खेतों पर यह दौड़पथ बना हुआ है।
जर्मनी की सबसे बड़ी निजी टेलीविज़न संस्था RTL ने अपने पत्रकारों और तकनीशियनों की एक पूरी टीम भेजी थी। RTL ने प्राथमिक दौड़ों और अंतिम रेस का जर्मन भाषा में सीधा सजीव प्रसारण किया। उसके प्रसारण जर्मनभाषी पड़ोसी देशों ऑस्ट्रिया और स्विट्ज़रलैंड सहित पूरे यूरोप में देखे जाते हैं। कुछ ब्रिटिश चैनलों ने भी सीधा प्रसारण किया। लेकिन, यूरोप के अधिकांश टेलीविज़न चैनलों ने अपले खेल कार्यक्रमों या समाचारों में दौड़ के चुने हुए संपादित हिस्से ही प्रसारित किये।भारत के विख्यात नाम यूरोप में अज्ञातः RTL के पत्रकारों ने रविवार के सजीव प्रसारण में स्वयं ही स्वीकार भी किया कि इस अंतिम दौड़ के समय भारतीय फिल्म, खेल और उद्योग जगत के बहुत ही जाने-माने लोग उनके आस-पास जमा थे, लेकिन जर्मनी में क्योंकि उनके नाम सर्वथा अपरिचित हैं, इसलिए केवल एक अपवाद को छोड़ कर वे किसी से बात नहीं कर सके। यह अपवाद थे शाहरुख ख़ान। शाहरुख ने RTL के दर्शकों से अंग्रेज़ी में कहा, ''हम भारत में शोर-शराबे के आदी हैं। खुद ही बहुत शोर करते हैं। आज हमें मज़ा लेगें इन कारों के शोर का।'' RTL के इन पत्रकारों ने कई बार सचिन तेंडुलकर का भी नाम लिया और कहा कि वे उन्हें भी कैमरे के सामने लाना चाहते हैं, पर वहाँ उपस्थित लोगों के बीच उन्हें पहचान नहीं पा रहे हैं। वे यह भी नहीं जानते कि क्रिकेट कैसा खेल है और भारत में उसके लिए इतना असीम पागलपन क्यों है।अमीरों की मौज़-मस्ती : भारतीय दूरदर्शन की तरह के जर्मनी के सबसे बड़े सार्वजनिक प्रसारण नेटवर्क ARD के नई दिल्ली संवाददाता की 29 अक्टूबर की रिपोर्ट का शीर्षक था, '' केवल अमीरों का शगल या विलक्षण विज्ञापन।'' संवाददाता का कहना था, ''टिकट इतने मँहगे हैं कि अधिकांश भारतीय पूरी ज़िंदगी भर उतना कमा नहीं पायेंगे। दूसरी ओर, इस नये रेस सर्किट के कुछ ही मीटर पीछे... मध्ययुग-जैसा अंधेरा भारत शुरू हो जाता है। यहाँ वे गाँववाले रहते हैं, जिनके खेतों पर यह दौड़पथ बना हुआ है। उन्हें कुछ मुआवज़ा मिला तो है, लेकिन पर्याप्त नहीं। ... उनसे कहा गया था कि यहाँ कल-कारख़ाने लगेंगे, नौकरियाँ मिलेंगी। लेकिन, बना है अमीरों की मौज़-मस्ती का एक पार्क। यहाँ भेंट होती है पुराने, अवसरहीन भारत की अपने ही महाधनी नये भारत से। नये भारत को भूख है दिखावटी प्रतीकों की। फॉर्मूला 1 ऐसा ही एक प्रतीक है।''फॉर्मूला 1 की पहली भारतीय ग्रां प्री के विजेता जर्मनी के सेबास्टियान फ़ेटल (वेटल नहीं, फ़ेटल है सही उच्चारण) ने भी ARD के एक दूसरे संवाददाता के साथ बातचीत में माना कि उन्हें भारत के बारे में कुछ पता नहीं थाः ''मैं केवल तस्वीरों से इस देश को जानता था, ठसाठस भरी ट्रेनों की तस्वीरों इत्यादि से।'' संवाददाता ने इस में अपनी तरफ़ से जोड़ते हुए कहा, अब आप इसे ''करी (गरम मसाले) वाले तीखे खाने और सड़कों पर घूमती पवित्र गायों वाले देश के रूप में भी जान गये होंगे।''स्वप्निल सर्कस है फॉर्मूला 1 : म्यूनिक से प्रकाशित होने वाले दैनिक ''ज्युइडडोएचे त्साइटुँग'' ने 26 अक्टूबर को ''अब भारत में भी फॉर्मूला 1, बॉलीवुड के लिए लॉगइन'' शीर्षक तले लिखा, '' फॉर्मूला 1 सर्कस अब पहली बार भारत में भी हो रहा है। यह तमाशा इस देश को प्रतिष्ठाभरी चमक दिलाने के काम आयेगा। मोटर स्पोर्ट के शौकीनों और वीआईपी लोगों के लिए तो वह एक चिरप्रतीक्षित सपना साकार होने के समान है, लेकिन उसे देख सकना इस उदयीमान देश के अधिकांश निवासियों की पहुँच से बाहर ही रहेगा। एक कलंक भी मिटाना है। दुनिया की नज़रों में एक उभरती हुई विश्वशक्ति बनने के लिए लालायित इस गर्वीले देश को पिछले साल राष्ट्रमंडल खेलों के कारण काफ़ी नीचा देखना पड़ गया था। तब भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद शर्मनाक पराकाष्ठा पर पहुँच गया था...।'' यह जर्मन पत्र अपने पाठकों यह बताना भी नहीं भूला कि विकास के प्रभावशाली आँकड़ों की आड़ में एक अरब 20 करोड़ भारतीयों का 40 प्रतिशत हिस्सा आज भी ग़रीबी-रेखा के नीचे जीवन बसर कर रहा है। उसे एक डॉलर से भी कम की दैनिक आय पर जीना पड़ता है, जबकि फॉर्मूला 1 कार दौड़ का सबसे सस्ता टिकट भी 60 डॉलर से कम का नहीं होगा।
ग्लैमर और गटर के बीच भारतीय प्रीमियर : इस दौड़ के बहाने से जर्मन अहंकार और जर्मनी में भारत की मीडिया-छवि का संभवतः सबसे वीभत्स परिचय दिया 29 अक्टूबर को बर्लिन के ''दी वेल्ट'' ने। उसके रिपोर्ताज का शीर्षक ही सब कुछ कह देता हैः ''ग्लैमर और गटर के बीच फॉर्मूला 1 का भारत में प्रीमियर।'' पत्र ने लिखा, '' यह हॉर्सपावर (एचपी) सर्कस जबकि भारत में अपने पहुँचने का जश्न मना रहा है, उसके दौड़ सर्किट के चारों तरफ ग़रीबी, ज़मीन की ज़बरन बेदखली और निर्माणकार्यों में ख़ामियों का बोलबाला है। …. एचपी के घुमंतू सर्कस वाले नक्शे पर दुनिया के इस दूसरे सबसे जनसंख्याबहुल देश का 6 दशकों तक कहीं नामोनिशान भी नहीं नहीं था। ….यहाँ के ग्लैमर और गटर, अमीरी और ग़रीबी के बीच दमघुटता-सा लगता है। जिस किसी को राजधानी दिल्ली के होटलों और उससे 50 किलोमीटर दूर ग्रेटर नोइडा के रेस सर्किट के बीच फेरे लगाने पड़ते हैं, वह अनदेखी नहीं कर सकता कि रेसिंग कारों के शोर के पार क्या हो रहा है। मिशाएल शूमाख़र (सही उच्चारण यही है, न कि माइकल शूमाकर) और उनके साथी सड़क पर भीख माँगते बच्चों, प्लास्टिक के अंतहीन कचरे के ढेरों और मरे हुए जानवरों के बीच से उन सड़कों पर से गुज़रते हैं, जिन पर खिंचे टेलीफ़ोन के तार नीचे तक लटक रहे हैं और जिनके टूटे-फूटे सीमेंट-कंक्रीट पर मुर्गे-मुर्गियाँ पंख फडफड़ा रहे होते हैं। विश्वचैंपियन फ़ेटल उन गिने-चुने लोगों में से एक हैं, जिन्होंने देश के भीतरी भागों में जाने की हिम्मत जुटाई। तीन घंटे दूर आगरा में ताज महल की यात्रा के बाद विचारों में डूबते हुए उन्होंने कहा, ' वहाँ जो देखने में आया, वह काफ़ी विचलित करने वाला है। वह हमें ज़मीन पर उतार देता है और उन चिंताओं को हल्का कर देता है, जो अन्यथा हम यूरोप-वासियों को सताती हैं।''पेट ख़राब होने का डरः ''दी वेल्ट'' के संवाददाता ने भारत देश के कलंकों को गिनाने के बाद उन कमियों को भी गिनाया, जो रेस के प्रतिभागियों ने महसूस कीं। इस पत्र के अनुसार, पहली बार फॉर्मूला 1 टीमें किसी ग्रां प्री के लिए नियमित कार-चालकों के अलावा अतिरिक्त कार चालकों के साथ दिल्ली पहुँचीं, क्योंकि उन्हें डर था कि नियमित चालकों का पेट भारत के अशुद्ध खाने-पानी से ख़राब हो सकता है। सेबास्टियन फ़ेटल ने उसे बताया कि पेट ख़राब होने या किसी संक्रमण से बचने के लिए वह होटल के अपने कमरे में जा कर व्हीस्की से गर्गल किया करते हैं।सुरक्षा का भय : टेलीविज़न पर आँखों देखा हाल बताने वाले पत्रकारों ने शिकायत की कि उन्हें ऐसे केबिनों में बैठना पड़ा, जहाँ कोई खिड़की न होने से वे बाहर नहीं देख सकते थे। अमेरिकी रॉक ग्रुप मेटैलिका ने भारत में अपने पहले कंसर्ट को इसलिए रद्द कर दिया कि उसे अपनी सुरक्षा का डर था, भले ही उसने इसके लिए ''तकनीकी कारणों'' का बहाना बनाया। अब तक लगभग 100 ग्रां प्री कार दौड़ों में भाग ले चुके फिनलैंड के हेइक्की कोवालाइनेन की समझ में नहीं आया कि भारत का वीसा पाने के लिए उन्हें 70 पृष्ठों के दस्तावेज़ों और आवेदनपत्रों पर हस्ताक्षर क्यों करने पड़े और मेर्सेडेस के चालक नीको रोसबेर्ग को तो शुरू में भारत का वीसा देने से मना ही कर दिया गया। ऑस्ट्रिया का अलग दृष्टिकोणः जर्मनी के जर्मनभाषी पड़ोसी ऑस्ट्रिया के आर्थिक पत्र ''विर्टशाफ्ट्सब्लाट'' ने ''फॉर्मूला 1 भारत की छवि को सुधारेगा'' शीर्षक से पिछले वर्ष के राष्ट्रमंडल खेलों को लेकर भारत की हुई छीछालेदर को ''राष्ट्रीय आघात'' बताते हुए स्पष्ट किया कि इस बार सरकार आयोजक नहीं है, बल्कि एक निजी कंपनी जैयपी स्पोर्ट्स इंटरनैशनल ने उस के आयोजन में 40 करोड़ डॉलर दाँव पर लगाए हैं। टिकटों की बिक्री से उसे केवल एक करोड़ 60 लाख डॉलर मिलने की ही संभावा है। बाक़ी पैसा उसे लंबे समय में कमाना होगा। पत्र का कहना था, ''वैसे तो देश का नया धनीमानी विशिष्ट वर्ग इन तेज़गति कारों के लिए पैसा दे रहा है, लेकिन राष्ट्रीय खेल क्रिकेट की बराबरी फ़ा्रमूला 1 फिरभी कभी नहीं कर पायेगा।... अंग्रेज़ों के उपनिवेशकाल को याद करें, तो कह सकते हैं कि कारों की दौड़ एक नये प्रकार का पोलो है।''
वस्तुपरक स्विस दैनिकः जर्मनी के दूसरे जर्मनभाषी पड़ोसी स्विट्ज़रलैंड में ज्यूरिच के सबसे प्रतिष्ठित पत्र ''नोए त्स्युइरिशर त्साइटुँग'' ने भी एक वस्तुपरक दृष्टि अपनाते हुए अपने आकलन को शीर्षक दिया, ''वित्तीय हितों ने दिया भारत को पहला ग्रां प्री उपहार।'' इस पत्र का कहना था कि ''आज भारत, कल अमेरिका परसों हो सकता है रूस की बारी आये। फॉर्मूला 1 एक सच्ची विश्वचैंपियनशिप कहलाने के जितना निकट आज है, उतना पहले कभी नहीं था। पहले मुख्यतः यूरोप-केंद्रित रहा यह राजसी मोटर स्पोर्ट नयी सदी में अपने भौगोलिक उद्गम से लगातार दूर हटता जा रहा है। ऐसा भी नहीं है कि उसके मार्केटिंग प्रमुख बर्नी एसलेस्टन सैर-सपाटे के इरादे से दूसरे बाज़ारों में घूम रहे हैं। ऐसा शायद ही दूसरा कोई खोल है, जो पैसे का ही खेल है और जो वित्त की महत्ता को एक सत्ता की तरह स्वीकार करता है।'' इस स्विस पत्र का कहना है कि कारों से अटे पड़े न्यू यॉर्क जैसे ऐसे बहुतेरे अभिलाषी हैं, जो अपने यहाँ फॉर्मूला 1 की कारें दौड़ते देखना चाहते हैं। एसलेस्टन को उनकी अभिलाषा से नहीं, पैसे से मतलब है। वे अधिकतम लाभ देखना चाहते हैं। पत्र के अनुसार, नये देश यूरोपीय देशों की अपेक्षा दुगुने से भी अधिक पैसा देने को तैयार हैं। दौड़ का लाइसेंस पाने के लिए 4 करोड़ डॉलर वार्षिक की गारंटी दे रहे हैं। इस पैसे का 60 प्रतिशत दौड़ की प्रतिभागी टीमों की मालिक कंपनियों को मिलता है और उनके प्रायोजक (स्पॉन्सर) उनके बहाने दुनिया भर में अपनी कारों या वस्तुओं का प्रचार पाते हैं। भारत में ग्रां प्री महत्वपूर्ण कदमः ''भारत को पहली बार ग्रां प्री का अधिकार मिलना, '' पत्र के अनुसार, ''इसीलिए एक विशिष्ट महत्वपूर्ण क़दम है। इससे उन कार-निर्माताओं के लिए भारतीय उपमहाद्वीप पर ऐसे नये आर्थिक अवसर खुलते हैं, जो एक विशाल बिक्री बाज़ार हथियाने की होड़ में लगे हैं। भारत के एक अरब 20 करोड़ लोगों में से जिन अधिकांश लोगों के पास आज कोई कार नहीं है, वे कल के ग्राहक बन सकते हैं। दूसरी ओर, भारत की कंपनियाँ भी फॉर्मूला 1 की हाईटेक छवि के माध्यम से और अधिक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर सकती हैं।'' ब्रिटिश मीडिया की टिप्पणियाँ : भारत की पहली फॉर्मूला 1 कार दौड़ पर ब्रिटिश मीडिया की टिप्पणियाँ उतनी अहंकारी नहीं रहीं, जितनी जर्मन मीडिया की थीं, लेकिन ग़रीबी, लापरवाही और अव्यवस्था से मुँह मोड़ कर अपनी बढ़ती हुई आर्थिक शक्ति का सिक्का जमाने की उसकी ललक पर चोट करने से ब्रिटिश मीडिया भी चूके नहीं। ''
द गार्डियन'' ने 28 अक्टूबर को लिखाः ''एफ 1 सर्किट के मज़दूर निराश्रय जीवन बिता रहे हैं। उत्तर प्रदेश के क़रीब 50 मज़दूरों का कहना है कि जीने के लिए बुनियादी ज़रूरतों के अलावा उन्हें महीनों से कोई पैसा नहीं मिला है।.... गार्डियन ने शुक्रवार को पाया कि पाया कि क़रीब 50 मज़दूर और उनके बच्चे अब भी उसी कामचलाऊ शिविर में रह रहे हैं, जहाँ वे दो महीनों से पड़े हुए हैं। उनके कोई दर्जन भर तंबू मुख्य गेट से कुछ ही सौ मीटर दूर हैं। वे लगभग सब के सब मध्य प्रदेश के गाँवों से आये अनपढ़ प्रवासी मज़दूर हैं।'' हर चीज़ और उसका उलटा भी भारत में संभव है, राष्ट्रमंडल खेलों के लिए भारत सरकार की भयंकर व अपमानजनक तैयारी तथा प्रबंधन के एक ही साल बाद वहाँ के निजी क्षेत्र ने एक ऐसी शानदार फार्मूला 1 ग्रां प्री रेस पेश की है, जिसमें कोई दुर्घटना नहीं हुई
वादा किया, पैसा नहीं दियाः गार्डियन के अनुसार, उन्हें 120 रूपये दैनिक मज़दूरी देने का वादा किया गया था, पर दिया गया केवल 6 महीनों तक जीने-रहने का न्यूनतम ख़र्चा। सर्किट के निर्माण के कारण ''सैकड़ों बच्चों ने स्कूल जाना छोड़ दिया। गाँव वाले कहते हैं कि हमें जिन नौकरियों का वादा दिया गया था, वे अभी तक नदारद हैं। दूसरे कहते हैं, उपनिवेशकाल के एक क़ानून का फ़ायदा उठा कर उन्हें जनहित में अपने खेत बेचने के लिए विवश किया गया।'' यही शिकायत उठाते हुए ''टेलीग्राफ'' ने लिखा, ''दिल्ली के पास फॉर्मूला 1 का ग्रा प्री आयोजित करने की योजनाओं ने अपनी ज़मीन बेचने वालों को लखपती-करोड़पती किसानों और ऐसे ग़रीब मज़दूरों में बाँट दिया है, जिन्हें भय है कि रेस के बाद वे बेरोज़गार हो जायेंगे। इस आयोजन को भारत के आर्थिक उत्थान के एक और प्रतीक के तौर पर देखा जा रहा है, लेकिन हो सकता है कि उस पर ऐसे किसानों के विरोधप्रदर्शनों की परछाईं पड़ने लगे, जो कहते हैं कि उन्हें अपनी ज़मीन बेचने के लिए बाध्य किया गया और उनको मिलने वाले पैसे के साथ भी धोखा किया गया।''फॉर्मूला 1 की तैयारियों के बारे में ''दि इंडिपेन्डेन्ट'' का मानना था कि कमियाँ तो बहुत-सी हैं, पर निर्माणकार्यों की सुन्दरता उन्हें बड़ी शालीनता के साथ ढक देती है। स्थानीय लोग और होटल कर्मचारी अतिथियों का स्वागत करने के लिए आतुर हैं। अब तो बस फ़ेटल का ही गुणगान हैः ये सारी बातें रविवार 30 अक्टूबर की मुख्य दौड़ से पहले लिखी-पढ़ी या कही-सुनी गयीं। रविवार की दौड़ के बाद हर देश का हर जनमाध्यम इन सारी बातों को भुला कर भारत की पहली ग्रां प्री के प्रथम विजेता-- और पहले से ही तयशुदा विश्वविजेता-- जर्मनी के सेबास्टियन फ़ेटल के गुणगान में व्यस्त हो गया। भारत की कथित महत्वाकाक्षाओं, अमीरी-ग़रीबी की खाई और ऐसी दौड़ पहली बार आयोजित करने की उसकी क्षमताओं से जुड़ी चिंताओं को इस तरह दरकिनार कर दिया गाया, मानों वे कभी कही-सुनी या लिखी ही नहीं गयी थीं। पूर्वाग्रह सही नहीं निकलेः जर्मनी के केवल इक्के-दुक्के पत्रों ने फेटल का यशगान दूसरों पर छोड़ कर मेज़बान देश के बारे में भी कुछ कहना उचित समझा। अपेक्षाकृत छोटे आँचलिक पत्र ''ओसनाब्रुइकर त्साइटुँग'' ने लिखा-- ''लग तो यही रहा था कि सारे घिसे-पिटे पूर्वाग्रह सही साबित होंगेः टिकट घर के सामने गायों का जमावड़ा होगा। आवारा कुत्ते दौड़पथ पर दौड़ रहे होंगे। शुरू के दिनों में बार-बार बिजली गुल होगी। लेकिन, भारत के महानगर दिल्ली के द्वार पर ग्रेटर नोइडा में बना नया रेस सर्किट अपनी अग्निपरीक्षा में खरा उतरा। दर्शक सीटें भरी हुई थीं। कृतज्ञताभावी जनता उत्साह से परिपूर्ण थी। फॉर्मूला 1 का जश्न काफ़ी जोशीला रहा।'' म्यूनिक के ''ज़्युइडडोएचे त्साइटुंग'' को भी कहना पड़ा, ''प्रीमियर सफल रहा। एक अरब 20 करोड़ भारतीयों में से एक लाख 20 हज़ार देखने आये। 30 डिग्री गर्मी और धुँध के बावजूद सभी संतुष्ट थे।''हैम्बर्ग के ''दी त्साइट'' ने लिखा-- ''सारी शंकाओं-आशंकाओं के बावजूद भरे हुए स्टेडियम के सामने भारत में फॉर्मूला 1 का प्रीमियर ज़ोरदार रहा।''भारत क्या नहीं कर सकताः ब्रिटेन के ''दि इंडिपेन्डेन्ट'' को भी भारत का लोहा मानना पड़ा-- ''अक्सर कहा जाता है कि हर चीज़ और उसका उलटा भी भारत में संभव है, यही आज (30 अक्टूबर को) देखने में आया। राष्ट्रमंडल खेलों के लिए भारत सरकार की भयंकर व अपमानजनक तैयारी तथा प्रबंधन के एक ही साल बाद वहाँ के निजी क्षेत्र ने बिल्कुल समय पर और कुशलता के साथ एक ऐसी शानदार फार्मूला 1 ग्रां प्री रेस पेश की है, जिसमें कोई दुर्घटना नहीं हुई।... इससे पता चलता है कि भारत के राजनेता यदि देश के दफ्तरशाहों को तस्वीर से बाहर रखें और निजी क्षेत्र को काम करने का मौका दें, तो भारत क्या नहीं कर सकता।''