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Written By WD

जयति जय उज्जयिनी : वैभवशालिनी नगरी उज्जैन

जयति जय उज्जयिनी : वैभवशालिनी नगरी उज्जैन - Importance Of Ujjain
-राजशेखर व्यास  
 
उत्कर्ष के साथ जय करने वाली नगरी- उज्जयिनी, भारत की प्राचीनतम महान नगरियों में एक महाकालेश्वर की उज्जयिनी। इतिहास, धर्म, दर्शन, कला, साहित्य, योग-वेदांत, आयुर्वेद-ज्योतिष, साधु-संत, पर्व, मंदिर और मस्जि‍द, चमत्कार, साप्रदायिक सद्भभाव की विलक्षण नगरी! 
 
भारत के हृदय में स्थित है 'मालवा', मालव प्रदेश!
 
इसी मालवा की गौरवशाली राजधानी है, उज्जयिनी। दुनिया के किसी भी नगर में एकसाथ इतनी महानता और महत्व नहीं मिलेंगे जितने इस नगरी में, एक तरफ काल-गणना का केंद्र ज्योतिष की जन्मभूमि, और स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भूतभावन भगवान महाकाल की नगरी है, तो दूसरी ओर जगदगुरु कृष्ण भी जिस नगरी में विद्याध्ययन करने आए, उन्हीं महर्षि सांदीपनी की नगरी है।


यहां पर संवत प्रवर्तक 'सम्राट विक्रम' ने अपना शासन चलाया। शकों और हूणों को परास्त कर पराक्रम की पताका फहराई तो यहीं पर महाकवि भास, कालिदास, भवभूति और भर्तृहर‍ि ने कला-साहित्य के अमर ग्रंथों का प्रणयन भी किया और वैराग्य की धूनि भी रमाईं, श्रृंगार-नीति और वैराग्य की अलख जगाने वाले तपस्वी, 'जदरूप' और योगी पीर मत्स्येन्द्रनाथ की साधना-स्थली भी यही नगरी है। चण्डप्रद्योत, उदयन-वासवदत्ता, चण्डाशोक के न्याय और शासन की केंद्र धुरी रही है उज्जयिनी, नवरत्नों से सजी-धजी कैसी होगी ये उज्जयिनी; जब ज्योतिष जगत के सूर्य वराहमिहिर, चिकित्सा के चरक, धन्वंतरि और शंकु-घटखर्पर-वररुचि जैसे महारथियों से अलंकृत रहती होगी?
 
यूं तो वेद, पुराण, उपनिषद, कथा-सरित्सागर, बाणभट्ट की कादम्बरी, शूद्रक के मृच्छकटिकम और आयुर्वेद, योग, वैदिक-वांगमय, योग-वेदांत, काव्य, नाटक से लेकर कालिदास के मेघदूत तक इस नगरी के गौरवगान से भरे पड़े हैं। पाली, प्राकृत-जैन, बौद्ध और संस्कृत-साहित्य के असंख्य ग्रंथों में इस नगरी के वैभव का विस्तार से वर्णन हुआ है। परिमल कवि ने इसे स्वर्ग का टुकड़ा कहा है तो सट्टक कर्पूर मंजरी एवं काव्य मीमांसा के कवि राजशेखर ने इसे स्वर्ग से ही सुंदर नगरी निरूपित किया है। उज्जयिनी का सर्वाधिक विषद् विवरण ब्रह्मपुराण, स्कंदपुराण के अवंत‍ि खंड में हुआ है। कनकश्रृंगा, कुशस्थली, अवंतिका, उज्जयिनी, पद्मावती, कुमुदवती, अमरावती, विशाली, प्रतिकल्पा, भोगवती, हिरण्यवती अनेक नामों से इस नगरी को सुशोभित किया गया है। 


इस नगरी में प्रवेश के लिए प्राचीन काल में चौबीस खंभा मुख्य द्वार था। कहते हैं कि महाकाल वन का यही परकोटा था। राजशेखर ने लिखा है- 'श्रुयते ही उज्ज्यन्यां काव्यकारणं परीक्षणं'। सुनते हैं कि प्राचीनकाल में उज्जयिनी में प्रवेश से पूर्व विद्वानों की भी परीक्षा ली जाती थी। सावधान यह विद्वानों की नगरी है। 

महाकालेश्वर की यह नगरी सुरम्य शिप्रा तट पर बसी है। सघन वन, मंदिर-मस्जिद और मठों से लगी सुदीर्घ घाटों से सुसज्जित पुण्य सलिला शिप्रा उत्तर की ओर बहती नदी है। शिप्रा का उद्गम 'महू' (इंदौर) से दूर एक पहाड़ी से हुआ है। क्षिप्र गति से बहने के कारण ही संभवत: शिप्रा मालवा के विभिन्न हिस्सों में हंसती-खेलती अठखेलियां लेती चम्बल में विसर्जित हो मिल जाती है। स्कंद पुराण में लिखा है- पृथ्वी पर शिप्रा के समान कोई नदी नहीं है। इसके तट पर क्षणमात्र खड़े होने से ही मुक्ति मिल जाती है। शिप्रा-महात्म्य में लिखा है- शिप्रा का स्मरण मात्र ही पाप मुक्त करता है।

 
 
भारत की यह 'प्राचीन ग्रीनविच' उज्जैन नगरी लगभग 8.75 लाख आबादी के रूप में बसी है। भारत के मा‍नचित्र में 23.9 अंश उत्तर अक्षांश एवं 74.75 अंश पूर्व रेखांश पर समुद्र सतह से लगभग 1658 फीट ऊंचाई पर बसा यह नगर अनेक रूप में अदभुत है। यहां कहते हैं कि कण-कण में रचे-बसे इतने शिवलिंग हैं कि आज एक बोरी भरकर चावल लेकर आप निकलें और हर जगह 4-4 अक्षत भी छिटकें तो चावल कम पड़ सकते हैं। शिवलिंग नहीं, फिर भी 84 महादेव प्रसिद्ध हैं। 64 योगिनी और अनेक देवियां। प्राचीन मान्यता तो यह है कि उज्जैन एक सिद्धपीठ है। इसे चारों तरफ से देवियों की सुरक्षा का कवच पहनाया गया है। नगर की सुरक्षा के लिए प्राचीन परकोटे पर स्थित नगरकोट की महारानी, गढ़ पर स्थिति गढ़कालिका एवं शक्ति की आराधना का स्थल, विक्रम एवं का‍‍लिदास की आराध्या हरसिद्धि देवी।
 
तंत्र साधना में भैरव का विशेष महत्व है। यहां अष्टभैरव और 36 सौ भेरू मंदिर हैं। कालभैरव, जो मद्यपान करते हैं, तांत्रिकों के सर्वाधिक प्रिय और प्रसिद्ध हैं। इसके अलावा छोटे भेरू, बड़े भेरू, काल भेरू, अताल-पताल भेरू और भेरू ही भेरू। चमत्कृत कर देने वाली भर्तृहरि की गुफा भी हैं, तो 6 प्रख्यात विनायक हैं। चिंतामन गणेश, बड़े गणेश, स्थलमन गणेश जिनमें प्रमुख हैं। हनुमान का तो मानो इस नगर पर विशेष प्रेम है- छोटे हनुमान, बड़े हनुमान, खड़े हनुमान से लेकर लेटे हनुमान और बाल हनुमान भी आपको इसी नगरी में मिलेंगे। विश्वविख्‍यात महाकाल मंदिर भी दो हैं- एक वृद्ध महाकालेश्वर और एक युवा महाकालेश्वर।

कुछ लोगों का मानना है कि वृद्ध महाकालेश्वर ही मूल और प्राचीन है। प्राय: 18 पुराणों में महाकालेश्वर का भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्णन मिलता है। महाभारत (वनपर्व अ. 12 श्लोक) या स्कंद पुराण, मत्स्य पुराण, शिवपुराण, भागवत, शिव लीलामृत आदि ग्रंथों में तथा कथा सरित्सागर, राजतरंगिणी, कादम्बरी, मेघदूत में बड़े ही रोचक वर्णन हैं। अपने मेघदूत के यक्ष को महाकाल मंदिर पर सायंकालीन शोभा से नयनसुख लेने, घर गर्जन द्वारा नक्कारों का अनुकरण करने का भी आग्रह किया गया है। 

गुलामवंशीय अल्तमश ने ई.सं. 1235 में इस नगरी को लूटा था, तब उसने अपने इस आक्रमण में इस मंदिर को भी नहीं बख्शा। सम्राट विक्रम की स्वर्ण प्रतिमा उसने यहां से लूटी। ई. सन् 1734 में राणोजी शिंदे के दीवान रामचन्द्र ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया, तब से यहां पूजन-अर्चन पुन: प्रारंभ हुआ। सिंधिया-होलकर-पंवार तीनों राज्यों से मंदिर की साज-सज्जा हुई, तब तक चिंता भस्म से यहां भस्म आरती भी होती थी, भस्म आरती तो अब भी होती है, मगर गांधीजी के आह्वान पर चिता भस्म से अब नहीं होती है।

चांदी की कलापूर्ण रजत जलाधारी से सर्पाकार वेष्टित भगवान महाकाल की विशाल स्वयंभू प्रतिमा दक्षिणमुखी है। तांत्रिक परंपरा में दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग और पूजा का महत्व 12 ज्योतिर्लिंगों में केवल महाकाल को ही प्राप्त है। खगोल एवं भौगोलिक गणनानुसार लंका से सुमेरू पर्वत तक जो देशांतर रेखा गई है, वह महाकाल के ऊपर से जाती है। वराहमिहिराचार्य के अनुसार 21 मार्च के दिन वर्ष में एक बार सूर्य भी महाकाल शिखर के ठीक मस्तक पर आ जाता है। उज्जयिनी के अक्षांश और सूर्य की परम क्रांति दोनों 24.0 मानी जाती है। सूर्य की यह स्थिति उज्जयिनी के अलावा दुनिया के किसी भी अक्षांश पर नहीं होती, अत: यही एक ऐसा स्थान है जिससे काल और समय का निर्धारण सरलता से होता है। दुनिया में शिव के असंख्य मंदिर हैं किंतु एकमात्र उज्जयिनी का शिव मंदिर ही 'महाकाल' क्यों कहलाता है? इससे स्पष्ट है कि महाकाल सिर्फ देवता ही नहीं, वैज्ञानिक तथ्य भी हैं।
 
फिर समय-समय पर होने वाले अनेक पर्व एवं त्योहार, मेले-ठेले भी इस नगर को जीवंत और जागृत बनाए रखते हैं। कार्तिक मेला, शनिश्चरी अमावस्या-सोमवती अमावस्या तो त्रिवेणी के मेले, कभी श्रावण की सवारी तो कभी चिंतामन की यात्रा, पंचक्रोषी यात्रा और इन सबसे बढ़कर सिंहस्थ पर्व।

'सिंहस्थ पर्व' का उज्जयिनी से घनिष्ठ संबंध है। भारत की प्राचीन महानगरियों में उज्जयिनी को अत्यंत पवित्र नगरी माना गया है- प्रयास, नासिक-हरिद्वार, उज्जयिनी इन स्थानों की पवित्रता और श्रेष्ठता यहां होने वाले कुंभ अथवा सिंहस्थ महापर्व के कारण भी मानी जाती है। कुंभ या सिंहस्थ पर्व इन्हीं स्थानों पर क्यों मनाया जाता है? इस संबंध में स्कंदपुराण में एक अत्यंत रोचक कथा उल्लिखित है- देवताओं और दानवों ने समुद्र-मंथन किया, उसमें से अनेक रत्न प्राप्त हुए। उनमें एक 'अमृत कुंभ कलश' भी मंथन से प्राप्त हुआ। उस कुंभ कलश के लिए देवता और दानवों में परस्पर संघर्ष होने लगा। इंद्र का पुत्र जयंत उस कलश को लेकर भागा। अमृत हेतु सभी उसके पीछे लग गए। कुंभ कलश भी एक हाथ से दूसरे हाथ पहुंचने लगा। देवताओं में भी सूर्य, चन्द्र और गुरु का अमृत कलश संरक्षण में विशेष सहयोग रहा था। चन्द्र ने कलश को गिरने से, सूर्य ने फूटने से तथा बृहस्पति ने असुरों के हाथ में जाने से बचाया था। फिर भी इस संघर्ष में कुंभ में से अमृत की बूंदें छलकीं। ये अमृत बूंदें- प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जयिनी नगरी में छलकी थीं अत: ये स्थल कुंभ पर्व के स्थल बन गए। ये ही वे चार तीर्थ हैं, जो अमृतत्व बिंदु के पतन के अमृत्तत्व पा गए। धार्मिक गणों की आस्था है कि कलश से छलकी बूंदों से न सिर्फ यह तीर्थ अपितु यहां की पवित्र नदियां, गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी एवं शिप्रा भी अमृतमयी हो गई हैं। 

इस कथा में धार्मिक पवित्रता के साथ-साथ खगोलीय एवं वैज्ञानिक महत्व भी समाहित है। ग्रहों और नक्षत्रों की विशिष्ट गतिविधि के कारण ही सिंहस्थ अथवा कुंभ पर्व 12 वर्षों में एक बार एक नगरी में मनाया जाता है। ये विशिष्ट ग्रहयोग भी प्रत्येक पवित्र स्थल के लिए पृथक-पृथक हैं। जैसे प्रयाग में होने वाले कुंभ पर्व पर मकर राशि में सूर्य, वृष राशि में गुरु तथा मास माघ होना आवश्यक है।
 
उज्जयिनी के कुंभ पर्व को अन्य पर्वों से अधिक महत्व प्राप्त है, क्योंकि इसमें सिंहस्थ भी समाहित है। 'सिंहस्थ-महात्म्य' में उज्जयिनी में सिंहस्थ पर्व होने के लिए 10 योगों का होना अत्यावश्यक माना गया है, वे योग हैं- वैशाख मास, शुक्ल पक्ष पूर्णिमा, मेष राशि पर सूर्य, सिंह राशि पर बृहस्पति, तुला राशि पर चन्द्र, स्वाति नक्षत्र, व्यतिपात, सोमवार एवं उज्जयिनी की भूमि।
 
सिंह राशि पर गुरु नहीं होने की स्थिति में यहां यह पर्व नहीं मनाया जा सकता। अन्य नवयोग होने पर भी यह पर्व नहीं होता। यहां सिंह राशि में गुरु की स्थिति को परम तेजस्वी माना गया है, तभी यहां के पर्व का नाम कुंभ पर्व न होकर 'सिंहस्थ' है। संवत् 2012 में अन्य नवयोगों के होने पर भी सिंह राशि के गुरु के न होने से यहां सिंहस्थ पर्व नहीं मनाया गया था।
 
वैसे भी भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य में स्नान, दान, पूजा का अत्यंत महत्व है। सिंहस्थ पर्व के अवसर पर शिप्रा स्नान का विशेष महत्व है। कहते हैं शिप्रा में इस काल में स्नान करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। ब्रह्म-हत्या, माता-पिता वध का पाप तथा सभी पाप कर्मों से मुक्ति का साधन सिंहस्थ के समय शिप्रा स्नान माना गया है। यह पर्व प्रति 12 वर्षों में आता है। सौभाग्य संयोग से इस वर्ष 22 अप्रैल से 21 मई 2016 तक ये विशिष्ट योग इस भूमि पर सिंहस्थ पर्व मनाने जा रहे हैं। देश-विदेश से करोड़ों यात्री-व्यापारी यहां आते हैं। वैसे भी उज्जयिनी प्राचीनकाल से उद्योग, व्यापार-व्यवसाय का प्रमुख केंद्र रही हैं, तब उज्जयिनी चहल-पहल, विभिन्न संस्कृतियों और संप्रदायों का केंद्र ही नहीं, देश की एकता, अखंडता का स्रोत हो जाती है। यूं भी इस नगरी के अपने मजे हैं। जैन, बौद्ध और शैव तीर्थों में गणना की जाने वाली इस नगरी में 'बुर्राक' और सवारी साथ-साथ, महाकाल की सवारी में मुस्लिम भाइयों के बैंड, पीर मत्स्येन्द्रनाथ की समाधि पर हिन्दू-मुस्लिम शारदोत्सव, तो सांकड़िया सुल्तान पर सभी मजहब के लोग एकसाथ दुआएं मांगते हैं। यहां रूमी का मकबरा भी है, तो बगैर नींव की मस्जिद भी। 
 
सभी धर्मों के मानने वाले साधु-संत भी यहां इकट्ठे हो रहे हैं। इनमें दशनामी साधु, उदासीन अखाड़ा, निर्मल संत, दादू मत, कबीरपंथी, शैवपंथी, शैववादी, अद्वैतवादी, वैष्णववादी हैं। वैष्णवों की भी अनेक शाखाएं हैं। वैष्णव स्वामी, रामानुजाचार्य, यामानुजाचार्य, माधवाचार्य, वल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य, चैतन्य स्वामी। इस समय सभी संप्रदायों के विदग्ध और प्रामाणिक विद्वानों के धार्मिक प्रवचन और भंडारे या सामूहिक भोज का आयोजन भी होता है। ये साधु धूनी रमाते हैं, कीर्तन करते हैं और तपस्या में लीन रहते हैं। सादे स्नान और शाही स्नान के लिए जाते हुए इन साधुओं का जुलूस बहुत भव्य और आकर्षक होता है। उज्जयिनी में इन साधुओं के अखाड़े स्थायी रूप से बने हैं। 
 
हालांकि सिंहस्थ की परंपरा अत्यंत प्राचीन है किंतु इस समय पर राजकीय व्यवस्था होती रही है, ऐसा कोई निश्चित प्रमाण नहीं है। राजकीय व्यवस्था की परिपाटी सिंधिया वंश द्वारा आरंभ की गई। सिंहस्थ पर्व, मात्र पर्व न होकर भारतीय ज्योतिष, खगोल, धर्म, दर्शन और राष्ट्रीय एकता का प्रतिनिधि पर्व है। 
 
शासकीय प्रमाणों से सन् 1909 में सिंहस्थ योजना का प्रामाणिक स्वरूप दिखाई पड़ता है। इस बीच के सिंहस्थों को लेकर अलग-अलग सरकार, विभिन्न शासकीय इकाइयों ने और प्रशासनिक स्तर पर अपने-अपने मसौदे तैयार किए। कुछ ने उन पर क्रियान्वयन का भी प्रयास किया किंतु 'मुण्डे मुण्डे- मतिर्भिन्ना:' के अनुसार उनमें स्थायी बोध एवं विकल्पों के स्थायी दोहन पर बल नहीं दिए जाने से सभी व्यवस्थाएं तदर्थ होकर रह जाती हैं। 
 
यूं भी मालवा को 'पर भोगी मालवा' कहा जाता है। यहां 'घर का जोगी जोगड़ा; और आन गांव का सिद्ध' रहा है, पर इस नगरी ने कम रत्न नहीं दिए संसार को- विक्रम विश्वविद्यालय, विक्रम कीर्ति मंदिर, सिंधिया शोध प्रतिष्ठान एवं कालिदास अकादमी के निर्माता अ.भा. कालिदास समारोह के जनक 'विक्रम' संपादक पद्मभूषण स्व. पं. सूर्यनारायण व्यास, पद्मश्री डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर, नरेश मेहता, शरद जोशी, गोवर्धनलाल ओझा, गजानन माधव 'मुक्तिबोध' से लेकर स्वयं लेखक।
 
प्रभृतिरत्न इसी नगरी की देन हैं, तो राजनीति में प्रकाश चन्द्र सेठी, सवाईसिंह सिसौदिया, दुर्गादास सूर्यवंशी इसी नगर की पैदाइश हैं। 
 
पत्रकारिता में पं. व्यास से लेकर कन्हैयालाल वैद्य, अवंतिलाल जैन, शिव शर्मा, प्रेम भटनागर और आलोक मेहता, विष्णु नागर, शाहिद मिर्जा के आगे तक एक परंपरा है। यहां की प्रमुख बोली है मीठी मालवी, जो अवंति से बनी फिर समय-समय पर अनेक प्रवासी साहित्यकारों ने भी इस नगरी को अपनी साधना स्थली बनाया। उनमें पं. बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', प्रो. रमाशंकर शुक्ल 'हृदय', पांडेय बैचन शर्मा 'उग्र', डॉ. भगवतशरण उपाध्याय, प्रभाकर माचवे, वीरेन्द्र कुमार से लेकर डॉ. शिवमंगलसिंह 'सुमन', बालकवि बैरागी तथा प्रभाकर श्रोत्रिय तक एक लंबी परंपरा रही है। डॉ. सुमन तो अपने अंतिम क्षण तक महाकाल की इस नगरी में रच-बस गए थे।
 
पत्रकारिता के क्षेत्र में स्व. राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी, आलोक मेहता, विष्णु नागर किसी न किसी रूप में इस नगर से सदैव जुड़े रहे हैं। 
 
स्व. श्रीमंत माधवराव सिंधिया को इस नगरी से विशेष ममत्व था और इसके विकास में वे श्रीमंत महाराजा जीवाजीराव सिंधिया की तरह सदैव ही सक्रिय रहे, चाहे उनके दल-पक्ष अलग-अलग हो, उज्जयिनी में उज्जयिनी के लिए सभी दल एक दिल हैं। यही हाल श्रीमंत अम्मा महाराज राजमाता का भी रहा है। आज भी दोनों बहनें श्रीमती वसुंधरा राजे एवं यशोधरा राजे वही परंपरा निभा रही हैं। 
 
होना यह चाहिए कि सिंहस्थ का यह महत्वपूर्ण पर्व उज्जयिनी नगरी का जन्मदिन हो जाए। आवश्यकता इस बात की है कि इस हेतु सभी वर्गों के लोगों को अपने मतभेद भुलाकर एकमत होना होगा। कालिदास ने कहा है- 'विद्या, वैभव, श्री, समृद्धि, सरस्वती और जागृति की दृष्टि से यह नगरी अपनी पुरातन नगरी की समता तो नहीं करती, फिर भी विद्या, वैभव संपन्न कुछ जागृत परिवार तो आज भी हैं।' 
 
वेद, महाभारत-पुराण-‍साहित्य, संगीत-योग-ज्योतिष नाटक और काव्य में उज्जयिनी की जो मुक्त कंठ से, उदारतापूर्वक सविस्तार गुणगाथा गाई है, वह केवल भावुकतावश नहीं, उसके रहस्य और विज्ञान को समझकर ही हम महाकाल, उज्जयिनी और शिप्रा को भी गहरे से समझ सकते हैं। 
 
यहां प्रतिवर्ष अखिल भारतीय कालिदास समारोह भी होता है, तो टेपा सम्मेलन भी और गधों का मेला भी। मेहंदी-कुंकुम से नमकीन तक के लिए विख्यात, भेरूगढ़ के छापे-चादरों से, माली-पुरे के हारों के लिए प्रख्यात है यह नगरी। उज्जयिनी का अवदान राष्ट्र का गौरव है। कभी औरंगजेब ने महाकाल के मंदिर में घी के दीये भी जलाए थे, यहां जहांगीर और अकबर भी आए। यह नगरी नहीं, इतिहास है भारत के विस्मृत गौरव का आज भी जीता-जागता स्मारक। 
 
'सिंहस्थ महापर्व' पर लाखों नर-नारी श्रद्धालु तीर्थयात्री समस्त जाति, संप्रदाय और मजहब का बांध तोड़कर यहां शिप्रा तट पर भारत के अंदर मानो एक छोटे भारत को बसा देते हैं। तब मन सहज भी कह उठता है कि यह महान राष्ट्र इन्हीं असंख्य प्रेरणाओं व शक्तियों से एकता और अखंडता के भावसूत्र में बंधा होगा।